टिहरी के राजा महेन्द्रप्रताप निःसन्तान थे । एक बार उन्होंने पुत्र-जन्मोत्सव के निमित्त पंडित मदनमोहन मालवीय व अन्य मित्रों को न्योता दिया ।
मालवीय जी सहित सभी लोग आ गये । सभी को भोजन वगैरह करवाया गया । तत्पश्चात् मालवीय जी बोलेः “भाई ! बेटे का नाम मुझसे रखवाना चाहते हो न, तो बेटे को ले आओ ।”
राजा महेन्द्रप्रताप गये महल में और रानी को ले आये । मालवीय जी ने रानी से पूछाः “बेटा कहाँ है ?”
महेन्द्रप्रताप ने कहाः “बेटा रानी को नहीं, मुझे हुआ है ।”
यह सुनकर सभी चकित हो गये कि राजा क्या बोल रहे हैं । मालवीय जी ने पुनः कहा “लाओ, आपको जो बेटा हुआ है उसका नाम रख दूँ ।”
राजा ने कहाः “मेरे 100 गाँव हैं । उनमें से में 99 गाँव विद्यार्थियों को ओजस्वी- तेजस्वी बनाये ऐसी संस्था के लिए अर्पित करता हूँ, ताकि विद्यार्थी केवल पेटपालू, प्रमाणपत्र के भगत न बनें परंतु अपने इहलोक-परलोक को सँवारने वाली विद्या को पाकर महान आत्मा बनें । केवल एक गाँव मैं अपने गुजारे के लिए रखता हूँ । मुझे यही सद्विचाररूपी बेटा पैदा हुआ है ।”
सभी उपस्थितों का हृदय पिघल गया और मदनमोहन मालवीय जी की आँखों में भी पानी आ गया । वे बोलेः “महेन्द्रप्रताप ! एक-दो या चार-पाँच बच्चों के लिए कई स्वार्थी लोग जी-जीकर खत्म हो जाते हैं । भारत के सपूतों के कल्याण के लिए आपको जो बेटा पैदा हुआ है, जो शुभविचाररूपी पुत्र उत्पन्न हुआ है उसका नाम भी दिव्य होना चाहिए । उस बेटे का मैं नाम रखता हूँ – प्रेम महाविद्यालय ।”
इसी ‘प्रेम महाविद्यालय’ में शिक्षा पाकर संपूर्णानंद एवं जुगल किशोर बिरला जैसों का प्रागट्य हुआ ।
राजा महेन्द्रप्रताप की तरह समाज के नौनिहालों को संस्कार एवं आत्मविद्या से पुष्ट करने में यत्नशील ‘बाल संस्कार केन्द्र’ चलाने वाले पूज्य बापू जी के हजारों शिष्य भी कितने धन्यवाद के पात्र हैं !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 9 अंक 201
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