“राम-नाम के प्रताप से पत्थर तैरने लगे, राम-नाम के बल से वानर-सेना ने रावण के छक्के छुड़ा दिये, राम नाम के सहारे हनुमान ने पर्वत उठा लिया और राक्षसों के घर अनेक वर्ष रहने पर भी सीता जी अपने सतीत्व को बचा सकीं। भरत ने चौदह साल तक प्राण धारण करके रखे क्योंकि उनके कण्ठ से राम नाम के सिवा दूसरा कोई शब्द न निकलता था। इसलिए संत तुलसीदास जी ने कहा कि ‘कलिकाल का मल धो डालने के लिए राम-नाम जपो।”
इस तरह प्राकृत और संस्कृत दोनों प्रकार के मनुष्य राम-नाम लेकर पवित्र होते हैं परंतु पावन होने के लिए राम-नाम हृदय से लेना चाहिए। मैं अपना अनुभव सुनाता हूँ। मैं संसार में यदि व्यभिचारी होने से बचा हूँ तो राम-नाम की बदौलत। मैंने दावे तो बड़े-बड़े किये हैं परंतु यदि मेरे पास राम-नाम न होता तो तीन स्त्रियों को मैं बहन कहने के लायक न रहा होता। जब-जब मुझ पर विकट प्रसंग आये हैं, मैंने राम-नाम लिया है और मैं बच गया हूँ। अनेक संकटों से राम-नाम ने मेरी रक्षा की है। अपने इक्कीस दिन के उपवास में राम-नाम ने ही मुझे शांति प्रदान की है और मुझे जिलाया है।”
महात्मा गाँधी
राम नाम की अपनी महिमा है, शिवनाम की भी अपनी महिमा है। सभी वैदिक मंत्र अपने आप में पूर्ण हैं। वेदपाठ करने से पुण्यलाभ होता है लेकिन पाठ करने से पहले और अंत में भूल चूक निवारण तथा साफल्य के लिए ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है।
भयनाशन दुर्मति हरण, कलि में हरि को नाम।
निशदिन नानक जो जपे, सफल होवहिं सब काम।।
जिनको जो गुरूमंत्र मिला है वह उनके लिए सर्वश्रेष्ठ है। भीख माँगने वाले अनाथ, सूरदास बालक प्रीतम को गुरु भाईदास जदीसे दीक्षा मिली। ध्यान भजन में लग गया तो संत प्रीतमदास जी बन गये और 52 आश्रम उनकी पावन प्रेरणा से बने। कबीर जी को रामानंद स्वामी से राम नाम की दीक्षा मिली, ध्रुव को नारदजी से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र की दीक्षा मिली। धनभागी हैं वे जिनको गुरुमंत्र की दीक्षा मिली और उसी में लगे रहे दृढ़ता से। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
भजन्ते मां दृढ़व्रताः।
जो दृढ़निश्चयी हैं वे इसी जन्म में पूर्णता तक पहुँचते हैं। नरसिंह मेहता ने कहाः
भोंय सुवाडुं भूखे मारूं, उपरथी मारूं मार।
एटलुं करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल।।
अर्थात्
धऱा सुलाऊँ, भूखा मारूँ, ऊपर से मारूँ मार।
इतना करते हरि भजे, तो कर डालूँ निहाल।।
कसौटी की घड़ियाँ आने पर भी जो भगवान का रास्ता नहीं छोड़ते, वे निहाल हो जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 206
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ