लगाया झूठा आरोप, हुआ कुदरत का प्रकोप

लगाया झूठा आरोप, हुआ कुदरत का प्रकोप


निर्दोष हृदय की आह ईश्वरीय कोप ले आती है। जुल्मी का जुल्म तेज होता है न, तो तुरंत दंड मिलता है। जुल्मी के पहले के कर्म कुछ पुण्यदायी हैं, तो उसको देर से दंड मिलता है, लेकिन जुल्म करने का फल तो मिलता है, लेकिन जुल्म करने का फल मिलता, मिलता और मिलता ही है ! न चाहे तो भी मिलता है। यह कर्म का संविधान है। ईश्वर का संविधान बहुत पक्का है। जुल्म सहने वाले के तो कर्म कटे लेकिन जुल्म करने वालों के तो पुण्य नष्ट हुए और बाकी उनके कर्मों का फल जब सामने आयेगा, एकदम रगड़े जायेंगे।

एक उच्चकोटि के गृहस्थी संत थे। उनका नाम था जयदेव जी। ‘गीत-गोविंद’ की रचना उन्होंने ही की है। एक बार वे यात्रा को निकले। एक राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया और उन्हें स्वर्णमुद्राएँ, चाँदी के सिक्के आदि भेंट में दिया। इच्छा न होने पर भी राजा की प्रसन्नता के लिए जयदेव जी ने निःस्पृह भाव से कुछ भेंट स्वीकार की और अपने गाँव को चल पड़े। जब वे घने जंगल में पहुँचे तब कुछ डकैतों ने उन पर पीछे से आक्रमण किया और उनका सब सामान छीनकर हाथ-पैर काटके उन्हें कुएँ में धकेल दिया। कुएँ में अधिक पानी तो था नहीं, घुटने भर पानी ! दलदल  में क्या डूबते, वहाँ ऐसे गिरे जैसे गद्दी पर पड़ जायें।

जयदेव जी बोलते हैं- “गोविन्द ! यह भी तेरी कोई लीला है। तेरी लीला अपरम्पार है !” इस प्रकार कहते हुए वे भगवन्नाम गुनगुना रहे थे। इतने में गौड़ देश के राजा लक्ष्मणसेन वहाँ से गुजरे। कुएँ में से आदमी की आवाज आती सुनकर राजा ने देखने की आज्ञा दी। सेवक ने देखा तो कुएँ में जयदेव जी भजन गुनगुना रहे हैं। राजा की आज्ञा से उन्हें तुरंत बाहर निकाला गया।

राजा ने पूछाः “महाराज ! आपकी ऐसी स्थिति किस दुष्ट ने की ? आपके हाथ-पैर किसने काटे ? आज्ञा कीजिये, मैं उसे मृत्युदंड दूँगा।”

उन ज्ञानवान महापुरूष ने कहाः “कुछ नहीं, जिसके हाथ-पैर थे उसी ने काटे।

करन करावनहार स्वामी।

सकल घटा के अंतर्यामी।।

यहाँ (हृदय) में भी जो बैठा है, उसी के हाथ-पैर हैं और जिसने काटे वह और यह सब एक है।”

“नहीं-नहीं, फिर भी बताओ।”

बोलेः “राजन् ! तुम मेरे में श्रद्धा करते हो न, तो जिसके प्रति श्रद्धा होती है उसकी बात मानी जाती है, आज्ञा मानी जाती है। इस बात को आप दुबारा नहीं पूछेंगे।”

राजा के मुँह पर ताला लग गया। राजा उन्हें अपने महल में ले गये। वैद्य हकीम आये, जो कुछ उपचार करना था किया।

बात पुरानी हो गयी। राजा को सूझा कि यज्ञ किया जाये, जिसमें दूर-दूर के संत-भक्त आयें, जिससे प्रजा को संतों के दर्शन हों, प्रजा का मन पवित्र हो, भाव पवित्र हों, विचार पवित्र हों। कर्म और उज्जवल हों, भविष्य उज्जवल हो।

यज्ञ का आयोजन हुआ। जयदेव जी को मुख्य सिंहासन पर बिठाया गया। अतिथि आये। भंडारा हुआ, सबने भोजन किया। उन्हीं चार डकैतों ने सोचा, ‘साधुओं के भंडारे में साधुवेश धारण करके जाने से दक्षिणा मिलेगी।’ इसलिए वे साधु का वेश बनाकर वहाँ आ पहुँचे।

अंदर आकर देखा तो स्तब्ध रह गये, ‘अरे ! जिसका धन छीनकर हाथ पैर काट के हमने कुएँ में फेंका था, वही आज राजा से भी ऊँचे आसन पर बैठा है ! अब तो हमारी खैर नहीं। क्या करें ? वापस भी नहीं जा सकते और आगे जाना खतरे से खाली नहीं है….’

इतने में जयदेवजी की नजर उन साधुवेशधारी डाकुओं पर पड़ी। उनकी ओर इशारा करते हुए वे बोलेः “राजन् ! ये चार हमारे पुराने मित्र हैं। इनकी मुझ पर बड़ी कृपा रही है। मैं इनका एहसान नहीं भूल सकता हूँ। आप मुझे जो कुछ दक्षिणा देने वाले हैं, वह इन चारों मित्रों को दे दीजिए।”

डकैत काँप रहे हैं कि हमारा परिचय दे रहे हैं, अब हमारे आखिरी श्वास हैं लेकिन जयदेव जी के मन में तो उनके लिए सदभावना थी।

राजा ने उन चारों को बड़े सत्कार से चाँदी के बर्तन, स्वर्णमुद्राएँ, मिठाइयाँ, वस्त्रादि प्रदान किये। जयदेव जी ने कहाः “मंत्री ! इन महापुरूषों को जंगल पार करवाकर इनके गन्तव्य तक पहुँचा दो।”

जाते-जाते मंत्री को आश्चर्य हुआ कि ये चार महापुरुष कितने बड़े हैं ! मंत्री ने बड़े आदर से पूछाः “महापुरूषो ! गुस्ताखी माफ हो, आपके लिये जयदेवजी महाराज इतना सम्मान रखते हैं और राजा ने भी आपको सम्मानित किया, आखिर आपका जयदेव जी के साथ क्या संबंध है ?”

उन चार डकैतों ने एक दूसरे की तरफ देखा, थोड़ी दूर गये और कहानी बनाकर बोलेः “ऐसा है कि जयदेव हमारे पुराने साथी हैं। हम लोग एक राज्य में कर्मचारी थे। इन्होंने ऐसे-ऐसे खजाने चुराये कि राजा ने गुस्से में आकर इनको मृत्युदंड देने की आज्ञा दे दी, लेकिन हम लोगों ने दया करके इन्हें बचा लिया और हाथ-पैर कटवाकर छोड़ दिया।

हम कहीं यह भेद खोल न दें, इस डर से इन्होंने हमारा मुँह बन्द करने के लिए स्वागत कराया है।”

देखो, बदमाश लोग कैसी कहानियाँ बनाते हैं ! कहानी पूरी हुई न हुई कि सृष्टिकर्ता से सहन नहीं हुआ और धरती फट गयी, वे चारों उसमें धँसने लगे और बिलखते हुए घुट घुट के मर गये। मंत्री दंग रह गया कि ऐसे भी मृत्यु भी होती है ! उनको दी हुई दक्षिणा, सामान आदि वापस लाकर राजा के पास रखते हुए मंत्री ने पूरी घटना सुना दी।

राजा ने जयदेव जी को चकित मन से सब बातें बतायीं। महाराज दोनों कटे हाथ ऊपर की तरफ करके कहने लगेः “हे ईश्वर ! बेचारों को अकाल मौत की शरण दे दी !” उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। ईश्वर को हुआ की ऐसे जघन्य पापियों के लिए भी इनके हृदय में इतनी दया है ! तो ईश्वर का अपना दयालु स्वभाव छलका और जयदेव जी के कटे हुए हाथ-पैर फिर से पूर्ववत् हो गये। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

उसने बड़े ही कौतूहल से आग्रहपूर्वक पूछाः “महाराज ! अब असलियत बताइये, वे कौन थे ?”

अब जयदेव जी को असलियत बतानी पड़ी। पूर्व वृत्तांत बताकर उन्होंने कहाः “राजन् ! मैंने सोचा कि ‘ इनको पैसों की कमी है, इसलिए बेचारे इतना जघन्य पाप करते हैं। न जाने किन योनियों में इस पाप का फल भुगतना पड़ेगा ! इस बार आपसे खूब दक्षिणा, धन दिला दूँ ताकि वे ऐसा जघन्य पाप न करें।’ क्योंकि कोई भी पापी पाप करता है तो कोई देखे चाहे न देखे, उसे उसका पाप कुतर-कुतर करके खाता है। फिर भी ये पाप से नहीं बचे तो सृष्टिकर्ता से सहा नहीं गया, ईश्वरीय प्रकोप से धरती फटी, वे घुट मरे।”

जो व्यक्ति उदारात्मा है, प्राणिमात्र का हितैषी है उसके साथ कोई अन्याय करे, उसका अहित करे तो वह भले सहन कर ले किंतु सृष्टिकर्ता उस जुल्म करने वाले को देर-सवेर उसके अपराध का दंड देते ही हैं।

संत का निंदकु महा हतिआरा।

संत का निंदकु परमेसुरि मारा।।

संत के दोखी की पुजै न आस।

संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

आप निश्चिंत रहो, शांत रहो, आनंदित रहो तो आपका तो मंगल होगा, अगर आपका कोई अमंगल करेगा तो देर सवेर कुदरत उसका स्वभाव बदल देगी, वह आपके अनुकूल हो जायेगा। अगर वह आपके अनुकूल नहीं होता तो फिर चौदह भुवनों में भी उसे शांति नहीं मिलेगी और जिसके पास शांति नहीं है, फिर उसके पास बचा ही क्या ! उसका तो सर्वनाश है। दिन का चैन नहीं, निश्चिंतता की नींद नहीं, हृदय में शांति नहीं तो फिर और जो कुछ भी है, उसकी कीमत भी क्या !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 3,4,5. अंक 206

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