(श्री वल्लभाचार्य जयंतीः 10 अप्रैल)
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
मंगल तो अपनी तपस्या से और देवताओं की, बड़ों की कृपा से हो जाता है लेकिन परम मंगल तो सदगुरु से होता है। सदगुरु की कृपा से भगवान आपके शिष्य भी बन सकते हैं।
भक्तकवि सूरदास जी भजन गाते थे। एक बार वे वल्लभाचार्य महाराज के पास आये तो वल्लभाचार्यजी महाराज के पास आये तो वल्लभाचार्य जी ने कहाः “भजन गाने में तो तुम्हारा नाम है, जरा भजन सुना दो।” तो सूरदास जी ने भजन अलापा। भगवान के भक्त तो थे ही, वे फालतू गीत नहीं गाते थे, भगवान के ही गीत गाते थे। मो सम कौन कुटिल खल कामी…. प्रभु मोरे औगुन चित न धरौ…. आदि भजन वे गाने लगे तो वल्लभाचार्य जी ने कहाः “क्या सूर होकर गिड़गिड़ा रहे हो ! यह केवल हाथाजोड़ी और दीनता-हीनता, पुकार-पुकार, पुकार…. ! क्या जिंदगी भर गिड़गिड़ाते ही रहोगे ? भगवान ने तुम्हें गुलाम या मोहताज बनने के लिए धरती पर जन्म दिया है क्या ? अरे, भगवद्-तत्त्व की महिमा समझो, दीनता को त्यागो। भगवान तुमसे दूर नहीं हैं, तुम भगवान से दूर नहीं हो। मिथ्या प्रपंच को लेकर कब तक गिड़गिड़ाते रहोगे ! भगवान ने तुमको गिड़गिड़ाने वाला याचक नहीं बनाया है। तुम भगवान के बाप बन सकते हो, उनके गुरु बन सकते हो। भगवान का दादागुरु भी बन गया मनुष्य !”
सूरदास जी को बात लग गयी और वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर उनके मार्गदर्शन में जब थोड़ी साधना की, तब सूरदास जी बोलते हैं- “भगवान तो मेरा बेटा लगता है।” और वे भगवान की पुत्ररूप में आराधना करने लगे। पूर्वार्ध में तो सूरदास जी विनयी भक्त थे और उनके भजनों में गिड़गिड़ाहट थी परंतु गुरु की दीक्षा के बाद उनके भजनों में भगवत्स्वरूप छलकने लगा। ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व, ऐसी प्रभावशाली वाणी हो गयी कि लगता था जैसे भगवान ही बोल रहे हैं वे एक सुन्दरी के पीछे बावरे-से हो गये थे, फिर वैराग्य हुआ तो अपनी आँखें फोड़ लीं और सूरदास बन गये।
सांदीपनी अपने विद्यार्थीकाल में पढ़ने में तेज नहीं थे लेकिन गुरुभक्ति दृढ़ थी तो गुरु ने प्रसन्न होकर कहाः “बेटा ! तू तो मेरा शिष्य है लेकिन श्रीकृष्ण तेरे शिष्य बनेंगे।” तो गुरु ने श्रीकृष्ण को अपने शिष्य का शिष्य बना दिया न ! मनुष्य में यह ताकत है कि भगवान को अपने चेले का चेला बना दो। क्यों सारी जिंदगी गिड़गिड़ाते रहते हो ! सेठों की, नेताओं की, राजाओं की खुशामद कर-करके मरते रहते हो ! समर्थ रामदासजी को रिझाकर शिवाजी स्वयं स्वामी हो गये। पिताजी ने कहाः ‘बीजापुर नरेश को मत्था टेको।’ लेकिन शिवाजी ने नहीं टेका। समर्थ रामदास जी के यहाँ मत्था टेकने को किसी ने नहीं कहा पर शिवाजी ने मत्था टेका ! ऐसा टेका, ऐसा टेका कि बस, अब भी भारत के लोग शिवाजी को मत्था टेकते हैं।
लल्लू-पंजुओं के आगे खुशामद करते रहें, झुकते रहें, काहे को !
वह सर सह नहीं जो हर दर पे झुकता रहे।
और वह दर दर नहीं जहाँ सज्जनों का सर न झुके।।
ऐसा है ब्रह्मवेत्ता गुरु का दर, जहाँ सज्जनों का सर अपने-आप झुक जाता है। जो तैंतीस करोड़ देवताओं के स्वामी हैं, बारह मेघ जिनकी आज्ञा में चलते हैं ऐसे इन्द्रदेव भी आत्मसाक्षात्कारी गुरु को देखकर नतमस्तक हो जाते हैं।
एक बार मुझे गुरुजी बोलेः “गुलाब के फूल को किराने की दुकान पर ले जाओ और दाल, मूँग, मटर, चना, शक्कर, गुड़ सब पर रखो, फिर सूँघोगे तो सुगन्ध काहे की आयेगी ?”
मैंने कहाः “साँईं ! गुलाब की ही आयेगी।” तो गुरुजी ने मुझसे कहाः “तू गुलाब होकर महक…. तुझे जमाना जाने।” मेरे गुरुदेव के इन दो शब्दों ने कितने करोड़ लोगों का भला कर दिया !
नजरों से वे निहाल हो जाते हैं,
जो संतों की नजरों में आ जाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 207
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