जल-सेवन विधि

जल-सेवन विधि


हमारे शरीर में जलीय अंश की मात्रा 50 से 60 प्रतिशत है। प्रतिदिन सामान्यतः 2300 मि.ली. पानी त्वचा, फेफड़ों व मूत्रादि के द्वारा उत्सर्जित होता है। शरीर को पानी की आवश्यकता होने पर प्यास लगती है। उसकी पूर्ति के लिए जितना आवश्यक है, उतना ही पानी पीना चाहिए। उससे कम अथवा अधिक पानी पीना, प्यास लगने पर भी पानी न पीना अथवा बिना प्यास के पानी पीना रोगों को आमंत्रण देना है।

आयुर्वेदोक्त जल-सेवन विधि

भोजन के आरम्भ में पानी पीने से जठराग्नि मंद होती है व दुर्बलता आती है।

भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी पीना चाहिए। इससे अन्न का पाचन सहजता से होकर शरीर की सप्तधातुओं में साम्य बना रहता है व बल आता है। ठंडा पानी हानिकारक है। प्रायः भोजन के बीच एक ग्लास (250 मि.ली.) पानी पीना पर्याप्त है।

भोजन के तुरंत बाद पानी पीने से कफ की वृद्धि होती है व मोटापा आता है। भोजन के एक से डेढ़ घंटे बाद पानी पीना चाहिए।

भोजन करते समय जठर का आधा भाग अन्न से व एक चौथाई भाग पानी से भरें तथा एक चौथाई भाग वायु के लिए रिक्त रखें।

पचने में भारी, तले हुए पदार्थो का सेवन करने पर उनका सम्यक् पाचन होने तक बार-बार प्यास लगती है। उसके निवारणार्थ गुनगुना पानी पीना चाहिए।

केवल गर्मियों में ही शीतल जल पियें, बारिश व सर्दियों में सामान्य या गुनगुना जल ही पीयें।

सूर्योदय से 2 घंटे पूर्व रात का रखा हुआ आधा लीटर पानी पीना असंख्य रोगों से रक्षा करने वाला है।

रात को सोने से पहले उबालकर औटाया हुआ गर्म पानी पीने से त्रिदोष साम्यावस्था में रहते हैं। पानी को यदि 3∕4 भाग शेष रहने तक उबालते हैं तो वह पानी वायुशामक हो जाता है। 1∕2 शेष रहने तक उबालते हैं तो वह पित्तशामक तथा 1∕4 शेष रहने तक उबालते हैं तो वह कफशामक हो जाता है।

जब बायाँ नथुना चल रहा हो तभी पेय पदार्थ पीना चाहिए। दायाँ स्वर चालू हो उस समय यदि पेय पदार्थ पीना पड़े तो दायाँ नथुना बंद करके बायें नथुने से श्वास लेते हुए ही पीना चाहिए।

खड़े होकर पानी पीना हानिकारक है, बैठकर चुस्की लेते हुए पानी पीयें।

विशेष

प्यास लगने पर पानी न पीने से मुँह सूखना, थकान, कम सुनाई देना, चक्कर आना, हृदयरोग व इन्द्रियों की कार्यक्षमता का ह्रास होता है।

आवश्यकता से अधिक जल पीने आँतों, रक्तवाहिनियों, हृदय, गुर्दे, मूत्र नलिकाओं व यकृत (लीवर) को बिन जरूरी काम करना पड़ता है, जिससे उनकी कार्यक्षमता धीरे-धीरे कम होने लगती है। अधिक जल-सेवन अम्लपित्त (एसीडिटी), जलोदर, सिरसंबंधी रोग, नपुंसकता, सूजन, प्रमेह, संग्रहणी, दस्त का हेतु है।

प्रतिदिन की कुल 2300 मि.ली. पानी की आपूर्ति हेतु डेढ़ लीटर पानी पीने में और लगभग 800 मि.ली. पानी चावल, रसमय सब्जी, दाल, रोटी आदि के द्वारा भोजन के अंतर्गत लें। ऋतु, देश, काल, आहार, व्यवसाय, दिनचर्या आदि के अनुसार यह मात्रा परिवर्तित होती है। गर्मियों में अधिक जल की आवश्यकता की पूर्ति फलों के रस, दूध, शरबत आदि के द्वारा की जा सकती है।

अजीर्ण, गैस, नया बुखार, हिचकी, दमा, मोटापा, मंदाग्नि, पेट-दर्द व सर्दी जुकाम होने पर पानी गर्म करके पीना चाहिए।

दाह(जलन), चक्कर आना, मूर्च्छा, परिश्रमजन्य थकान, पित्त के विकार, शरीर से रक्तस्राव होना, आँखों के सामने अँधेरा छाना ऐसी अवस्थाओं में शीतल जल का सेवन हितकारक है।

अति शीत जैसे फ्रीज या बर्फवाला पानी पीने से हृदय, पीठ व कमर में दर्द तथा हिचकी, खाँसी, दमा आदि कफजन्य विकार उत्पन्न होते हैं।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 210

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