ज्ञान का अंजन मिला तो आँख खुल गयी

ज्ञान का अंजन मिला तो आँख खुल गयी


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

संत कबीर जयंतीः 26 जून 2010

कबीर दास जी के पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था। कमाली जब सोलह सत्रह वर्ष की थी तब की एक घटना है। कमाली सदैव प्रसन्न रहती थी। उसका स्वभाव मधुर और हिलचाल इतनी पवित्र थी कि कोई ब्राह्मण सोच भी नहीं सकता था कि वह बुनकर है। उसकी निगाहें नासाग्र रहतीं. वह इधर उधर नहीं देखती थी। युवती तो थी, उम्रलायक थी लेकिन कबीर जी की मधुर छत्रछाया में रहने से उसका जीवन बड़ा आभा-सम्पन्न, प्रभाव सम्पन्न था।

एक बार कमाली पनघट पर पानी भरने गयी। कुएँ से गागर भरकर ज्यों ही बाहर निकली, इतने में एक ब्राह्मण आया और बोलाः “मैं बहुत प्यासा हूँ।” कमाली ने गागर दे दी। वह ब्राह्मण गागर का काफी पानी पी गया और लम्बी साँस ली। कमाली ने पूछाः “भाई ! इतना सारा पानी पी गये, क्या बात है ?”

ब्राह्मण ने कहाः “मैं कश्मीर गया था पढ़ने के लिए। अब पढ़ाई पूरी हो गयी तो अपने घर जा रहा था। रास्ते में कहीं पानी मिला नहीं, सुबह का प्यासा था। पानी नहीं मानो यह तो अमृत था, बहुत देर के बाद मिला है तो इसकी कद्र हो रही है। अच्छा तुम कौन सी जाति की हो ?”

कमाली बोलीः “कमाल है ! पानी पीने के बाद जाति पूछते हो ? ब्राह्मण ! पहले जाति पूछते।”

ब्राह्मणः “मैं तो समझा तुम ब्राह्मण की कन्या होगी और फिर जल्दबाजी में मैंने पूछा नहीं, प्यास बहुत जोरों की लगी थी। बताओ, जाति की कौन हो तुम ?”

कमालीः “हमारे पिता संत कबीर जी ताना-बुनी करते हैं। हम जाति के बुनकर हैं।”

उस विद्वान का नाम था हरदेव पंडित। ‘बुनकर’ सुनते ही वह आगबबूला हो गया, बोलाः “कबीर तो ब्राह्मणों को धर्मभ्रष्ट करते हैं और तुम भी उसमें सहयोगी हो ! मुझे तो तू ब्राह्मण कन्या लगती थी। तूने मुझे पानी देने के पहले क्यों  नहीं बताया कि हम बुनकर हैं ?”

कमालीः “ब्राह्मण ! तुमने पूछा ही नहीं और मैंने धर्मभ्रष्ट करने के लिए तुमको पानी नहीं पिलाया है। मैंने तो देखा कोई प्यासा पथिक जा रहा है और पानी माँगता है इसलिए पानी पिलाया है। तुमने पानी जैसी चीज माँगी तो मैं ना कैसे करती ? क्यों तुम्हें जाति-पाँति के चक्कर में डालूँ ? मैंने तो देखा, पथिक प्यासा है, वैसे तो करोड़ों-करोड़ों लोग प्यासे ही हैं, उनकी प्यास तो मेरे पिता जी ही बुझा सकते हैं लेकिन तुम्हारे जैसे पथिक, जिसकी प्यास पानी से बुझती है उसकी प्यास तो मैं भी बुझा सकती हूँ। जिसकी प्यास आत्मा-परमात्मानुसंधान से बुझती है उसकी प्यास तो मेरे पिता जी बुझा सकते हैं।”

हरदेव पंडितः “वाह ! जैसा तेरा बाप चतुर है बात करने में वैसी तू भी चतुर है। अपनी जाति नहीं बतायी और लगी है ज्ञान छाँटने।”

कमालीः “पंडित जी ! ज्ञान के बिना तो जीवन खोखला है। ज्ञान तो पानी भरते समय भी चाहिए, रोटी बनाते समय और चलते समय भी चाहिए। कश्मीर के विद्वानों के पास उचित विद्या है, यह ज्ञान था तभी तो तुम पढ़ने गये। पढ़ाई पूरी हुई, यह ज्ञान हुआ तभी अपने वतन में आये हो। प्यास का ज्ञान हुआ तभी तुमने पानी माँगा। ज्ञान तो सतत चाहिए लेकिन वह ज्ञान अज्ञानसंयुक्त शरीर को पोसने में लगता है इसलिए दुःखकारी हो जाता है। यदि वह ज्ञानस्वरूप आत्मा के अनुसंधान में आकर फिर संसार का व्यवहार करता है तो पूजनीय हो जाता है, वंदनीय हो जाता है।”

हरदेव पंडित ने सोचा कि मैं कश्मीर से पढ़कर आया और यह जुलाहे की लड़की मुझे ज्ञान दे रही है। वह बोलाः “चुप रह, ब्राह्मणों को ज्ञान छाँटती है !”

कमालीः “पंडित जी ! ब्राह्मण कौन और बुनकर कौन ?”

हरदेवः “जो जुलाहे लोग हैं वे बुनकर होते हैं और जो ब्राह्मण के कुल में जन्म लेते हैं वे ब्राह्मण होते हैं।”

कमालीः “नहीं पंडित जी ! जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण होता है और जो राग-द्वेष में झूलता रहता है वह जुलाहा होता है।”

हरदेवः “तुम्हारे पिता जी भी ब्राह्मणों के विरुद्ध बोलते हैं, पंडित बदे सो झूठा और तुमने हमारे साथ ऐसा किया ! लेकिन लड़कियों से मुँह लगना ठीक नहीं। चलो तुम्हारे पिता के पास, वहीं खुलासा होगा।”

कमालीः “हाँ, चलिये पिता जी के पास।”

कबीर जी तो अपने सततस्वरूप में रमण करने वाले थे। उन्होंने देखा कि कमाली के साथ कोई पंडित चेहरे पर रोष लिये आ रहा है। कबीर जी ने अपने स्वरूप आत्मदेव में गोता मारा और पूरी बात जान ली।

पंडित बोलाः “तुम्हारी लड़की ने मेरा ब्राह्मणत्व नाश कर दिया। मुझे अशुद्ध पानी पिलाकर अशुद्ध कर दिया।”

जिनको अपने सततस्वरूप का स्मरण होता है, वे छोटी-मोटी बातों में उलझते नहीं। भले बाहर से कभी आँख दिखाके भी बात करें लेकिन भीतर से उलझते नही। वे समझते है कि संसार एक नाटक है।

कबीर जी हँसने लगे, बोलेः “पंडित ! पानी इसके घड़े में आने से अशुद्ध हो गया ! लेकिन कुएँ के अंदर क्या-क्या होता है ? उसमें जो मछलियाँ रहती हैं उनका मलमूत्र आदि उसी में होता है। कछुए आदि और भी जीव-जंतु रहते हैं, उनका पसीना, लार, थूक, मैला, उनके जन्म और मृत्यु के वक्त की सारी क्रियाएँ सब पानी में ही होती है। घड़ा जिस मिट्टी से बना है उसमें भी कई मुर्दों की मिट्टी मिली होती है, कई जीव-जंतु मरते हैं तो उसी मिट्टी में मिल जाते हैं। उसी मिट्टी से घड़े बनते हैं, फिर चाहे वह घड़ा ब्राह्मण के घर पहुँच जाय, चाहे बुनकर के घर। पृथ्वी पर अनंत बार जीव आये और मरे। ऐसी कौन सी मिट्टी होगी, ऐसा कौन सा एक कण होगा जिसमे मुर्दे का अंश न हो। पंडित ! कुआँ तो गाँव का है, उसमें से तो सभी लोग पानी भरते है, कई बुनकरों के घड़े, मटके, सुराहियाँ उसमें पड़ती होंगी। बुनकर के हाथ की रस्सियाँ भी पड़ती होंगी, उसी कुएँ से गाँव के सभी ब्राह्मण पानी भरते हैं और तुम पवित्रता-अपवित्रता कि विचार करते हो, तो अपवित्र विचार यही है कि यह बुनकर है। शूद्र वह है जो हाड़-मांस की देह को ‘मैं’ मानता है और ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को जानता है अथवा जानने के रास्ते चलता है।”

कबीर जी की युक्तियुक्त बात से पंडित बड़ा प्रभावित हुआ। कबीर जी के दिल में सततस्वरूप का अनुसंधान था। वे घृणा, अहंकार से नहीं, नीचा दिखाने के लिए नहीं बल्कि उसका अज्ञान, अशांति मिटाकर उसको शांति का दान देने के लिए बोल रहे थे। पंडित का गुस्सा शांत हुआ। कमाली को पंडित ने साधुवाद दिया और कहाः “हे देवी ! मैं कृतार्थ हो गया। आज मेरी विद्या सफल हुई कि मैं ऐसे ब्रह्मवेत्ता के चरणों में पहुँचा। तुम्हारे पवित्र हाथों से पानी पीकर मेरा अहंकार भी शांत हो गया, मेरी बेवकूफी भी दूर हो गयी। अब मैं भी आप लोगों के रास्ते चलूँगा।”

जो देह को में मानते हैं वे भगवान के मंदिर में रहते हुए भी भगवान से दूर हैं और जो भगवान के स्वरूप का चिंतन करते है व बाजार में रहते हुए भी मंदिर में हैं। इसलिए सतत चिंतन किया जाय कि जहाँ से मन फुरता है, बुद्धि को सत्ता मिलती है, चित्त को चेतना मिलती है, जहाँ से मन भूख-प्यास का पता लगाता है और मन को पता लगाने का जहाँ से सामर्थ्य मिलता है, उस चैतन्य आत्मा की स्मृति ही परमात्मा की सतत् स्मृति है। उस चैतन्य को ‘मैं’ मानना समझो सारे दुःख, क्लेश, पाप से परे हो जाना है और उस चैतन्य की विस्मृति, करके देह को ‘मैं’ मानना मानो सारे दुःख, क्लेश और पापों को आमेंत्रित करना है।

ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 25,26,27 अंक 210

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