किसी के द्वारा की गयी भलाई या उपकार को न मानने वाला व्यक्ति कृतघ्न कहलाता है। ‘महाभारत’ में पितामह भीष्म धर्मराज से कहते हैं- “कृतघ्न, मित्रद्रोही, स्त्रीहत्यारे और गुरुघाती इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।”
गौतम नाम का ब्राह्मण था। ब्राह्मण तो वह केवल जाति से था, वैसे एकदम निरक्षर और म्लेच्छप्राय था। पहले तो वह भिक्षा माँगता था किंतु भिक्षाटन करते हुए जब म्लेच्छों के नगर में पहुँचा तो वहीं एक विधवा स्त्री को पत्नी बना कर बस गया। म्लेच्छों के संग से उसका स्वभाव भी उन्हीं के समान हो गया। वन में पशु-पक्षियों का शिकार करना ही उसकी जीविका हो गयी।
एक दिन एक विद्वान ब्राह्मण जंगल से गुजरे यज्ञोपवीतधारी गौतम को व्याध के समान पक्षियों को मारते देख उन्हें दया आ गयी। उन्होंने उसको समझाया कि यह पापकर्म छोड़ दे। गौतम के चित्त पर उनके उपदेश का प्रभाव पड़ा और वह धन कमाने का दूसरा साधन ढूँढने निकल पड़ा। वह व्यापारियों के एक दल में शामिल हो गया किंतु वन में मतवाले हाथियों ने उस दल पर आक्रमण कर दिया, जिससे कुछ व्यापारी मारे गये। गौतम अपने प्राण बचाने के लिए भागा और रास्ता भटक गया। वह भटकते-भटकते दूसरे जंगल में जा पहुँचा, जिसमें पके हुए मधुर फलोंवाले वृक्ष थे। उस वन में महर्षि कश्यप का पुत्र राजधर्मा नामक बगुला रहता था। गौतम संयोगवश उसी वटवृक्ष के नीचे जा बैठा, जिस पर राजधर्मा का विश्राम-स्थान था।
संध्या के समय जब राजधर्मा ब्रह्मलोक से लौटे तो देखा कि उनके यहाँ एक अतिथि आया है। उन्होंने मनुष्य की भाषा में गौतम को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया। गौतम को भोजन करा के कोमल पत्तों की शय्या बना दी। जब वह लेट गया तब राजधर्मा अपने पंखों से उसे हवा करने लगे।
परोपकारी राजधर्मा ने पूछाः “ब्राह्मणदेव ! आप कहाँ जा रहे हैं तथा किस प्रयोजन से यहाँ आना हुआ ?”
गौतमः मैं बहुत गरीब हूँ और धन पाने के लिए यात्रा कर रहे था। मेरे कुछ साथियों को हाथियों ने मार डाला। मैं अपने प्राण बचाने के लिए इधर आ गया हूँ।”
राजधर्माः “आप मेरे मित्र राक्षसराज विरूपाक्ष के यहाँ चले जाइये, वे आपकी मदद करेंगे।”
प्रातःकाल ब्राह्मण वहाँ से चल पड़ा। जब विरूपाक्ष ने सुना कि उनके मित्र ने गौतम को भेजा है, तब उन्होंने उसका बड़ा सत्कार किया और उसे खूब धन देकर विदा किया।
गौतम जब लौटकर आया तो राजधर्मा ने फिर सत्कार किया। रात्रि में राजधर्मा भी भूमि पर ही सो गये। उन्होंने पास में अग्नि जला दी थी, जिससे वन्य पशु रात्रि में ब्राह्मण पर आक्रमण न करें। परंतु रात्रि में जब उस लालची, कृतघ्न गौतम की नींद खुली तो वह सोचने लगा, ‘मेरा घर यहाँ से बहुत दूर है। मेरे पास धन तो पर्याप्त है पर मार्ग में भोजन के लिए तुच्छ नहीं है। क्यों न इस मोटे बगुले को मारकर साथ ले लूँ तो रास्ते का मेरा काम चल जायेगा।’ ऐसा सोचकर उस क्रूर ने सोते हुए राजधर्मा को मार डाला। उनके पंख नोच दिये, अग्नि में उनका शरीर भून लिया और धन की गठरी लेकर वहाँ से चल पड़ा।
इधर विरूपाक्ष ने अपने पुत्र से कहाः “बेटा ! मेरे मित्र राजधर्मा प्रतिदिन ब्रह्माजी को प्रणाम करने ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटते समय मुझसे मिले बिना घर नहीं जाते। आज दो दिन बीत गये, वे मिलने नहीं आये। मुझे उस गौतम ब्राह्मण के लक्षण अच्छे नहीं लगते। मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। तुम जाओ, पता लगाओ कि मेरे मित्र किस अवस्था में है।”
राक्षसकुमार दूसरे राक्षसों के साथ जब राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के निवासस्थान पर पहुँचा तो देखा कि राजधर्मा के पंख खून से लथपथ बिखरे पड़े हैं। इससे उसे बड़ा दुःख हुआ। क्रोध के मारे उसने गौतम को ढूँढना प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देर मे राक्षसों ने उसे पकड़ लिया और ले जाकर राक्षसराज को सौंप दिया।
अपने मित्र का आग में झुलसा शरीर देखकर राक्षसराज शोक से मूर्च्छित हो गये। मूर्च्छा दूर होने पर उन्होंने कहाः “राक्षसो ! इस दुष्ट के टुकड़े-टुकड़े कर दो और अपनी भूख मिटाओ।”
राक्षसगण हाथ जोड़कर बोलेः “राजन् ! इस पापी को हम लोग नहीं खाना चाहते। आप इसे चाण्डालों को दे दें।”
राक्षसराज ने गौतम के टुकड़े-टुकड़े कराके वह मांस चाण्डालों को देना चाहा तो वे भी उसे लेने को तैयार नहीं हुए। वे बोलेः “यह तो कृतघ्न का मांस है। इसे तो पशु, पक्षी और कीड़े तक नहीं खाना चाहेंगे तो हम इसे कैसे खा सकते हैं !” फलतः वह मांस एक खाई में फेंक दिया गया।
राक्षसराज ने सुगंधित चंदन की चिता बनवायी और उस पर बड़े सम्मान से अपने मित्र राजधर्मा का शरीर रखा। उसी समय देवराज इन्द्र के साथ कामधेनु उस परोपकारी महात्मा के दर्शन करने आकाशमार्ग से आयीं। कामधेनु के मुख से अमृतमय झाग राजधर्मा के मृत शरीर पर गिर गया और राजधर्मा जीवित हो गये।
इस प्रकार परोपकारी, धर्मनिष्ठ राजधर्मा की तो जयजयकार हुई और कृतघ्न गौतम को प्राप्त हुई – मौत अपकीर्ति और नरकों की यातनापूर्ण यात्रा !
ऐसे अनेक कृतघ्नों की दुर्दशा का वर्णन इतिहास में मिलता है। जैसे – महावीरजी से गोशालक ने तेजोलेश्या विद्या की शिक्षा ली और उस विद्या का प्रयोग उन्हीं के ऊपर कर दिया तो महावीर जी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, उलटा वह दुष्ट ही उस विद्या के तेज से झुलसकर मर गया।
महापुरुष तो अपनी समता में रहते हैं, उनके मन में किसी के प्रति नफरत नहीं होती पर प्रकृति उन कृतघ्नों को धोबी के कपड़ों की तरह पीट-पीटकर मारती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2010, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 210
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