ज्ञान की दृष्टि बना लो

ज्ञान की दृष्टि बना लो


(ज्ञानसिन्धु पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

जान लिया कीचड़ में कोई सार नहीं, जान लिया तरंग बनकर किनारों से टकराने में सार नहीं, अब तो मुझे जलराशि में ही अच्छा लगता है। भीड़भाड़ में विकारी लोगों के बीच रहना अच्छा नहीं लगता। एकांत में या तो फिर भगवान की मस्ती में जीनेवाले मस् साधकों के बीच रहना अच्छा लगता है, बाकी फिर हमें और कहीं अच्छा नहीं लगता। अब इन्द्रियों के प्रदेश में ज्यादा जीना, घूमना अच्छा नहीं लगता। इन्द्रियातीत आत्मभाव में, आत्मज्ञान में ही सुख का अनुभव है। ‘आओ सेठ ! बैठो सेठ ! फलाना सेठ !’ – ऐसे लोगों के पास अब सेठपने का अहं को पोसने में मजा नहीं आता। अब तो मजा आता है कि मिट जायें….

मिल जाये कोई पीर फकीर, पहुँचा दे भवपार।

जीवन की शाम हो जाय उसके पहले अपने जीवनतत्त्व में विश्रांति मिल जाय बस ! अब ‘फलानी जगह का यह चेयरमैन है, फलाने का यह है….’ – यह सब देख लिया खिलवाड़। अपने को सता के देख लिया, खपा के देख लिया। अभी देखना बाकी है तो फिर जरा करके देख लो। अब तक तो करके देख लिया आजीवन। अनुभवी आदमी एक थप्पड़ से चेत जाता है, नहीं तो फिर दूसरा मिलता है, तीसरा मिलता है।

संसार में प्रकृति थप्पड़ मार-मार के भी तुम्हें परमेश्वर पद में पहुँचाना चाहती है। अगर समझ के पहुँचते हो तो आराम से तुम्हें खेलते-कूदते ले जाने के लिए वह प्रकृति देवी तैयार है। नहीं मानते हो, मोह ममता करते हो तो वह चीज छीन के थप्पड़ मार के भी तुमको जगाने के लिए उत्सुक रहती है वह महामाया, क्योंकि वह तो आखिर परमेश्वर की आह्लादिनी शक्ति ! कोई  तुम्हारे शत्रु की तो है नहीं। माया कहो, प्रकृति कहो, है तो परमेश्वर की आह्लादिनी शक्ति, है तो उसी का अभिन्न अंग ! जैसे जल की चाहे कैसी भी तरंगें हो सागर में, है तो जल का ही विवर्त। परिणाम नहीं विवर्त, परिणाम तो बदल जाता है, विवर्त नहीं बदलता। जैसे दही दूध का परिणाम है, ऐसे ही भगवान का परिणाम जगत नहीं है। भगवान का विवर्त है जगत। वस्तु में अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह विवर्त है। सीपी में रूपा दिखना रस्सी में साँप दिखना विवर्त है।

ताना बुनते हैं न सूत का, तो कपड़े के एक छेड़े से दूसरे छेड़े तक अनेक आड़े-सीधे, गोलाकार, चौरसाकार या लम्बचौरस, जो भी तानाबुनी है सब सूत ही सूत होता है। ऐसे ही जगत में जो भी कुछ तानाबुनी है, सब ब्रह्म ही ब्रह्म की है। फिर मृत्यु कहाँ है ? जन्म भी कहाँ है ? अपना कहाँ ? पराया कहाँ ?

एक जगह महात्मा गाँधी का सूत के कपड़े में सूत का बना हुआ चित्र देखा गया। अब महात्मा गाँधी की वह चप्पल भी सूत है तो हाथ में डंडा भी सूत है और आँख पर चश्मा भी सूत है, जो धोती पहनी है वह भी सूत है और जो हड्डियाँ दिख रही हैं वे भी सूत ही सूत हैं। ऐसे ही सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।

खाँड का खिलौना राजा बना है और महाराजा ! ताज पहना है, रथ पर बैठा है। वाइसराय बना है, ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा है, टोपा पहना है। अब महाराज ! टिकट चेकर भी बना है खाँड का। उस वाइसराय को थप्पड़ मारकर टोपा तोड़ दो और मुँह में डालो तो स्वाद खाँड का आयेगा और टिकट चेकर का टिकट माँगने का हाथ उठा के मुँह में डालो तो स्वाद खाँड का ही आयेगा। उन खिलौनों में से घोड़ा, गधा, कुत्ता, बिल्ला, ऊँट, हाथी, साहब-साहिबा…. कोई भी मुँह में डालो तो स्वाद खाँड का आयेगा। ऐसे ही ब्रह्मज्ञान की दृष्टि बना लो, फिर जहाँ भी दृष्टि जायेगी परमेश्वर का ही ब्रह्मानंद आयेगा। जिसको एक जगह अपना प्रियतम, प्रिय मिलता है तो कितना आनंदित होता है ! कभी-कभी अपना प्रिय मिलता है, अपनी प्रिय वस्तु मिलती है, प्रिय व्यक्ति मिलता है, प्रिय जगह मिलती है तो कितना सुखद लगता है ! ज्ञानी को तो सब जगह अपना परम प्रिय मिलता रहता है, इसलिए वे परमानंद में मस्त रहते हैं। ज्ञान से तो आपको सदा सर्वत्र प्रिय-ही-प्रिय मिलेगा, जबकि वस्तुओं में तो कभी प्रिय वस्तु मिली तो भी छूट जायेगी। प्रिय वस्तु भोगते-भोगते शरीर दुर्बल हो जायेगा, निराशा आ जायेगी लेकिन ज्ञान की दृष्टि जगी, प्रेम की सरिता बही तो आपको सर्वत्र अपना प्यारा ही प्यारा दिखेगा।

एक आदमी जो अपने-आपको विषय विकार विलास में, सम्पूर्ण शरीर के सुखों में खर्च रहा है वह भी गलत जगह पर है, गलत जगह पर उसके पैर पड़े हैं। भविष्य उसका दुःखद और अँधकारमय होगा। दूसरा आदमी वह है जो सब कुछ छोड़कर निर्जन जंगल में रहता है। अपने शरीर को सुखाता है, मन को तपाता है, ‘संसार खराब है, यह मायाजाल है…. यह ऐसा है, यह वैसा है…. इससे बचो’ – ऐसा करके जो बिल्कुल त्याग करता है, ज्ञानसहित नहीं लेकिन एक धारा में बहते हुए त्याग करता है, वह भी कहीं गलत रास्ते की यात्रा करता है। बुद्धिमान तो वह है जो सबमें सब होकर बैठा है उस सर्वाधिष्ठान पर दृष्टि डाले। मोह-ममता का त्याग, संकीर्णता का त्याग, अहंकार का त्याग, उद्वेग-आवेश का त्याग… और वह त्याग तब सिद्ध होगा जब ज्ञान की दृष्टि से देखोगे, संकीर्णता मिटेगी। परमात्मा की दृष्टि से देखोगे तो मोह-ममता मिटेगी और सर्वेश्वर के ज्ञान से पल्लवित, पावन होकर तुम्हारा हृदय और मस्तिष्क जब तालबद्ध होंगे, तब तुम सब कुछ देते, लेते, खाते महात्यागी और महाभोगी, महान एकांती और महान-महान प्रवृत्ति करने वाले – दोनों की अनुभूतियाँ एक साथ करोगे।

त्यागी एक अलग छोर पर है, भोगी दूसरे छोर पर है लेकिन बुद्धिमान, ज्ञानवान, सत्शिष्य और साधक त्याग और भोग दोनों को साधन बनाकर जिससे त्याग और भोग दिखते हैं उस परम पद में जग जाते हैं। त्याग भोग जाके नहीं, सो विद्वान अरोग। भोग का रोग भी नहीं और त्याग का आवेश भी नहीं, ऐसे जो ज्ञानी हैं वे विद्वान निरोग होते हैं। ‘मैं त्यागी हूँ’ – ऐसा भाव भी जिनको नहीं है, ‘मैं भोगी हूँ’ – ऐसा भाव भी जिनको नहीं है, जो भोग और त्याग दोनों को इन्द्रियों का खिलवाड़ समझते हैं, मन का फुरना समझते हैं और सर्वत्र व्याप्त अपने सर्वेश्वर की सत्ता को अपने से अभिन्न मानते हैं, ऐसे धीर ज्ञानी के जो सत्शिष्य होते हैं, वे हर हाल में हर स्थिति में सुखद अनुभव, सुखद दृष्टि पा लेते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 212

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