पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से
पूज्य बापू जी के आत्मसाक्षात्कार-दिवस 9 अक्टूबर पर विशेष
आज के दिन जितना हो सके आप लोग मौन का सहारा लेना। यदि बोलना ही पड़े तो बहुत धीरे बोलना और बार-बार अपने मन को समझाना कि ‘तेरा आसोज सुद दो दिवस कब होगा ? ऐसे दिन कब आयेंगे जिस क्षण तू परमात्मा में खो जायेगा ? ऐसी घड़ियाँ कब आयेंगी जब सर्वव्यापक, सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप हो जायेंगे ? ऐसी घड़ियाँ कब आयेंगी जब निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त हो जायेंगे ? योगी दिव्य शरीर पाने के लिए योग करते हैं, धारणा करते हैं लेकिन वह दिव्य शरीर भी प्रकृति का होता है और अंत में नाश हो जाता है। मुझे न दिव्य भोग भोगने हैं, न लोक-लोकान्तर में विचरण करना है, न दिव्य देव-देह पाकर विलास करना है। मैं तो सत्, चित्, आनंदस्वरूप हूँ, मेरा मुझको नमस्कार है। ऐसा मुझे कब अनुभव होगा ? जो सबके भीतर-बाहर चिदघनस्वरूप है, सबका आधार है, सबका प्यारा है, सबसे न्यारा है, ऐसे उस सच्चिदानन्द परमात्मा में मेरा मन विश्रान्त कब होगा ?’
दीर्घ ॐकार जपते-जपते मन को विश्रान्ति की तरफ ले जाना। ज्यों-ज्यों मन विश्रांति को उपलब्ध होगा, त्यों-त्यों तुम्हारा तो बेड़ा पार हो ही जायेगा साथ ही तुम्हारा दर्शन करने वाले का भी बेड़ा पार हो जायेगा।
योग की पराकाष्ठा दिव्य देह पाना है, भक्ति की पराकाष्ठा भगवान के लोक में जाना है, धर्म-अनुष्ठान की पराकाष्ठा स्वर्ग सुख भोगना है लेकिन साक्षात्कार की पराकाष्ठा अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में फैल रहा जो चैतन्य है, जिसमें कोटि-कोटि ब्रह्मा होकर लीन हो जाते हैं, जिसमें कोटि-कोटि इन्द्र राज्य करके विनष्ट हो जाते हैं, जिसमें अरबों-खरबों राजा उत्पन्न होकर लीन हो जाते हैं उस चैतन्यस्वरूप से साथ अपने-आपका ऐक्य अनुभव करना है। यह साक्षात्कार की कुछ खबरें हैं। साक्षात्कार कैसा होता है उसको वाणी में नहीं लाया जा सकता।
धर्म में, भक्ति में, योग में और साक्षात्कार में क्या अंतर हैं यह समझना चाहिए। योग मन और इन्द्रियों को शुद्ध करने में एवं हर्ष और शोक को दबाने के काम आता है। धर्म अधर्म से बचने के काम आता है। भक्ति भाव को शुद्ध करने के काम आती है। भोग हर्ष पैदा करने के काम आते हैं। लेकिन साक्षात्कार इन सबसे ऊँची चीज है।
आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस।
मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।
देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।
हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।
धर्म से स्वर्ग आदि की उपलब्धि होती है, स्वर्ग में जाना पड़ता है। भक्ति से वैकुंठ अथवा अपने-अपने उपास्य के लोक में सुख लेने के लिए जाना पड़ता है। योग से दिव्य देह पाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। लेकिन साक्षात्कार सारे कर्तव्य छुड़ा देता है।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।
मोह कभी न ठग सके,
इच्छा नहीं लवलेश।।
पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।……
सारे कर्तव्य, भोक्तव्य की प्रीति को पार कर अपने सहज-सुलभ आत्मानंद में मस्त हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 2, अंक 213
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