(पूज्य बापू जी की बोधमयी अमृतवाणी)
लोग बोलते हैं हम दुःखी हैं, दुःखी हैं, दुःखी हैं लेकिन वेदान्त कहता है दुःख का वजन कितना है ? 50 ग्राम, 100 ग्राम, 200 ग्राम, किलो, आधा किलो ? दुःख का कोई वजन देखा ? नहीं दुःख का रंग क्या है ? कोई भी रंग नहीं। दुःख का रूप क्या है ? रूप भी कोई नहीं। दुःख की ताकत कितनी है ? उसकी अपनी ताकत भी कुछ नहीं। दुःख ईश्वर के पास भी नहीं है, दुःख हम चाहते भी नहीं है फिर भी हम दुःखी हैं। दुःख ईश्वर ने बनाया नहीं, दुःख प्रकृति ने बनाया नहीं। माँ बच्चे के लिए दुःख बनाती है क्या ? फिर बच्चे दुःखी क्यों होते हैं ? नासमझी से। स्कूल जाने में फायदा है लेकिन माँ वहाँ ले जाती है तो दुःखी होते हैं, क्यों ? बेवकूफी से। स्नान करने से उनका मैल कटता है लेकिन ॐऽऽऽ करते हैं। दुःखी होते हैं। तो नासमझी के सिवाय दुःख का न रंग है, न रूप है, न वजन है।
दो प्रकार की दुनिया होती है। एक होती है – ईश्वर की दुनिया, उसमें दुःख नहीं है। दूसरी दुनिया हम बेवकूफी से बनाते हैं। जैसे हीरा-मोती, माणिक – ये ईश्वर ने बनाये लेकिन ये हीरे, मोती, माणिक इसके पास हैं, मेरे पास नहीं हैं….’ यह सोचकर दूसरा दुःखी हो रहा है। किन्तु जिसके पास हैं वह भी तो छोड़कर मरेगा। मेरे पास होंगे को तू भी छोड़कर मरेगा। अभी तू अंतरात्मा, परमात्मा को धन्यवाद दे कि खाने को है, रहने को है, ये पत्थर नहीं है तो क्या है, होंगे तो क्या है ! उसके पास है तो उसे अहंकार हो रहा है कि ‘मेरे पास हीरे हैं, मोती हैं, माणिक हैं।’ वह अहंकार से फँस रहा है और तू बेवकूफी से फँस रहा है। ईश्वर की सृष्टि में न हीरे दुःख देते हैं, न सुख देते हैं। ईश्वर तो कई रूप, कई रंग, कई प्रसंग पैदा करके तुम्हें आह्लादित करते हैं, आनंदित करते हैं, तुम्हारा ज्ञान बढ़ाते हैं, तुम्हारी प्रीति बढ़ाते हैं, तुम्हारी भक्ति बढ़ाते हैं। तुम जन्म लेकर माँ की गोद में आये तो तुम्हारे लिए दूध माँ ने नहीं बनाया, बाप ने नहीं बनाया, बाप-के-बाप ने भी नहीं बनाया। माँ तो रोटी-सब्जी खाती है लेकिन तुम्हारे आने से पहले ही भगवदसत्ता ने शरीर में दूध बना दिया। जब चाहिए, जितना चाहिए, सकुर, सकुर, सकुर पिया, फिर मुँह घुमा दिया। वह जूठा नहीं माना जाता, गर्म नहीं करना पड़ता, फ्रिज में नहीं रखना पड़ता। यह किसने बनाया ? परम दयालु की सत्ता ने ही तो बनाया। न ज्यादा ठंडा न ज्यादा गर्म, न ज्यादा मीठा न ज्यादा फीका, यह इतना बढ़िया, अनुकूल दूध किसी जड़ मशीन ने बनाया कि चेतन परमात्मा की सत्ता से बना ? बोलो ! किसी दुश्मन ने बनाया कि परम हितैषी ईश्वर ने बनाया, समझदारी से बनाया, करूणा से बनाया। भगवान कभी-कभी अनुकूलता देते हैं तो हमें उत्साहित करते हैं और कभी प्रतिकूलता देते हैं तो हमें सावधान करते हैं और कि हेकड़ी न लाओ। कभी बीमारी देते हैं कि बदपरहेजी न करो और कभी तंदरुस्ती देते हैं कि सेवा करो, भजन करो, मुझे पहचानो। तो बताओ भगवान दुःख देते हैं कि उन्नति देते हैं ! भगवान हमारे हितैषी हैं कि हमारे दुश्मन हैं ? हितैषी हैं। जब भगवान हमारी उन्नति चाहते हैं, हमारे हितैषी हैं, हम भी उन्नति चाहते हैं, अपना हित चाहते हैं फिर भी दुःख है तो क्यों है ? क्योंकि हम भगवान की हाँ-में-हाँ नहीं करते। हम अपनी बेवकूफी से भगवान को अपने ढंग से चलाना चाहते हैं – ऐसा कर दे, ऐसा कर दे, ऐसा हो जाये, ऐसा हो जाये…. सिनेमा में अच्छा महल, माड़ियाँ, बगीचे दिखते हैं। अब देखने वाला बोलेः “बस यही दिखेंगे, डाकू भी दिखेंगे, लवर-लवरियाँ भी दिखेंगे। ये सारे सिनेमा के बदलते हुए दृश्य हैं। अब कोई बोलेः ‘ये नहीं आयें, ऐसा ही हो, यह रूका रहे।’ तो तुम्हारे कहने से रूकेगा नहीं, थमेगा नहीं और चाहो कि चला जाय तो जायेगा नहीं। यह तो फिल्म है तुम्हें आह्लादित करने के लिए आनंदित करने के लिए, सुझबूझ बढ़ाने के लिए।
तो भगवान ने तो शास्त्र बनाये। ज्ञान का, भक्ति का, सत्कर्म का मार्ग बनाया। गुरुमंत्र पाने का सौभाग्य उपलब्ध किया। भगवान तो हमारा हित चाहते हैं। अब हम फिलम देखें, कूड़ कपट करें, शराब पियें, जुआ खेलें, दूसरे की निंदा करें तो हम ही तो दुःख बनाते हैं न !
तो दुःख का कोई रूप नहीं, दुःख का कोई रंग नहीं, दुःख का कोई वजन नहीं । बेवकूफी का नाम है दुःख। नासमझी का नाम है दुःख। दुराग्रह का नाम है दुःख।
कोई मरता है तो उसका दुःख नहीं लेकिन यदि उसके साथ ‘यह मेरा है’ की मान्यता है तो दुःख होता है। कोई जन्मता है तो उसका सुख नहीं किंतु ‘यह मेरे घर जन्मा है’। – यह मान्यता जुड़ी है तो सुख होता है तो हम शरीर को ‘मैं’ मानतें और संबंधों को ‘मेरा’ मानते हैं पर मैं जहाँ से स्फुरित होता है उस आत्मा-परमात्मा को मेरा मानें और संसार को सपना माने, यथायोग्य व्यवहार करें तो बहुत खुशी रहती है, आनंद रहता है। ‘ये हीरे मेरे हैं, ये मोती मेरे हैं, यह मकान मेरा है….’ अरे,यह है उसके पहले किसी के पास था, बाद में किसी के पास रहेगा। जिस जमीन को अपनी मानते हो वह पहले किसी की थी और तुम्हारे मरने के बाद या पहले किसी दूसरे की हो जायेगी। तो ‘ये चीजें मेरी हैं।’ नहीं, मेरी मानना ऊपर से, अंदर से समझो कि ‘यह सब सपना है। इसको जानने वाला मेरा प्रभु अपना है। मरने के बाद भी जो साथ नहीं छोड़ता वह प्रभु अपना है।’ इस प्रकार का ज्ञान आने से सदा आनंद है।
तो दुःख भगवान ने नहीं बनाया लाली ! लाले ! दुःख प्रकृति ने नहीं बनाया भैया ! बहन जी ! आसक्ति, अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष इन्हीं से दुःख होता है। अविद्या मिटेगी तत्त्वज्ञान से, राग-द्वेष मिटेगा ईश्वर की उपासना, ध्यान से। बस, हो गयी ईश्वर की प्रीति, परमानंद की प्राप्ति !
दुःख परमात्मा ने नहीं बनाया और दुःख तुम चाहते नहीं ! बेवकूफी का दूसरा नाम है दुःख और बेवकूफी मिटती है सत्संग से, सत्संग से विवेक जगता है।
बिनु सत्संग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
(श्री रामचरित. बा.कां. 2.4)
भगवान की सामान्य कृपा हुई तो मनुष्य जन्म मिला। भगवान की विशेष कृपा हुई तो श्रद्धा हुई और गुरु मिले। भगवान की और विशेष कृपा हुई तो गुरुमंत्र की दीक्षा मिली और भगवान प्यारे लगने लगे। भगवान प्यारे लगने लगे तो देर-सवेर उस दुलारे का ज्ञान भी प्रकट होगा, विवेक भी प्रकट होगा।
एक बार मंदी की लहर चली और एक बड़ा स्कूल बंद हो गया। मास्टर बेरोजगार हो गये और बेचारे रोजी-रोटी के लिए इधर-उधर भटकने लगे। कोई सर्कस में गया। सर्कसवाला उससे बोलाः “मास्टर साहब ! तुमको नौकरी तो मिलेगी पर तुमको शेर बनना पड़ेगा।”
“मैं शेर कैसे बनूँगा ?”
“अरे, डरो मत ! थोड़ा पैरों से और हाथों से चलने का प्रशिक्षण ले लो और शेर का मुँह और शेर की खाल पहना देंगे, फिर ऊपर तार पर चलना।”
“शेर की खाल ही पहननी है ?”
“हाँ।”
“बढ़िया नौकरी मिली। चलो, वहाँ गयी तो यहाँ रोजी चालू हो गयी।”
मास्टर ने प्रशिक्षण ले लिया। सर्कस में नाम हुआ। ‘एक नया शेर आया है, शेर-ए-बबर। शेर-ए-बबर तार पर चलेगा और नीचे रहेंगे गुर्राते हुए शेर…. सर्कस देखकर आप ताज्जुब करेंगे। हैरानी हो जाये हैरानी !’ लोगों ने टिकटें खरीदीं। सर्कस हाउसफुल ! मास्टर साहब शेर की खाल पहन कर चले और म्यूजिक से गुर्राता रहे… वह तो सर्कसवाले कर लेते हैं परंतु मास्टर ने देखा कि नीचे चार शेर गुर्रा रहे हैं। मास्टर जी घबराये, बैलेंस छूटा, धड़ाक-धूम ! वे जाली पर गिरे। अब देखा कि कहीं ये शेर खा न जायें ! तब वे जो चार शेर खड़े थे, बोलेः “पागल ! हम भी उसी स्कूल के बेरोजगार लोग हैं, तू डरता काहे को है ? हमारा भी तेरे जैसा मेकअप है।”
ऐसे ही संसार में कोई किसी धन से, कोई किसी सत्ता से, कोई और किसी से बड़ा तो दिखता है पर अंदर से बेचार सब वही-के-वही हैं, बिना रस के बेचारे ! जैसे बेरोजगार मास्टर, ऐसे ही भगवान से विमुख संसारी बेचारे किसी-न-किसी पीड़ा में मेकअप करके शेर बन के दिखते हैं लेकिन हैं वही-के-वही। कोई किसी दुःख में, कोई किसी चिंता में, कोई किसी तनाव में, कोई किसी समस्या में उलझा हुआ है।
कुल मिलाकर आपका आत्मा शाश्वत है, नित्य है।
ईश्वर अंस जीव अविनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी।।
(श्री रामचरित. उ.कां. 116.1)
आप सहज में सुखराशि हो लेकिन ये आगुतुक चिंता, विकार, मान्यताएँ आपको दुःखी कर देती हैं। आप दुःख चाहते नहीं, ईश्वर ने दुःख बनाया नहीं, माया ने, प्रकृति ने दुःख बनाया नहीं, दुःख अज्ञानता के कारण है। अपने को दुःखी और पीड़ित मानकर दुःख, पीड़ा को गहरा न उतरने दो। ‘दुःख मन में आता है, पीड़ा शरीर में आती है। मैं उन सबको जानने वाला भगवान का अमृतपुत्र हूँ।’ – ऐसा आत्मविचाररूपी उपाय करके दुःख को, पीड़ा को भगा सकते हो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 213
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