(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)
हमारे देव केवल एक मंदिर में नहीं रह सकते, हालाँकि वे केवल एक मंदिर में ही थे ऐसी बात नहीं थी। हमारी बुद्धि छोटी थी तो हमने उनको मंदिर में मान रखा था। अब तो वे अनंत ब्रह्माण्डों में हैं, ऐसी हमारी मति हो रही है। हमारे देव अभी बड़े नहीं हुए, वे तो बड़े थे परंतु अब हमको उनकी कृपा से देखने की दृष्टि बढ़िया मिली है।
अगर तुम अपने देव को सर्वत्र नहीं देख सकते हो तो कम से कम एक ऐसे पुरुष में उनको देखो, जिनको तुम निर्दोष प्यार कर सकते हो। एक ऐसे चित्त में देखो जिससे तुम्हारी दृष्टि को ठंडक मिलती हो। फिर धीरे-धीरे दूसरे व्यक्ति में भी उन्हें अपने देव को देखो, फिर तीसरे चौथे में देखो। ऐसा करते करते बुद्धि को विशाल करो तो तुम्हारी मर्जी और उन्हीं देव के प्यारों को मिल के, उनके वचनों को पाकर एकदम दृष्टि को खोल दो तो तुम्हारी मर्जी ! पर आना तो यहीं पड़ेगा, अखंड अनुभव में…. वहीं विश्राँति है और वही अपने जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
तुम अपना लक्ष्य उन्नत बना दो तो फिर हजार हजार गल्तियाँ हो जायें, डरो नहीं। फिर से कोशिश करोक, एक बार फिर से कदम रखो। जिसका लक्ष्य पवित्र नहीं, उन्नत नहीं, सर्वव्यापक सर्वेश्वर के साक्षात्कार का नहीं है, वह लक्ष्यहीन, आदमी हजारों गलतियाँ करेगा और लक्ष्यवाला आदमी पचासों गलतियाँ कर लेगा किंतु पचासों गलतियाँ करता है तब भी लक्ष्य जिसका उन्नत है, वह जीत जाता है। जिसका लक्ष्य उन्नत नहीं है वह सैंकड़ों गलतियों में रूकेगा नहीं, हजारों में नहीं रूकेगा, लाखों में नहीं रूकेगा, करोड़ों गलतियाँ करोड़ों जन्मों तक करता ही रहेगा क्योंकि उसके जीवन में सर्वेश्वर, सर्व में व्यापक एक परमात्मा है – ऐसा लक्ष्य नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष का लक्ष्य नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष का लक्ष्य नहीं है, उसके जीवन में सुख-दुःख से पार होने का लक्ष्य नहीं है। वह सदा सुखी-दुःखी होता रहेगा और जो सुखी-दुःखी होता है वह गलतियाँ करता ही है। इसीलिए हजारों-हजारों जन्म बीत गये, हजारों हजारों हजारों युग बीत गये, काम पूरा नहीं हुआ क्योंकि लक्ष्य नहीं बना। इसलिए हे मेरे प्यारे साधक ! तू अपने जीवन का लक्ष्य बना ले। सर्वत्र सर्वेश्वर को देख, आप सहित परमेश्वर को देख।
सो प्रभ दूर नहीं, प्रभ तू है।
घर ही महि अंमृतु भरपूरू है,
मनमुखा सादु न पाईआ। (सादु- स्वाद)
जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं भोरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ।।
खोज अपने आप में – जो विचार उठता है वह कहाँ से उठा ? जो इच्छाएँ और चिंताएँ उठती हैं, कहाँ से उठीं, क्यों उठीं ? खोज ! खोज !! और तू पहुँच जायेगा अपने परम लक्ष्य में। फिसल जाय तो डर मत, फिर से चल। रूक जाय कहीं, कोई थाम ले तुझे तो सदा के लिए चिपक मत, फिर चल। चल, चल और चल… अवश्य पहुँचेगा। और चलना पैरों से नहीं है, केवल विचारों और अपने सत्कृत्यों से चलना है। चलना क्या है ? तन और मन की भागदौड़ मिटाकर अपने अचल आत्मा में विश्रान्ति पाना ही सचमुच में चलना है। सर्वेश्वर कहीं दूर नहीं है कि चलो, यात्रा करो और चलते चलते पहुँचो। क्या कलकत्ते (कोलकाता) में बैठा है, दिल्ली या वैकुण्ठ में बैठा है ? जिस सत्ता से तुम चल रहे हो न, वह सत्ता भी उसी की है और जहाँ से उसको खोजने की शुरूआत करते हो, वहीं वह बैठा है। फिर भी खोजो। उसी के भाव से खोजते-खोजते घूमघाम के वहीं विश्रान्ति मिलेगी जहाँ से खोजना शुरू हुआ है, किंतु बिना खोजे विश्रान्ति नहीं मिलती। बिना खोजे अगर बैठ गये तो आलस्य, प्रमाद और मौत मिलती है। खोजते-खोजते आप नाक की सिधाई में सीधे चलते जाओ, चलते चलते पूरी पृथ्वी की यात्रा करके वहीं पहुँचोगे जहाँ से चले थे।
ॐ….. ॐ…. ॐ…..ॐ….. मधुर-मधुर आनंद-ही-आनंद ! शांति ही शांति ! तू ही तू, तू ही तू, अथवा तो मैं ही मैं ! वह गैर, वह गैर… नहीं, सब तू ही तू अथवा सबमें मैं ही मैं। तुम अनन्त से जुड़े हो। वास्तव में तुम अनंत हो। अनंत श्वासराशि से तुम्हारा श्वास जुड़ा है। अनंत आकाश से तुम्हारा हृदयाकाश और शरीर का आकाश जुड़ा है। तुम्हारा शरीर अनन्त जलराशि से जुड़ा है, अनंत तेजराशि से जुड़ा है, अनन्त पृथ्वी तत्त्व से जुड़ा है। ये पंचभूत भी अनंत महाभूतों से जुड़े हैं। इन पंचभूतों को चलाने वाला तुम्हारा चिदाकाश तो अपने ब्रह्मानंदस्वरूप से, तुम्हारा आत्मा तो अपने परमात्मा से सदैव जुड़ा है। जुड़ा है, यह कहना भी छोटी बात है। हकीकत में तुम्हारा आत्मा ही परमात्मा है। जैसे तरंग पानी स्वरूप है, घटाकाश महाकाशस्वरूप है, ऐसे ही जीव ब्रह्मस्वरूप है, खामखाह परेशान हो रहा है।
तुम अपने परमेश्वर-स्वभाव का सुमिरन करो और जग जाओ… युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण के प्रसाद से अर्जुन ने सुमिरन कर लिया और अर्जुन कहता हैः नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा….. तो यहाँ साबरमती के तट पर तुम भी सुन लो, नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा… कर लो। क्यों कंजूसी करते हो ! क्यों देर करना ! यह तो जेटयुग है मेरे लाला ! मेरी लालियाँ ! ॐ….ॐ…..ॐ….
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 214
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