Monthly Archives: October 2010

सर्वाधिक अमृतवर्षा की रात्रिः शरद पूर्णिमा


(शरद पूर्णिमाः 22 अक्तूबर 2010)

(पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत से)

कामदेव ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि “हे वासुदेव ! मैं बड़े-बड़े ऋषियों, मुनियों तपस्वियों और ब्रह्मचारियों को हरा चुका हूँ। मैंने ब्रह्माजी को भी आकर्षित कर दिया। शिवजी की भी समाधि विक्षिप्त कर दी। भगवान नारायण ! अब आपकी बारी है। आपके साथ भी मुझे खिलवाड़ करना है तो हो जाय दो-दो हाथ ?”

भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः “अच्छा बेटे ! मुझ पर तू अपनी शक्ति का जोर देखना चाहता है ! मेरे साथ युद्ध करना चाहता है ! तो बता, मेरे साथ तू एकांत में आयेगा कि मैदान में आयेगा ?”

एकांत में काम की दाल नहीं गली तो भगवान ने कहाः “कोई बात नहीं। अब बता, तुझे किले में युद्ध करना है कि मैदान में ? अर्थात् मैं अपनी घर-गृहस्थी में रहूँ, तब तुझे युद्ध करना है कि जब मैं मैदान में होऊँ तब युद्ध करना है ?”

बोलेः महाराज ! जब युद्ध होता है तो मैदान में होता है। किले में क्या करना !

भगवान बोलेः “ठीक है, मैं तुझे मैदान दूँगा। जब चन्द्रमा पूर्ण कलाओं से विकसित हो, शरद पूनम की रात हो, तब तुझे मौका मिलेगा। मैं ललनाएँ बुला लूँगा।”

शरद पूनम की रात आयी और श्रीकृष्ण ने बजायी बंसी। बंसी में श्रीकृष्ण ने क्लीं बीजमंत्र फूँका। क्लीं बीजमंत्र फूँकने की कला तो भगवान श्रीकृष्ण ही जानते हैं। यह बीजमंत्र बड़ा प्रभावशाली होता है।

श्रीकृष्ण हैं तो सबके सार और अधिष्ठान लेकिन जब कुछ करना होता है न, तो राधा जी का सहारा ढूँढते हैं। राधा भगवान की आह्लादिनी शक्ति माया है।

भगवान बोलेः “राधे देवी ! तू आगे-आगे चल। कहीं तुझे ऐसा न लगे कि ये गोपिकाओं में उलझ गये, फँस गये। राधे ! तुम भी साथ में रहो। अब युद्ध करना है। काम बेटे को जरा अपनी विजय का अभिमान हो गया है। तो आज उसके साथ दो दो हाथ होने हैं। चल राधे तू भी।”

भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी बजायी, क्लीं बीजमंत्र फूँका। 32 राग, 64 रागिनियाँ… शरद पूनम की रात… मंद-मंद पवन बह रहा है। राधा रानी के साथ हजारों सुंदरियों के बीच भगवान बंसी बजा रहे हैं। कामदेव ने अपने सारे दाँव आजमा लिये। सब विफल हो गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः

“काम ! आखिर तो तू मेरा बेटा ही है !”

वही काम भगवान श्रीकृष्ण का बेटा प्रद्युम्न होकर आया।

कालों के काल, अधिष्ठानों के अधिष्ठान तथा काम-क्रोध, लोभ मोह सबको सत्ता-स्फूर्ति दने वाले और सबसे न्यारे रहने वाले भगवान श्रीकृष्ण को जो अपनी जितनी विशाल समझ और विशाल दृष्टि से देखता है, उतनी ही उसके जीवन में रस पैदा होता है।

मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन के विध्वंसकारी, विकारी हिस्से को शांति, सर्जन और सत्कर्म में बदल के, सत्यस्वरूप का ध्यान् और ज्ञान पाकर परम पद पाने के रास्ते सजग होकर लग जाये तो उसके जीवन में भी भगवान श्रीकृष्ण की नाईं रासलीला होने लगेगी। रासलीला किसको कहते हैं ? नर्तक तो एक हो और नाचने वाली अनेक हों, उसे रासलीला कहते हैं। नर्तक एक परमात्मा है और नाचने वाली वृत्तियाँ बहुत हैं। आपके जीवन में भी रासलीला आ जाय लेकिन श्रीकृष्ण की नाईं नर्तक अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में रहे और नाचने वाली नाचते-नाचते नर्तक में खो जायें और नर्तक को खोजने लग जायें और नर्तक उन्हीं के बीच में, उन्हीं के वेश में छुप जाय-यह बड़ा आध्यात्मिक रहस्य है।

ऐसा नहीं है कि दो हाथ-पैरवाले किसी बालक का नाम कृष्ण है। यहाँ कृष्ण अर्थात् कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आह्लादित कर दे, उस परमेश्वर ब्रह्म का नाम ‘कृष्ण’ है। ऐसा नहीं सोचना कि कोई दो हाथ-पैरवाला नंदबाबा का लाला आयेगा और बंसी बजायेगा तब हमारा कल्याण होगा, ऐसा नहीं है। उसकी तो नित्य बंसी बजती रहती है और नित्य गोपिकाएँ विचरण करती रहती हैं। वही कृष्ण आत्मा है, वृत्तियाँ गोपिकाएँ हैं। वही कृष्ण आत्मा है और जो सुरता है वह राधा है। ‘राधा’….. उलटा दो तो ‘धारा’। उसको संवित्, फुरना और चित्तकला भी बोलते हैं।

काम आता है तो आप काममय हो जाते हो, क्रोध आता है तो क्रोधमय हो जाते हो, चिंता आती है तो चिंतामय हो जाते हो, खिन्नता आती है तो खिन्नतामय हो जाते हो। नहीं,नहीं। आप चित्त को भगवदमय बनाने में कुशल हो जाइये। जब भी चिंता आये तुरंत भगवदमय। जब भी काम, क्रोध आये तुरंत भगवदमय। यही तो पुरुषार्थ है। पानी का रंग कैसा ? जैसा मिलाओ वैसा। चित्त जिसका चिंतन करता है, जैसा चिंतन करता है, चिदघन चैतन्य की वह लीला वैसा ही प्रतीत कराती है। दुश्मन की दुआ से डर लगता है और सज्जन की गालियाँ भी मीठी लगती हैं। चित्त का ही तो खेल है ! भगवदभाव से प्रतिकूलताएँ भी दुःख नहीं देतीं और विकारी दृष्टि से अनुकूलता भी तबाह कर देती है। विकारी दृष्टि विकार और विषाद में गिरा देती है।

शरद पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है। इस रात को चन्द्रमा की किरणों से अमृत-तत्त्व बरसता है। चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषकशक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है।

आज की रात्रि चन्द्रमा पृथ्वी के बहुत नजदीक होता है और उसकी उज्जवल किरणें पेय एवं खाद्य पदार्थों में पड़ती हैं तो उसे खाने वाला व्यक्ति वर्ष भर निरोग रहता है। उसका शरीर पुष्ट होता है। भगवान ने भी कहा हैः

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।

‘रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ।’

गीताः15.13

आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो चन्द्र का मतलब है शीतलता। बाहर कितने भी परेशान करने वाले प्रसंग आयें लेकिन आपके दिल में कोई फरियाद न उठे। आप भीतर से ऐसे पुष्ट हों कि बाहर की छोटी मोटी मुसीबतें आपको परेशान न कर सकें।

शरद पूर्णिमा की शीतल रात्रि में (9 से 12 बजे के बीच) छत पर चन्द्रमा की किरणों में महीन कपड़े से ढँककर रखी हुई दूध-पोहे अथवा दूध-चावल की खीर अवश्य खानी चाहिए। देर रात होने के कारण कम खायें, भरपेट न खायें, सावधानी बरतें। रात को फ्रिज में रखें या ठंडे पानी में ढँक के रखें। सुबह गर्म करके उपयोग कर सकते हैं। ढाई तीन घंटे चन्द्रमा की किरणों से पुष्ट यह खीर पित्तशामक, शीतल, सात्त्विक होने के साथ वर्ष भर प्रसन्नता और आरोग्यता में सहायक सिद्ध होती है। इससे चित्त को शांति मिलती है और साथ ही पित्तजनित समस्त रोगों का प्रकोप भी शांत होता है।

इस रात को हजार काम छोड़कर 15 मिनट चन्द्रमा को एकटक निहारना। एक आध मिनट आँखें पटपटाना। कम से कम 15 मिनट चन्द्रमा की किरणों का फायदा लेना, ज्यादा करो तो हरकत नहीं। इससे 32 प्रकार की पित्त संबंधी बीमारियों में लाभ होगा, शांति होगी। और फिर ऐसा आसन बिछाना जो विद्युत का कुचालक हो, चाहे छत पर चाहे मैदान में। चन्द्रमा की तरफ देखते-देखते अगर मौज पड़े तो आप लेट भी हो सकते हैं। श्वासोच्छवास के साथ भगवन्नाम और शांति को भरते जायें, निःसंकल्प नारायण में विश्रान्ति पायें। ऐसा करते-करते आप विश्रान्ति योग में चले जाना। विश्रांति योग… भगवदयोग…. अंतरंग जप करते हुए अपने चित्त को शांत, मधुमय, आनंदमय, सुखमय बनाते जाना। हृदय से जपना प्रीतिपूर्वक। आपको बहुत लाभ होगा। कितना लाभ होगा, यह माप सकें ऐसा कोई तराजू नहीं है। वह तराजू आज तक बनी नहीं। ब्रह्माजी भी बनायें तो वह तराजू टूट जायेगा।

जिनको नेत्रज्योति बढ़ानी हो वे शरद पूनम की रात को सुई में धागा पिरोने की कोशिश करें। जिनको दमे की बीमारी हो वे नजदीक के किसी आश्रम या समिति से सम्पर्क के साथ लेना। दमा मिटाने वाली बूटी निःशुल्क मिलती है, उसे खीर में डाल देना। जिसको दमा है वह बूटी वाली खीर खाये और घूमे, सोये नहीं, इससे दमे में आराम होता है। दूसरा भी दमा मिटाने का प्रयोग है। अंग्रजी दवाओं से दमा नहीं मिटता लेकिन त्रिफला रसायन 10-10 ग्राम सुबह शाम खाने से एक महीने में दमे का दम निकल जाता है।

इस रात्रि में ध्यान-भजन, सत्संग, कीर्तन, चन्द्रदर्शन आदि शारीरिक व मानसिक आरोग्यता के लिए अत्यन्त लाभदायक है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 27,28,29 अंक 214

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नूतन वर्ष पर पुण्यमय दर्शन


(नूतन वर्षः 7 नवम्बर  2010)

पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

दीपावली का दिन वर्ष का आखिरी दिन है और बाद का दिन वर्ष का प्रथम दिन है, विक्रम सम्वत् के आरम्भ का दिन है (गुजराती पंचांग अनुसार)। उस दिन जो प्रसन्न रहता है, वर्ष भर उसका प्रसन्नता से जाता है।

‘महाभारत’ भगवान व्यास जी कहते हैं।

यो यादृशेन भावेन तिष्ठत्यस्यां युधिष्ठिर।

हर्षदैन्यादिरूपेण तस्य वर्षं प्रयाति वै।।

‘हे युधिष्ठिर ! आज नूतन वर्ष के प्रथम दिन जो मनुष्य हर्ष में रहता है, उसका पूरा वर्ष हर्ष में जाता है और जो शोक में रहता है, उसका पूरा वर्ष शोक में व्यतीत होता है।’

दीपावली के दिन, नूतन वर्ष के दिन मंगलमय चीजों का दर्शन करना भी शुभ माना गया है, पुण्य प्रदायक माना गया है। जैसेः

उत्तम ब्राह्मण, तीर्थ, वैष्णव, देव-प्रतिमा, सूर्यदेव, सती स्त्री, संन्यासी, यति ब्रह्मचारी, गौ, अग्नि, गुरु, गजराज, सिंह, श्वेत अश्व, शुक, कोकिल, खंजरीट (खंजन), हंस, मोर, नीलकंठ, शंख पक्षी, बछड़े सहित गाय, पीपल वृक्ष, पति-पुत्रवाली नारी, तीर्थयात्री, दीपक, सुवर्ण, मणि, मोती, हीरा, माणिक्य, तुलसी, श्वेत पुष्प, फल, श्वेत धान्य, घी, दही, शहद, भरा हुआ घड़ा, लावा, दर्पण, जल, श्वेत पुष्पों की माला, गोरोचन, कपूर, चाँदी, तालाब, फूलों से भरी हुई वाटिका, शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा, चंदन, कस्तूरी, कुंकुम, पताका, अक्षयवट (प्रयाग तथा गया स्थित वटवृक्ष), देववृक्ष (गूगल), देवालय, देवसंबंधी जलाशय, देवता के आश्रित भक्त, देववट, सुगंधित वायु, शंख, दुंदुभि, सीपी, मूँगा, स्फटिक, मणि, कुश की जड़, गंगाजी की मिट्टी, कुश, ताँबा, पुराण की पुस्तक, शुद्ध और बीजमंत्रसहित भगवान विष्णु का यंत्र, चिकनी दूब, रत्न, तपस्वी, सिद्ध मंत्र, समुद्र, कृष्णसार (काला) मृग, यज्ञ, महान उत्सव, गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोधूलि, गौशाला, गोखुर, पकी हुई खेती से भरा खेत, सुंदर (सदाचारी) पद्मिनी, सुंदर वेष, वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से विभूषित सौभाग्यवती स्त्री, क्षेमकरी, गंध, दूर्वा, चावल और अक्षत (अखंड चावल), सिद्धान्न (पकाया हुआ अन्न) और उत्तम अन्न-इन सबके दर्शन से पुण्यलाभ होता है।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्णजन्म खंड, अध्यायः 76 एवं 78)

लेकिन जिनके हृदय में परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे साक्षात् कोई लीलाशाहजी बापू जैसे, नरसिंह मेहता जैसे संत अगर मिल जायें तो समझ लेना चाहिए कि भगवान की हम पर अति-अति विशेष, महाविशेष कृपा है।

कबिरा दर्शन संत के साहिब आवे याद।

लेखे में वो ही घड़ी बाकी के दिन बाद।।

जिनको देखकर परमात्मदेव की याद आ जाय, ऐसे हयात महापुरुष अगर मिल जायें तो वह परम लाभकारी, परम कल्याणकारी माना जाता है। चेतन परमात्मा जिनके हृदय में प्रकट हुआ है, ऐसे संत का, सदगुरु का दर्शन जिनको मिल जाता है, उनको तो शिवजी के ये वचन याद करने चाहिएः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोदभवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

हे पार्वती ! उनकी माता धन्य है, उनके पिता धन्य हैं, उनका कुल और गोत्र धन्य है, कुलोदभवः अर्थात् जो उनके कुल में उत्पन्न होंगे वे भी धन्य हैं, क्योंकि आत्मसाक्षात्कारी-ब्रह्मवेत्ता संतों का दर्शन, उनके वचन और भगवन्नाम के उच्चारण का लाभ उन्हें मिलता है, जिससे अंतःकरण की प्रसन्नता स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने लगती है।

भगवान श्री कृष्ण ने कहाः

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

‘अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और इस प्रसन्न चित्तवाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।’ गीताः2.65

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 214

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नूरे – इलाही, शाहों के शाह


न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः।

न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

‘आत्मवेत्ता गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं है, गुरु से अधिक कोई तप नहीं है और गुरु से विशेष कोई ज्ञान नहीं है। ऐसे श्री गुरुदेव को मेरा नमस्कार है।’

गुरुतत्त्व में जगे हुए महापुरुष परमात्मा का प्रकट रूप होते हैं। अंतर्यामी परमात्मा के अंतर्यामित्व का दर्शन करना हो तो ऐसे महापुरुषों के जीवन में ही उसे देख सकते हैं। एक तेजस्वी महापुरुष किसी जंगल में एकांतवास के लिए ठहरे हुए थे। तब एक मुसलमान माली उन्हें रोज देखता था। उनके असाधारण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर माली के मन में होता कि ‘इन साधु को कुछ खिलाऊँ।’ परंतु मन ही मन शंका होती कि क्या पता, ये हिन्दू साधु मुसलमान के हाथ का कुछ खायेंगे कि नहीं !’ इस प्रकार कितने ही दिन बीत गये।

एक दिन वह मूली धो रहा था। इतने में तो वे साधु उसके आगे आकर खड़े हो गये और बोलेः “जो खिलाना हो, खिला। रोज-रोज सोचता रहता है तो आज अपनी इच्छा पूरी कर।”

वह मुसलमान माली तो आश्चर्यचकित हो उठा कि ‘इन साधु को मेरे मन की बात का पता कैसे चला !’ वह तो उन महापुरुष के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर कहने लगाः “सचमुच, आप नूरे इलाही हो ! आप शाहों के शाह हो ! मुझे दुआ करो।” ऐसा कहकर उसने बड़ी श्रद्धा और भावपूर्ण हृदय से दो मूली साफ करके, धोकर महाराज को दीं। संत श्री ने भी बड़े प्रेम से उन मूलियों को खाया। वह दृश्य देखने वालों को तो भगवान श्रीरामजी और शबरी भीलन के बेरों की याद आ गयी।

जानते हैं, वे अंतर्यामी, आत्मारामी स्वामी कौन थे ? वे थे भक्तवत्सल योगिराज स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज !

(भगवत्पाद स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज महानिर्वाण तिथिः 15 नवम्बर)

यदि वह संकल्प चलाये….

संसार-ताप से तप्त जीवों में शांति का संचार करने वाले, अनादिकाल से अज्ञान के गहन अन्धकार में भटकते हुए जीवों को ज्ञान का प्रकाश देकर सही दिशा बताने वाले, परमात्म-प्राप्तिरूपी मंजिल को तय करने के लिये समय-समय पर योग्य मार्गदर्शन देते हुए परम लक्ष्य तक ले जाने वाले सर्वहित चिंतक ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की महिमा अवर्णनीय है।

वे महापुरुष केवल दिशा ही नहीं बताते वरन् चलने के लिए पगडंडी भी बना देते हैं, चलना भी सिखाते हैं, उंगली भी पकड़ाते हैं। जैसे माता पिता अपने बालक को कंधे पर उठाकर यात्रा पूरी करवाते हैं, वैसे ही वे कृपालु महापुरुष हमारी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण कर देते हैं। भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज के जीवन की एक कृपापूर्ण घटना इस प्रकार हैः

स्वामी लीलाशाहजी ने स्वामी राम अवतार शुक्ला के गीता-व्याख्यान की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। अतः एक दिन वे उनसे मिलने उनके घर चल दिये। स्वामी राम अवतार जी की आयु 75 वर्ष के आसपास थी और उस दिन वे इस दुनिया से विदा लेने की तैयारी में थे। कुछ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था तो कुछ उस समय वहाँ मौजूद थे। स्वामी जी उनके सम्मुख खड़े होकर कहने लगेः “राम अवतारजी ! मैं इस विचार से आया हूँ कि आपके मुखारविंद से श्रीमद् भगवदगीता सुनूँ।”

उनकी नाजुक हालत देखकर स्वामी जी ने उनके परिवारवालों से कहाः “इन्हें एक गिलास पानी में नींबू का रस व शहद मिलाकर पिलाओ, ठीक हो जायेंगे।”

वहाँ पर खड़े डॉक्टरों ने कहाः “इनका अंतिम समय आ चुका है, नींबू शहद का पानी पीने से तो ये और जल्दी दुनिया से चले जायेंगे।”

राम अवतार जी ने धीरे से कहाः

“ठीक है, पिलाओ।”

लीलाशाहजी महाराज ने कमण्डलु से थोड़ा जल हाथ में लिया, उसमें निराहार संकल्प करके दे दिया। पानी में नींबू-शहद मिलाकर पिलाया गया। स्वामी जी ने चलते चलते राम अवतार जी से कहाः “परसों सुबह मेरे पास आना।” और आश्चर्य ! वे कुछ ही घंटों में एकदम ठीक हो गये।

संत जब अपने ब्रह्मस्वभाव में स्थित होकर कुछ कह दें तो वह बाह्यदृष्टि से विपरीत परिणामवाला होने पर भी श्रद्धावान के लिए अनुकूल हो जाता है। आज्ञानुसार राम अवतारजी श्रीचरणों में पहुँचे और स्वामी जदी को अष्टांग प्रणाम करके गीता पर व्याख्यान किया। उस दिन से राम अवतार जी प्रतिदिन नियम से पूज्यपाद स्वामी श्रीलीलाशाहजी महाराज को श्रीमद भगवदगीता सुनाने आते थे।

ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करने के बाद संतों को शास्त्र पढ़ने-सुनने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे जो बोलते हैं, वह शास्त्र बन जाता है। फिर भी दूसरों के कल्याण के निमित्त जो घटना घटती ह, वह उनकी लीला होती है। फिर चाहे वह लीला सत्संग सुनने की हो या सुनाने की हो, मौज है उनकी ! माता पिता की तरह कदम-कदम पर हमारी सँभाल रखने वाले, सर्वहितचिंतक, समता के सिंहासन पर बैठाने वाले ऐसे परम दयालु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों को कोटि-कोटि वंदन….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15,17 अंक 214

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