Monthly Archives: October 2010

मधुर चिंतन


(आत्ममाधुर्य से ओतप्रोत बापू जी की अमृतवाणी)

वशीभूत अंतःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित और अपनी वशीभूत इन्द्रियों के द्वारा विषयों मे विचरण करता हुआ भी प्रसन्नता को प्राप्त होता है। वह उनमें लेपायमान नहीं होता, उसका पतन नहीं होता। जिसका चित्त और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वह चुप होकर बैठे तो भी संसार का चिंतन करेगा। ज्ञानी संसार में बैठे हुए भी अपने स्वरूप में डटे रहते हैं।

भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. श्री राधाकृष्णन् अच्छे चिंतक माने जाते हैं। उन्होंने एक कहानी लिखी हैः

एक भट्ठीवाला था। उसको हररोज स्वप्न आता कि मैं चक्रवर्ती सम्राट हूँ। वह अपना काम निपटाकर जल्दी जल्दी सो जाता, उस मधुर स्वप्नलोक में जाने के लिए। बाहर के जगत में तो वह भट्ठीवाला था, उसके पास खाने-पीने को भी पर्याप्त नहीं था। गुजारा चलाने के लिए उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था परंतु धीरे-धीरे वह स्वप्न में सुखी होना लगा तो बाहर के जगत में रूचि कम होने लगी।

प्रतिदिन स्वप्न में देखता कि ‘मैं चक्रवर्ती सम्राट बन गया हूँ। छोटे-छोटे राजा लोग मेरी आज्ञा में चलते हैं। छनन छनन करते हीरे जवाहरात के गहनों से सजी ललनाएँ चँवर झुला रही हैं।

एक दिन स्वप्न में वह पेशाब करने के लिए उठा तो पास में जलती हुई भट्ठी में पैर पड़ गया। जलन के मारे वह चिल्ला उठा। सो तो रहा था भट्ठियों के बीच लेकिन स्वप्न देख रहा था कि सम्राट है, इसलिए वह सुखी था।

किसी भी परिस्थिति में आदमी का मन जैसा होता है, सुख-दुःख उसे वैसे ही प्रतीत होते हैं। ज्ञानी का मन परब्रह्म में होता है तो वे संसार में रहते हुए, सब व्यवहार करते हुए भी परम सुखी हैं, ब्रह्मज्ञान में मस्त हैं।

मनुष्य का शरीर कहाँ है, इसका अधिक मूल्य नहीं है। उसका चित्त कहाँ है, इसका अधिक मूल्य है। चित्त परमात्मा में है और आप संसार में रहते हैं तो आप संसार में नहीं हैं, परमात्मा में हैं। प्रभातकाल में जब उठो तब आँख बंद करके ऐसा चिंतन करो कि ‘मैं गंगा किनारे गया। पवित्र गंगा मैया में गोता लगाया। किसी संत के चरणों में सिर झुकाया। उन्होंने मुझे मीठी निगाहों से निहारा।

पाँच मिनट ऐसा मधुर चिंतन करो। आपका हृदय शुद्ध होने लगेगा, भाव पवित्र होने लगेंगे। सुबह उठकर देखे हुए सिनेमा के दृश्य याद आयें- ‘आहाहा…. वह मेरे पास आयी, मुझसे मिली….’ आदि-आदि तो देखो, सत्यानाश हो जायेगा। कल्पना तो मन से होगी किंतु तन पर भी प्रभाव पड़ जायेगा। कल्पना में कितनी शक्ति है ! संत-महात्मा-सदगुरु परमात्मा के साथ विचरते हैं, समाधि लगाते हैं, उनका स्मरण-चिंतन करते हैं तो हृदय आनंदित होता है।

बुल्ला साहब नाम के एक बड़े प्रसिद्ध संत हो गये। जब वे घर में रहते थे तब उनका नाम था बुलाकीराम। गरीब, अनपढ़ बुलाकीराम उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में जमींदार गुलाल साहब के यहाँ हल चलाने का काम करते थे।

बुलाकी राम ने भगवान को पाने का इरादा बना लिया। जिसे भगवान को पाना हो उसे संतों का दर्शन, सत्संग व उनकी सेवा करनी चाहिए।

बुलाकी राम खेत में हल चलाते-चलाते थोड़ी देर रुकते ताकि बैलों को आराम मिले। एक दिन दोपहर का समय था। वे खेत के किनारे मेंड़ पर बैठे आँखें बंद करके ध्यान कर रहे थे। गुलाल साहब आये तो देखा कि ‘बैल तो ऐसे ही खड़े हैं ! इन हल में जुते बैलों की छुट्टी करके, उन्हें बाँध के बुलाकीराम कहाँ चला गया ?’ जैसे नौकर काम के समय काम न करे, और कहीं बैठा हो तो सेठ को गुस्सा आता है, ऐसे ही गुलाल साहब को गुस्सा आया। वे चिल्लाने लगेः “बुलाकीराम ! बुलाकीराम !! ओ बुलाकी राम !!!…” अब बुलाकीराम तो ध्यानमग्न थे। इधर-उधर देखते-देखते गुलाल साहब जब निकट पहुँचे तो देखा कि बुलाकीराम मेंड़ पर बैठा है और हाथ में लोटा पकड़े हुए हैं। जमींदार को आया गुस्सा कि ‘मैं इतना चिल्लाता हूँ तो भी जवाब नहीं देता है !’ उसने उनकी पीठ पर जोर से एक लात मारी तो लोटा टेढ़ा हो गया, ‘अरे ! मैंने लात मारने से पहले देखा था तो लोटे में पानी था। फिर यह अचानक दही कैसे बन गया !’

बुलाकीराम ने आँखें खोलीं और देखा कि मेंड़ पर दही गिरा हुआ है। जमींदार ने पूछाः

“बुलाकीराम ! यह क्या है ?”

बोलेः “मैं ध्यान-ध्यान में संतों को मानसिक भोजन करा रहा था। दाल बनायी, रोटी सब्जी बनायी फिर सोचा कि गर्मी है तो संतों को दही चाहिए। यह पानी लेकर इस भावना से कि यह दही है, मन नही मन मैं संतों के पास दही परोसने जाना चाहता था। दही परोसना ही चाहता था कि इतने में आपकी लात लगी और दही ढुल गया।”

भगवान का चिंतन करने वाले के मन में यह कैसा सामर्थ्य है कि पानी में से दही बना दे ! लोफर में से भक्त बना दे ! चंचल में से साधक बना दे ! भगवान में मन लगाने वाले के मन में बड़ी अदभुत कला, लीला, योग्यता होती है।

वह जमींदार गुलाल साहब बुलाकीराम के चरणों पर गिर पड़ा और बुलाकीराम का शिष्य बन गया। नौकर बुलाकीराम फिर नौकर नहीं रहे, भगवान की तरफ ऐसे चले की संत बुल्ला साहब हो गये। यह घटित घटना है।

कहाँ तो हल चलानेवाला, रूखी रोटी खाने वाला एक गरीब और भक्तिभाव से भगवान को, संतों को भोग लगात है तो पानी में से दही बन जाता है ! जो भगवान को चाहता है, भगवान उनके अनुकूल हो जाते हैं और उनके पाँच भूत भी उसके अनुकूल हो जाते हैं। हो गये न पाँच भूत अनुकूल ! हुए कि नहीं हुए ? लेकिन हम भगवान से चाहते हैं कि ‘फैशन से, आराम से रहें। यह हो जाये, वह हो जाय…..’ तो वह तो हो जाता है लेकिन फिर वही आदत पड़ जाती है और भगवान छूट जाते हैं। हम भगवान से संसारी चीजें माँगकर संसार के खड्ढे में गिर जाते हं। आप तो प्रभु में रहो और दूसरों को प्रभु में लगाओ। जब एक गरीब इतना महान संत बन सकता है तो तुम नहीं बन सकते क्या ! अवश्य बन सकते हो ! संकल्प में, शुद्ध चिंतन में अमोघ शक्ति है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 214

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लापरवाही नहीं तत्परता !


(पूज्य बापू जी की सत्संग सुधा)

साधक के जीवन में, मनुष्यमात्र के जीवन में अपने लक्ष्य की स्मृति और तत्परता होनी ही चाहिए। संयम और तत्परता सफलता की कुंजी है, लापरवाही और संयम का अनादर विनाश का कारण है। जिस काम को करें, उसे ईश्वर का कार्य मानकर साधना का अंग बना लें। उस काम में से ही ईश्वर की मस्ती का आनंद आने लग जायेगा।

तत्परता व सजगता से काम करने वाला व्यक्ति कभी विफल नहीं होता। आलस्य और प्रमाद मनुष्य की योग्यताओं के शत्रु हैं। लापरवाही सारी योग्यताओं को खा जाती है, इसलिए अपनी योग्यता विकसित करने के लिए भी तत्परता से कार्य करना चाहिए। जिसकी कम समय में सुंदर, सुचारू रूप से व अधिक से अधिक कार्य करने की कला विकसित है, वह आध्यात्मिक जगत में जाता है तो वहाँ भी सफल हो जायेगा और लौकिक जगत में भी, परंतु समय बर्बाद करने वाला, टालमटोल करने वाला तो व्यवहार में भी विफल रहता है और परमार्थ में तो सफल हो ही नहीं सकता।

लापरवाह, पलायनवादी लोगों को सुख-सुविधा और भजन का स्थान भी मिल जाय तो भी उनकी कार्य करने में तत्परता नहीं होती, ईश्वर में, जप में प्रीति नहीं होती। ऐसे व्यक्तियों को ब्रह्माजी भी आकर सुखी करना चाहें तो नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति दुःखी ही रहेंगे। कभी-कभी दैवयोग से उन्हें सुख मिलेगा तो आसक्त हो जायेंगे और दुःख मिलेगा तो बोलेंगेः ‘क्या करें, जमाना ऐसा है !’ ऐसा कहकर वे फरियाद ही करेंगे।

काम-क्रोध तो मनुष्य के वैरी हैं ही परंतु लापरवाही, आलस्य, प्रमाद – ये मनुष्य की योग्यता के वैरी हैं, इसलिए अपने कार्य में तत्पर होना चाहिए। रावण, सिकंदर, हिरण्यकशिपु, हिटलर – ये तत्पर तो थे लेकिन अहं को पोसने में, विषय-विकारों को पाने में विनाश की तरफ चले गये। आत्मा परमात्मा को पाने का उद्देश्य बना के धर्म-मर्यादा के अनुरूप तत्परता होनी चाहिए। कई लोग तत्पर भी पाये जाते हैं पर भोग-विलास और अहं पोसने में लगते हैं तो विनाश की तरफ जाते हैं। तत्परता अविनाशी की तरफ होनी चाहिए। जो कर्मयोग में तत्पर नहीं है वह भक्तियोग और ज्ञान योग में तत्पर नहीं होगा। जप करेगा तो व्यग्रचित्त होकर बंदरछाप जप करेगा, इससे उसका फल क्षीण हो जायेगा। अतः जो भी काम करो तत्परता से करो। भोजन करो तो चबा-चबाकर करो। इधर-उधर देखते-देखते, बातें करते हुए, जल्दी-जल्दी, लापरवाही से भोजन करते हैं तो भोजन पचता नहीं, आँते खराब होती हैं, तबीयत खराब होती है। यात्रा करनी है और देर से गये, गाड़ी छूट गयी तो यह  लापरवाही है। रोटी बनाते बनाते रोटी पर काले दाग कर दिये, जला दी तो लापरवाह है, मूर्ख है। सब्जी बना रहा है तो सब्जी  को छौंक लगाकर इतना सेंका कि उसके बहुत सारे विटामिन नष्ट हो गये या नमक मिर्ची ज्यादा डाल दी अथवा तो फीकी बना दी। ऐसे लोग लापरवाह होते हैं। चावल ठीक से साफ नहीं किये, खाते समय कंकड़ आते हैं तो साफ करने वाला लापरवाह है, मूर्ख है। चाहे कितना भी बड़ा सेठ हो, साहब हो… साहब है, वेतन लेता है इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि दफ्तर का काम तत्परता से करे। झाड़ू लगाने वाला है तो झाड़ू ठीक से लगाये, यह उसकी जिम्मेदारी है।

संचालक लोग लापरवाह होते हैं तो स्वामी को बहुत कष्ट सहना पड़ता है। मुनीम, मैनेजर, सहायक लापरवाह होता है तो उसके मालिक को बहुत दुःख देखना पड़ता है। लापरवाह आदमी से भगवान नाराज रहते हैं। शबरी कर्म करने में कैसी तत्पर, रैदासजी कितने तत्पर, ध्रुव और प्रह्लाद काम करने में कितने तत्पर….. भगवान को प्रसन्न कर लिया, पा लिया। धिक्कार है लापरवाह लोगों को जो अपने स्वामी को दुःख देते हैं, समाज के लोगों से धोखा करते हैं ! खाना-पीना समाज का और समाज के कार्य में लापरवाही करना, ऐसे लोग कुत्ते से भी बेकार होते हैं। लापरवाह आदमी को ‘कुत्ता’ बोलो तो कुत्ता भी नाराज हो जायगा, ‘गधा’ बोलो तो गधा नाराज हो जायेगा। बोलेगाः ‘मैं तो रूखा-सूखा खा लेता हूँ और मालिक का खाता हूँ और काम विलम्ब में डालता है, ऊपर से सफाई देता है।’ पलायनवादी, लापरवाह व्यक्ति घर, दुकान, दफ्तर, आश्रम जहाँ भी जायेगा देर-सवेर असफल हो जायेगा। कर्म के पीछे भाग्य बनता है, हाथ की रेखाएँ बदल जाती हैं, प्रारब्ध बदल जाता है।

सुविधा पूरी चाहिये लेकिन जिम्मेदारी नहीं, इससे लापरवाह व्यक्ति खोखला हो जाता है। जो तत्परता से काम नहीं करता, उसे कुदरत दुबारा मनुष्य शरीर नहीं देती। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे काम लिया जाता है परंतु तत्पर व्यक्ति को कहना नहीं पड़ता, वह स्वयं कार्य करता है। समझ बदलेगी तब व्यक्ति बदलेगा और व्यक्ति बदलेगा तब समाज और देश बदलेगा।

जो मनुष्य-जन्म में काम से कतराता है, वह पेड़-पौधा, पशु बन जाता है, फिर कुल्हाड़े मारकर, डंडे मारकर उससे काम लिया जाता है। सूर्य दिन रात कार्य कर रहा है, हवाएँ दिन-रात कार्य कर रही हैं, प्रकृति दिन रात कार्य कर रही है, परमात्मा दिन रात चेतना दे रहा है और हम अगर कार्य से भागते फिरते हैं तो स्वयं ही अपने पैर पर कुल्हाड़ा मारते हैं।

काम की अधिकता नहीं अनियमितता आदमी को मार डालती है। विद्यार्थी है तो ‘आज पढ़ने का पाठ कल पढ़ेंगे, बाद में करेंगे….’ ऐसा नहीं करे। जिस समय का जो काम है वह उस समय ही कर लेना चाहिए, बाद के लिए नहीं रखना चाहिए। बढ़िया समय आयेगा तब कुछ करेंगे या बढ़िया समय था तब कुछ कर लेते….’ नहीं, अभी जो समय है वही बढ़िया है।

जो काम, जो बात अपने बस की है उसे ईमानदारी, तत्परता और कुशलतापूर्वक करो। अपने प्रत्येक कार्य को ईश्वर की पूजा समझो। राज-व्यवस्था में भी अगर तत्परता नहीं है तो वह बिगड़ जाती है। रिश्वत मिल जाती है तो जो काम अधिकारियों से तत्परता से लेना है वह नहीं लेते और वे लापरवाह हो जाते हैं। इस देश में ‘ऑपरेशन’ की जरूरत है। जो कामचोर हैं, लापरवाह हैं, समाज का शोषण करते हैं, खूब रिश्वत ले के देश विदेशों में जमा करते हैं, ऐसे लोगों को तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए, तभी देश सुधरेगा। आप लोग जहाँ भी हों, अपने जीवन को संयम और तत्परता के ऊपर उठाओ। परमात्मा हमेशा उन्नति में साथ देता है, पतन में नहीं। पतन में हमारी वासनाएँ, लापरवाही काम करती है। मुक्ति के रास्ते भगवान साथ देता है, प्रकृति साथ देती है, बंधन के लिए तो हमारी बेवकूफी, इन्द्रियों की गुलामी, लालच और हलका संग ही कारणरूप होता है। हम तो ईश्वर का संग करेंगे, संतों शास्त्रों की शरण जायेंगे, श्रेष्ठ संग करेंगे और संयमी व तत्पर होकर अपना कार्य करेंगे – यही भाव रखना चाहिए।

लापरवाही के दुर्गुण से बचने में लं बीजमंत्र का जप सहायक है, लाभदायी है।

रोज ॐ लं लं लं लं लं…. इस प्रकार आदर से, तत्परता से कम से कम हजार बार जप करने वाला लापरवाह भी सुधर जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 214

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क्यों देर करते हो ?


(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

हमारे देव केवल एक मंदिर में नहीं रह सकते, हालाँकि वे केवल एक मंदिर में ही थे ऐसी बात नहीं थी। हमारी बुद्धि छोटी थी तो हमने उनको मंदिर में मान रखा था। अब तो वे अनंत ब्रह्माण्डों में हैं, ऐसी हमारी मति हो रही है। हमारे देव अभी बड़े नहीं हुए, वे तो बड़े थे परंतु अब हमको उनकी कृपा से देखने की दृष्टि बढ़िया मिली है।

अगर तुम अपने देव को सर्वत्र नहीं देख सकते हो तो कम से कम एक ऐसे पुरुष में उनको देखो, जिनको तुम निर्दोष प्यार कर सकते हो। एक ऐसे चित्त में देखो जिससे तुम्हारी दृष्टि को ठंडक मिलती हो। फिर धीरे-धीरे दूसरे व्यक्ति में भी उन्हें अपने देव को देखो, फिर तीसरे चौथे में देखो। ऐसा करते करते बुद्धि को विशाल करो तो तुम्हारी मर्जी और उन्हीं देव के प्यारों को मिल के, उनके वचनों को पाकर एकदम दृष्टि को खोल दो तो तुम्हारी मर्जी ! पर आना तो यहीं पड़ेगा, अखंड अनुभव में…. वहीं विश्राँति है और वही अपने जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।

तुम अपना लक्ष्य उन्नत बना दो तो फिर हजार हजार गल्तियाँ हो जायें, डरो नहीं। फिर से कोशिश करोक, एक बार फिर से कदम रखो। जिसका लक्ष्य पवित्र नहीं, उन्नत नहीं, सर्वव्यापक सर्वेश्वर के साक्षात्कार का नहीं है, वह लक्ष्यहीन, आदमी हजारों गलतियाँ करेगा और लक्ष्यवाला आदमी पचासों गलतियाँ कर लेगा किंतु पचासों गलतियाँ करता है तब भी लक्ष्य जिसका उन्नत है, वह जीत जाता है। जिसका लक्ष्य उन्नत नहीं है वह सैंकड़ों गलतियों में रूकेगा नहीं, हजारों में नहीं रूकेगा, लाखों में नहीं रूकेगा, करोड़ों गलतियाँ करोड़ों जन्मों तक करता ही रहेगा क्योंकि उसके जीवन में सर्वेश्वर, सर्व में व्यापक एक परमात्मा है – ऐसा लक्ष्य नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष का लक्ष्य नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष का लक्ष्य नहीं है, उसके जीवन में सुख-दुःख से पार होने का लक्ष्य नहीं है। वह सदा सुखी-दुःखी होता रहेगा और जो सुखी-दुःखी होता है वह गलतियाँ करता ही है। इसीलिए हजारों-हजारों जन्म बीत गये, हजारों हजारों हजारों युग बीत गये, काम पूरा नहीं हुआ क्योंकि लक्ष्य नहीं बना। इसलिए हे मेरे प्यारे साधक ! तू अपने जीवन का लक्ष्य बना ले। सर्वत्र सर्वेश्वर को देख, आप सहित परमेश्वर को देख।

सो प्रभ दूर नहीं, प्रभ तू है।

घर ही महि अंमृतु भरपूरू है,

मनमुखा सादु न पाईआ। (सादु- स्वाद)

जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।

मैं भोरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ।।

खोज अपने आप में – जो विचार उठता है वह कहाँ से उठा ? जो इच्छाएँ और चिंताएँ उठती हैं, कहाँ से उठीं, क्यों उठीं ? खोज ! खोज !! और तू पहुँच जायेगा अपने परम लक्ष्य में। फिसल जाय तो डर मत, फिर से चल। रूक जाय कहीं, कोई थाम ले तुझे तो सदा के लिए चिपक मत, फिर चल। चल, चल और चल… अवश्य पहुँचेगा। और चलना पैरों से नहीं है, केवल विचारों और अपने सत्कृत्यों से चलना है। चलना क्या है ? तन और मन की भागदौड़ मिटाकर अपने अचल आत्मा में विश्रान्ति पाना ही सचमुच में चलना है। सर्वेश्वर कहीं दूर नहीं है कि चलो, यात्रा करो और चलते चलते पहुँचो। क्या कलकत्ते (कोलकाता) में बैठा है, दिल्ली या वैकुण्ठ में बैठा है ? जिस सत्ता से तुम चल रहे हो न, वह सत्ता भी उसी की है और जहाँ से उसको खोजने की शुरूआत करते हो, वहीं वह बैठा है। फिर भी खोजो। उसी के भाव से खोजते-खोजते घूमघाम के वहीं विश्रान्ति मिलेगी जहाँ से खोजना शुरू हुआ है, किंतु बिना खोजे विश्रान्ति नहीं मिलती। बिना खोजे अगर बैठ गये तो आलस्य, प्रमाद और मौत मिलती है। खोजते-खोजते आप नाक की सिधाई में सीधे चलते जाओ, चलते चलते पूरी पृथ्वी की यात्रा करके वहीं पहुँचोगे जहाँ से चले थे।

ॐ….. ॐ…. ॐ…..ॐ….. मधुर-मधुर आनंद-ही-आनंद ! शांति ही शांति ! तू ही तू, तू ही तू, अथवा तो मैं ही मैं ! वह गैर, वह गैर… नहीं, सब तू ही तू अथवा सबमें मैं ही मैं। तुम अनन्त से जुड़े हो। वास्तव में तुम अनंत हो। अनंत श्वासराशि से तुम्हारा श्वास जुड़ा है। अनंत आकाश से तुम्हारा हृदयाकाश और शरीर का आकाश जुड़ा है। तुम्हारा शरीर अनन्त जलराशि से जुड़ा है, अनंत तेजराशि से जुड़ा है, अनन्त पृथ्वी तत्त्व से जुड़ा है। ये पंचभूत भी अनंत महाभूतों से जुड़े हैं। इन पंचभूतों को चलाने वाला तुम्हारा चिदाकाश तो अपने ब्रह्मानंदस्वरूप से, तुम्हारा आत्मा तो अपने परमात्मा से सदैव जुड़ा है। जुड़ा है, यह कहना भी छोटी बात है। हकीकत में तुम्हारा आत्मा ही परमात्मा है। जैसे तरंग पानी स्वरूप है, घटाकाश महाकाशस्वरूप है, ऐसे ही जीव ब्रह्मस्वरूप है, खामखाह परेशान हो रहा है।

तुम अपने परमेश्वर-स्वभाव का सुमिरन करो और जग जाओ… युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण के प्रसाद से अर्जुन ने सुमिरन कर लिया और अर्जुन कहता हैः नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा….. तो यहाँ साबरमती के तट पर तुम भी सुन लो, नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा… कर लो। क्यों कंजूसी करते हो ! क्यों देर करना ! यह तो जेटयुग है मेरे लाला ! मेरी लालियाँ ! ॐ….ॐ…..ॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 214

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