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कार्तिक मास की महिमा


(कार्तिक मास व्रतः 23 अक्तूबर से 21 नवम्बर 2010)

सूतजी ने महर्षियों से कहाः पापनाशक कार्तिक मास का बहुत ही दिव्य प्रभाव बतलाया गया है। यह मास भगवान विष्णु को सदा ही प्रिय तथा भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करने वाला है।

हरिजागरणं प्रातः स्नानं तुलसिसेवनम्।

उद्यापनं दीपदानं व्रतान्येतानि कार्तिके।।

‘रात्रि में भगवान विष्णु के समीप जागरण, प्रातःकाल स्नान करना, तुलसी के सेवा में संलग्न रहना, उद्यापन करना और दीप दान देना – ये कार्तिक मास के पाँच नियम हैं।’

पद्म पुराण, उ.खंडः 117.3

इन पाँचों नियमों का पालन करने से कार्तिक मास का व्रत करने वाला पुरुष व्रत के पूर्ण फल का भागी होता है। वह फल भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला बताया गया है।

मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकाल में कार्तिकेय जी के पूछने पर महादेवजि ने कार्तिक व्रत और उसके माहात्म्य का वर्णन किया था, उसे आप सुनिये।

महादेव जी ने कहाः बेटा कार्तिकेय ! कार्तिक मास में प्रातः स्नान पापनाशक है। इस मास में जो मनुष्य दूसरे के अन्न का त्याग कर देता है, वह प्रतिदिन कृच्छ्रव्रत1 का फल प्राप्त करता है।

1 इसमें पहले दिन निराहार रहकर दूसरे दिन पंचगव्य पीकर उपवास किया जाता है।

कार्तिक में शहद के सेवन, काँसे के बर्तन में भोजन और मैथुन का विशेषरूप से परित्याग करना चाहिए।

चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहणकाल में ब्राह्मणों को पृथ्वीदान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल कार्तिक में भूमि पर शयन करने वाले पुरुष को स्वतः प्राप्त हो जाता है।

कार्तिक मास में ब्राह्मण दम्पत्ति को भोजन कराकर उनका पूजन करें। अपनी क्षमता के अनुसार कम्बल, ओढ़ना-बिछौना एवं नाना प्रकार के रत्न व वस्त्रों का दान करें। जूते और छाते का भी दान करने का विधान है।

कार्तिक मास में जो मनुष्य प्रतिदिन पत्तल में भोजन करता है, वह 14 इन्द्रियों की आयुपर्यन्त कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। उसे समस्त तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है तथा उसकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

पद्म पुराण, उ.खंडः अध्याय 120

कार्तिक में तिल दान, नदी स्नान, सदा साधु पुरुषों का सेवन और पलाश-पत्र से बनी पत्तल में भोजन मोक्ष देने वाला है। कार्तिक मास में मौनव्रत का पालन, पलाश के पत्तों में भोजन, तिलमिश्रित जल से स्नान, निरंतर क्षमा का आश्रय और पृथ्वी पर शयन – इन नियमों का पालन करने वाला पुरुष युग युग के संचित पापों का नाश कर डालता है।

संसार में विशेषतः कलियुग में वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो सदा पितरों के उद्धार के लिए भगवान श्री हरि का सेवन करते हैं। वे हरिभजन के प्रभाव से अपने पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं। यदि पितरों के उद्देश्य से दूध आदि के द्वारा भगवान विष्णु को स्नान कराया जाय तो पितर स्वर्ग में पहुँचकर कोटि कल्पों तक देवताओं के साथ निवास करते हैं।

जो मुख में, मस्तक पर तथा शरीर पर भगवान की प्रसादभूता तुलसी को प्रसन्नतापूर्वक धारण करता है, उसे कलियुग नहीं छूता।

कार्तिक मास में तुलसी का पूजन महान पुण्यदायी है। प्रयाग में स्नान करने से, काशी में मृत्यु होने से और वेदों का स्वाध्याय करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब तुलसी के पूजन से मिल जाता है।

जो द्वादशी को तुलसी दल व कार्तिक में आँवले का पत्ता तोड़ता है, वह अत्यन्त निंदित नरकों में पड़ता है। जो कार्तिक में आँवले की छाया में बैठकर भोजन करता है, उसका वर्ष भर का अन्न-संसर्गजनित दोष (जूठा या अशुद्ध भोजन करने से लगने वाला दोष) नष्ट हो जाता है।

कार्तिक मास में दीपदान का विशेष महत्त्व है। ‘पुष्कर पुराण’ में आता हैः

‘जो मनुष्य कार्तिक मास में संध्या के समय भगवान श्रीहरि के नाम से तिल के तेल का दीप जलाता है, वह अतुल लक्ष्मी, रूप, सौभाग्य एवं सम्पत्ति को प्राप्त करता है।’

यदि चतुर्मास के चार महीनों तक चतुर्मास के शास्त्रोचित नियमों का पालन करना सम्भव न हो तो एक कार्तिक मास में ही सब नियमों का पालन करना चाहिए। जो ब्राह्मण सम्पूर्ण कार्तिक मास में काँस, मांस, क्षौर कर्म (हजामत), शहद, दुबारा भोजन और मैथुन छोड़ देता है, वह चतुर्मास के सभी नियमों के पालन का फल पाता है।

(स्कन्द पुराण, नागर खण्ड, उत्तरार्ध)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 214

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ज्ञानसंयुक्त कर्म करें


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

जीवन में ज्ञान पहले और कर्म बाद में हो। और ज्ञान भी उत्तम ज्ञान… कर्म करने का ज्ञान नहीं, कर्म के परिणाम का ज्ञान। किस कर्म से भगवत्प्रेम, भगवदशांति, भगवन्माधुर्य, स्वतन्त्रता और जीवन रसमय होगा, वह ज्ञान मिले तो आपके कर्म दिव्य कर्म होते हैं।

ज्ञान में तो दो धाराएँ होती हैं। सुख की प्रधानता की तरफ ज्ञान झुकता है तो जानते हुए भी हम चोरी-जारी आदि न करने का करते हैं, न खाने का खाते हैं, न बोलने का बोलते हैं। वह ज्ञान है वासना से आच्छादित ज्ञान। और जब सत्संग, ध्यान भजन करते हैं तो परमात्म ज्ञान से शुद्ध ज्ञान होता है। जैसे रिफाइंड तेल और ऐसा वैसा तेल, फिल्टर प्लांट का पानी और गटर का पानी…. तो फर्क है न ! ऐसे ही शास्त्र के अनुसार जो करणीय है उसको करने में पूरा तन-मन, योग्यता लगा दें और जो अकरणीय है उससे बच लें। रावण कोई कम नहीं था। रावण के पास ऐहिक ज्ञान भी अदभुत था। समुद्र को खारेपन से रहित करने की, मीठा बनाने की उसकी योजना थी। चन्द्रमा को निष्कलंक बनाना था। अग्नि को धुआँरहित बनाने की योजना थी, लकड़ी जलाओ तो धुआँ न हो। ये सारी योजनाएँ थीं किंतु सुख की प्रधानता का तरफ झुकाव हो गया तो वे योजनायें धरी रह गयीं। मंदोदरी पत्नी थी, और नर्तकियाँ, सुंदरियाँ थी फिर भी रावण ने सीता जी का हरण किया। सुख की प्रधानता की तरफ झुके हुए ज्ञान ने रावण को गिरा दिया। शबरी के पास संयम की प्रधानतावाला ज्ञान था। शबरी भीलन…. एक तो छोटी सी जाति, उसमें भी शबर जाति की कुरूप, अबला, घरवालों से, कुटुम्ब से कोई रिश्ता-नाता नहीं। फिर भी मतंग ऋषि का ज्ञान उसने आत्मसात् किया तो उसे अंतर्यामी परमात्म-राम का भी साक्षात्कार हुआ और दशरथनंदन भी उसके जूठे बेर खाते हैं।

तो ज्ञान होता है दो प्रकार का। एक सुख की तरफ ले जाता है और दूसरा सही समझ देता है। जब सही समझ का महत्त्व रखोगे तो सुख में फिसलोगे नहीं। पति-पत्नी हैं, संसार में बच्चे को जन्म देना है, ठीक है परंतु सुखबुद्धि से पति-पत्नी मिलेंगे तो अकारण ऊर्जा का नाश होगा, शरीर कमजोर होंगे। जब सुख के पक्ष में आपकी इन्द्रियाँ जाती हैं, मन जाता है, बुद्धि जाती है तो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति। रावण कोई कम नहीं था पर देखने-सुनने की इन्द्रियों के विषयों में महत्त्वबुद्धि की तो वह नीचे आ गया। शबरी कोई बड़ी महान नहीं थी किंतु गुरु का सान्निध्य था, आवश्यकता पूरी की और बाकी का संयम किया तो रावण को हजार वर्ष की तपस्या से जो नहीं मिला, वह शबरी को हँसते-खेलते मिला। अंतरात्मा-राम का साक्षात्कार और बाहर से दशरथनंदन का साक्षात्कार दोनों हुए।

तो शास्त्रसम्मत जो शुद्ध ज्ञान है, उसका आदर करेंगे तो आपके जीवन में प्रेममय परमात्मा का सामर्थ्य, आनंद प्रकट होगा। जिसके जीवन में परमात्म-प्रेम, परमात्म-आनंद नहीं है, उसको शारीरिक तनाव सुरा सुन्दरी अथवा पान मसाले की तरफ फिसलायेगा और मानसिक तनाव, भावनात्मक तनाव न जाने कितने-कितने विकारों और व्यसनों में उसको नोचता रहेगा।

जो शुद्ध ज्ञान के अनुसार कर्म करता है, उसमें भगवदरस की उत्पत्ति होती है, कर्म करने के रस की भी उत्पत्ति होती है, कर्म करने के रस की भी उत्पत्ति होती है और वह उसी रस से तृप्त रहता है। जो ज्ञान दूसरे को दुःख देकर सुख लेने की तरफ ले जाता है, समझ लेना वह वासनासंयुक्त ज्ञान है और जो ज्ञान कठिनाई सहकर भी अपना और दूसरों को मंगल करने की तरफ आपको कटिबद्ध करता है, वह शुद्ध ज्ञान है। तो ज्ञान पहले और कर्म बाद में।

कर्म हो तो निष्ठाजन्य हो। जड़ता, तमोगुण न हो अथवा आधे में कर्म न छोड़ दें। ज्ञानस्वरूप के प्रकाश में कर्म हों। जैसे शिवाजी महाराज के कर्म को समर्थ रामदासजी की राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। ऐसी आत्मविद्या का सम्पुट मिल गया तो शिवाजी का राजकर्म, राजधर्म भी आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला हो गया और हिटलर, सिकंदर के पास युद्ध का ज्ञान तो बहुत था परंतु स्वार्थ की प्रधानता थी तो उनको ले डूबा।

तो वासना का महत्त्व समझ के कर्म करते हैं तो वे कर्म हमको ईश्वर से दूर ले जाते हैं परंतु ज्ञान विवेक की प्रधानता से, शास्त्र-प्रधानता कसे ज्ञान का आदर करके कर्म करते हैं तो वे कर्म हमें सत्स्वभाव, चेतनस्वभाव, आनंदस्वभाव प्रकट होने लगता है। जीवन्मुक्त अवस्था में आपकी स्थिति होने लगती है। मरने के बाद मुक्ति नहीं जीते ही परम मुक्ति का अनुभव !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 214

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भागवत धर्म का संदेश देता पर्वः दीपावली


दीपावली 5 नवम्बर 2010

(पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से)

अज्ञानरूपी अंधकार पर ज्ञानरूपी प्रकाश की विजय का संदेश देता है जगमगाते दीपों का उत्सव ‘दीपावली’। उत्सव, ‘उत्’ माना उत्कृष्ट ‘सव’ माना यज्ञ। ऊँचा यज्ञ, उत्कृष्ट यज्ञ इसको बोलते हैं। उत्कृष्ट यज्ञ जीवन की माँग है। उत्सव में दुःख को भूलने का मुख्य उद्देश्य होता है। न दुःख दें, न दुःख याद करें और न दुःख बढ़ें ऐसा कर्म करें, यह है ‘उत्सव’।

जिसके जीवन में उत्सव नहीं है, उसके जीवन में विकास भी नहीं है, नवीनता भी नहीं है, सात्विक मधुरता भी नहीं है और वह आत्मा के करीब भी नहीं है।

तो हमारे जीवन में दीपावली आदि के ऐसे शुभ अवसर इसलिए आते हैं कि राग-द्वेष को भूलकर हम फिर से अपना नया जीवन शुरु करें, जिससे जीवात्मा का मंगल हो, कल्याण हो। तो कल्याणकारी वृत्ति है उत्सव। जिसमें शोक नहीं, दुःख नहीं, द्वेष नहीं, राग नहीं, भय नहीं, चिंता नहीं, चित्त शांत और मधुमय भगवान से भरा हो। पुण्यदर्शन से, पुण्य भाव से, पुण्यमय सुख से चित्त भरा हो, यह दीपावली का उत्सव है।

दीपावली के दिनों में घर की साफ-सफाई करना, नयी चीज लाना, दीये जलाना और मिठाई खाना-खिलाना – ये व्यावहारिक दिवालियाँ तो तुमने देखीं, हमने भी देखीं। तुम भी मनाते हो, हम भी मनाते हैं और प्रोत्साहित करते हैं। लेकिन व्यावहारिक दिवालियों के पीछे आश्रम का उद्देश्य रहा है कि पारमार्थिक दिवाली हो जाये। षडविकारों का दिवाला निकल जाय, षडऊर्मियों का दिवाला निकल जाय, षडऋतुओं के आकर्षण का दिवाला निकल जाय और सारे आकर्षण जहाँ बौने पड़ते हैं, ऐसे आत्मसुख का जगमगाहट का अनुभव हो, यह परम उद्देश्य रहा है मेरा और मैंने सत्संग में दीपावली पर्व और वर्ष का प्रथम दिन मनाने पर भी आत्मसुख की ओर, ज्ञान-प्रकाश की ओर समाज को खींचने का प्रयत्न किया है। जितने अंश में जिसकी अच्छी सूझबूझ है, उतने अंश में वह बातें झेल लेता है और फिर प्रकाश में जीता है।

हम दीपावली की अँधेरी रात को जगमगाहट से भर देते हैं, ऐसे ही अविद्या का अंधकार है। इस अंधकार को भी ज्ञान के प्रकाश से भर देना हमारा पुरुषार्थ है, हमारे मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है।

वेद भगवान कहते हैं कि ‘तू परिस्थितियों से, प्रकृति के प्रभाव से दब मरने के लिए पैदा नहीं हुआ है। तू परिस्थितियों के सिर पर पैर रख के अपने अमरत्व को पाकर मुक्तात्मा होने के लिए पैदा हुआ है, इसलिए तू अपना उद्देश्य ऊँचा रख।’

लक्ष्य न ओझल होने पाये

कदम मिलाकर (शास्त्र और गुरु के अनुभव से) चल,

सफलता तेरे कदम चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

नूतन वर्ष के दिन आप पक्का इरादा कर लो कि हमें इसी जन्म में परमात्मा-सुख पाना है, परमात्म ज्ञान पाना है, परमात्म आनन्द पाना है, परमात्म-माधुर्य पाना है। ऐसा अपना साफ हौंसला कर दो।

दूसरा आप विकारी सुखों में गिरो नहीं, परमात्मा का आनंद उभारो। फिर दुनिया का कोई भी सुख आपको फँसायेगा नहीं और कोई भी दुःख आपको दबायेगा नहीं।

तीसरी बात है कि आप अपने जीवन में ज्ञान के दीये जलाओ।

‘शिवगीता’ में प्रार्थना की गयी हैः

अज्ञानतिमिरान्धस्य विषयाक्रान्तचेतसः।

ज्ञानप्रभाप्रदानेन प्रसादं कुरु मे प्रभो।।

‘हे प्रभो ! अज्ञानरूपी अंधकार में अंध बने हुए विषयों से आक्रान्त चित्तवाले मुझको ज्ञान का प्रकाश देकर कृपा करो।’

आज के दिन भगवान से विशेषरूप से प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि हम जीवों पर तीन पाश हैं – तामसी पाश, राजसी पाश और सात्त्विक पाश। आलस्य, निद्रा, शराब-कबाब आदि विकारों में तुच्छ होकर पड़े रहना – ये तामस पाश हैं। कई जीव इनमें फँसे हैं। कुछ राजस पाश हैं –  सत्ता का, धन का, शत्रु को नीचा दिखाने का, यशस्वी बनने का, मरने के बाद अपना नाम करने का। ये सब वृत्तियाँ, ये पाश जीव को बाँधते हैं। तीसरा पाश है सात्त्विक पाश। ‘ऐसी स्थिति बनी रहे, मेरे से बुराई न हो, मेरे लिए ऐसा वातावरण हो, ऐसी स्थिति हो। त्याग होना चाहिए, वैराग्य होना चाहिए, अच्छा ही होना चाहिए। ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा ठीक हुआ, ऐसा बेठीक हुआ है।’ – इस तरह के सात्त्विक पाश में भी आदमी बँधा रहता है। लेकिन ज्ञानमार्ग इन तीनों से पार पहुँचा देता है। सदसच्चाहमर्जुन।

‘हे अर्जुन ! सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं ही हूँ।’ गीता 9.19

आप ज्ञान का दीया जलाओ। दुःख आये तो दुःख के भोगी मत बनो, सुख आये तो सुख के भोगी मत बनो। सुख और दुःख दोनों को साधन मानकर उनका सदुपयोग करो, उनसे पार ले जाने वाली प्रज्ञा को विकसित करो। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि व दुःखं स योगी परमो मतः।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

गीताः 6.32

सुख आ जाय चाहे दुःख आ जाय, योगी परम मतिवाला होता है। सुख-दुःख को देखने वाली मति के धनी मत बन जाओ… ज्ञान के प्रकाश !

चौथी बात आप प्रसन्न रहो, दूसरों की प्रसन्नता में मदद करो। प्रसन्न रहने के लिए सुबह के शुद्ध हवामान में खूब गहरा श्वास लिया, खूब भरा। ‘ॐ शांति, ॐ आनन्द’ का मानसिक जप किया, फिर फूँक मारते हुए चिंता को, हाई बी.पी., लो बी.पी. आदि के रोगों, तनावों को बाहर छोड़ दिया। फिर खूब गहरा श्वास लिया और फिर जोर से फूँक मार दी। ऐसे 25 बार फूँक मार के रोग, भय, चिंता, बीमारियों को भगा दो।

ज्ञान के प्रकाश में जियो। जैसे घर की साफ-सफाई करते हो, ऐसे ही उद्देश्य की साफ सफाई करना, जैसे घर में नयी चीज लाते हो, ऐसे ही अपने जीवन में नया नजरिया लाना, दिये जलाना तो ज्ञान प्रकाश में जीना। यस्य ज्ञानमयं तपः…..

ज्ञानमय तप में जियो। हजारों मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों में, इधर-उधर जाओ फिर भी हृदय मंदिर में ज्ञान के दीप जलाये बिना छुटकारा नहीं है, कल्याण नहीं है।

पर्वों का पुंज है दीपावली का उत्सव। धनतेरस के दिन धन्वंतरि महाराज खारे-खारे सागर में से औषधिरूप अमृत लेकर प्रकट हुए थे। आपका जीवन में भी औषधियों के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य सम्पदा से समृद्ध हो।

नरक चतुर्दशी (काली चौदस) और दीपावली की रात जप-तप के लिए बहुत मुक्तिकारक मुहूर्त माना गया है। नरक चतुर्दशी की रात्रि मंत्र-जापकों के लिए वरदान स्वरूप है। इस रात्रि में सरसों के तेल अथवा घी के दीये से काजल बनाना चाहिए। इस काजल को आँखों में आँजने से विशेष लाभ होता है।

लक्ष्मी जी की प्रसन्नता के लिए काली चौदस की रात्रि में श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा। मंत्र का जप करने से लाभ होता है।

परमात्मप्राप्ति की इच्छावाले को काली चौदस की रात्रि में श्रद्धा एवं तत्परता से ॐ का, अपने गुरुमंत्र का अर्थसहित जप करना चाहिए।

कुछ नासमझ लोग इन दिनों में पिकनिक मनाने जाते हैं। अरे बुद्धू ! दीपावली के दिनों में नूतन वर्ष के दिनों में अगर लवर-लवरी होकर घूमने जाओगे, रॉक और पॉप में झूमोगे तो जीवनशक्ति का ह्रास ज्यादा होगा। पर्व के दिन विकारी व्यवहार करने वालों की खैर नहीं ! बहुत ज्यादा हानि होती है। बाद में उनको रोना पड़ता है। पर्व के दिनों में तो जप, ध्यान, संयम, साधना करके बुद्धि के प्रकाश को बढ़ाना चाहिए।

दीपावली की रात्रि को कुबेर, लक्ष्मी पूजन के साथ-साथ बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती जी का भी पूजन किया जाता है, जिससे लक्ष्मी के साथ-साथ आपको विद्या भी मिले। विद्या भी केवल पेट भरने की विद्या नहीं, वरन् वह विद्या जिससे आपके जीवन में मुक्ति के पुष्प महकें। आज के दिन सप्तधान्य उबटन (गेहूँ, जौ, चावल, चना, मूँग, उड़द और तिल से बना मिश्रण) से स्नान करने पर पुण्य, प्रसन्नता और आरोग्य की प्राप्ति होती है।

पहले के जमाने में गाँवों में दीपावली के दिनों में वर्ष के प्रथम दिन नीम और अशोक वृक्ष के पत्तों तोरण (बंदनवार) बाँधते थे, जिससे कि वहाँ से लोग गुजरें तो वर्ष भर प्रसन्न रहें, निरोग रहें। अशोक और नीम के पत्तों में रोगप्रतिकारक शक्ति होती है। उस तोरण के नीचे से गुजरकर जाने से वर्ष भर रोगप्रतिकारक शक्ति बनी रहती है। वर्ष के प्रथम दिन आप भी अपने घरों में तोरण बाँधो तो अच्छा है।

आप स्वस्थ रहो, सुखी रहो, सम्मानित रहो और जीवन की शाम होने के पहले जीवनदाता के आनंद को प्रकट करो। जीवनदाता के गुण को, स्वभाव को जानकर आप एकदम स्वस्थ हो जाओ, ‘स्व’ में स्थित हो जाओ।

आदिवासियों में दीपावली के दिन मृतकों को याद करके रोने की परम्परा न जाने किस बेवकूफ ने शुरू करा दी ! वर्ष के प्रथम दिन जो दुःखी रहता है, शोक करता है, वह वर्ष भर दुःखी ही दुःखी रहता है। पर्व के दिन रोना, दुःखी होना, शोक करना मानो पूरे वर्ष के लिए दुःख, शोक को बुलाना है। शोक आत्मा का स्वभाव नहीं है। शोक करना हमारा कर्तव्य नहीं है। बीती हुई चीज, बीती हुई घटना को ‘ऐसा ठीक नहीं हुआ।’ – ऐसा आरोप करके बेवकूफी सिर पर उठाकर आदमी शोक करता है और इस बेवकूफी से आदमी और बोझीला हो जाता है, और कमजोर हो जाता है। बीते हुए का शोक करना मूर्खता है।

दीपावली वर्ष का आखिरी दिन है और अगला दिन नूतन वर्ष का प्रथम दिन है। वर्ष प्रतिपदा विक्रम सम्वत् (गुजराती) के प्रारम्भ का दिन है। भारतीय संस्कृति को खतरा पहुँचाने वाले लोगों को मार भगाने वाले राजा विक्रमादित्य थे। समाज का शोषम करने वाले लोगों का दमन करके उन्होंने समाज में सुख शान्ति और भारतीय संस्कृति की दिव्यता प्रकटे, ऐसे बहुत से काम किये।

भारतीय संस्कृति के दिव्य संस्कारों को, संयम सदाचार को महत्त्व दे के विश्वमानव को उन्नत करने में उनका प्रचार-प्रसार करें। सब स्वस्थ रहें, सबका मंगल हो और स्नेहबल, मनोबल, बुद्धिबल का मूल आत्मबल जगाने के लिए आत्मदेव की उपासना करें।

दीपावली पर समृद्धि प्रदायक ‘गौ-पूजन’

धर्मसिन्धु आदि शास्त्रों के अनुसार गोवर्धन-पूजा के दिन (दि. 6 नवम्बर को) गायों को सजाकर, उनकी पूजा करके उन्हें भोज्य पदार्थ आदि अर्पित करने का विधान है। गौ-पूजन का मंत्रः

लक्ष्मीर्या लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता।

घृतं वहति यज्ञार्थ मम पापं व्यपोहतु।।

धन-धान्य एवं सर्व प्रकार की समृद्धि देने वाली गौमाता का समाज के द्वारा रक्षण एवं पालन-पोषण हो, इस उद्देश्य से भारत के ऋषि-मुनियों ने यह कितनी दूरदृष्टि पूर्व व्यवस्था की है !

नारकीय यातनाओं से रक्षा हेतु

यद्यपि कार्तिक मास में तेल नहीं लगाना चाहिए, फिर भी नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर तेल-मालिश (तैलाभ्यंग) करके स्नान करने का विधान है। ‘सन्नतकुमार संहिता’ एवं धर्मसिन्धु ग्रन्थ के अनुसार इससे नारकीय यातनाओं से रक्षा होती है। जो इस दिन सूर्योदय के बाद स्नान करता है उसके शुभकर्मों का नाश हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 18, 19, 20, 21 अंक 214

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