(श्री दत्तात्रेय जयंतीः 3 दिसम्बर 2017)
जीवन पूरा हो जाय उससे पहले जीवनदाता का अनुभव करके जीवन्मुक्त अवस्था में प्रतिष्ठित होना ही मानव-जीवन का परम फल है।
अवधूत दत्तात्रेय महाराज (जीवन्मुक्त गीता में) जीवन्मुक्त के लक्षण बताते हुए कहते हैं-
अपने शरीर की आसक्ति (देहबुद्धि) का त्याग ही वस्तुतः जीवन्मुक्ति है। शरीर का नाश होने पर शरीर से जो मुक्ति (मृत्यु) होती है वह तो कूकर (कुत्ता), शूकर (सूअर) आदि समस्त प्राणियों को भी प्राप्त ही है।
‘शिव (परमात्मा) ही सभी प्राणियों में जीवरूप से विराजमान हैं’ – इस प्रकार देखने वाला अर्थात् सर्वत्र भगवद्-दर्शन करने वाला मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है।
जिस प्रकार सूर्य समस्त ब्रह्मांड-मंडल को प्रकाशित करता रहता है, उसी प्रकार चिदानंदस्वरूप ब्रह्म समस्त प्राणियों में प्रकाशित होकर सर्वत्र व्याप्त है – इस ज्ञान से परिपूर्ण मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है।
जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलाशयों में प्रतिबिम्बित होकर अनेक रूपों में दिखाई देता है, वैसे ही यह अद्वितिय आत्मा अनेक देहों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखने पर भी एक ही है – इस आत्मज्ञान को प्राप्त मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है।
सभी प्राणियों में स्थित ब्रह्म भेद और अभेद से परे है (एक होने के कारण भेद से परे और अनेक रूपों में दिखने के कारण अभेद से परे है)। इस प्रकार अद्वितिय परम तत्त्व को सर्वत्र व्याप्त देखने वाला मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इन पंचतत्त्वों से बना यह शरीर ही क्षेत्र है तथा आकाश से परे अहंकार (मैं) ही क्षेत्रज्ञ (शरीररूपी क्षेत्र के जानने वाला) कहा जाता है। यह ‘मैं’ (अहंकार) ही समस्त कर्मों का कर्ता और कर्मफलों का भोक्ता है। (चिदानंदस्वरूप आत्मा नहीं)। – इस ज्ञान को धारण करने वाला ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है।
चिन्मयं व्यापितं सर्वमाकाशं जगदीश्वरम्।
सहितं सर्वभूतानां जीवन्मुक्तः स उच्यते।।
‘सभी प्राणियों के हृदयाकाश में व्याप्त चिन्मय परमात्म तत्त्व को जो जानता है, वही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है।’ (जीवन्मुक्त गीताः 10)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 25 अंक 299
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