हम सर्वस्व लगाकर भी इस संस्कृति का फायदा विश्व-मानव तक पहुँचायेंगे-पूज्य बापू जी

हम सर्वस्व लगाकर भी इस संस्कृति का फायदा विश्व-मानव तक पहुँचायेंगे-पूज्य बापू जी


सनातन धर्म की स्थापना किन्हीं ऋषि-मुनि या पीर-पैगम्बर ने नहीं की बल्कि श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ सनातन धर्म में प्रकट हुई हैं। सनातन धर्म तो उनके पूर्व भी था।

यह धर्म कहता हैः सङ्गच्छद्वं…. हम सब कदम-से-कदम मिलाकर चलें। सं वदध्वं…. हम दिल से दिल, विचार से विचार मिलाकर चलें। अगर हमारे विचार नहीं मिलते हैं तो हमें स्वतंत्र विचार रखने का अधिकार  है, सामने वाले को भी है। क्यों लड़ मरें, क्यों खप मरें ? परस्परदेवो भव। तुममें मुझमें जो चैतन्य देव है, उसके नाते हमारा मिलना जुलना हो और उसी में हम सभी विश्रांति पायें।

गीता उपनिषदों से निकला अमृत है और उपनिषदें वेदों के उभरा अमृत है। इसलिए हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी – कोई भी गीता को तटस्थता से पढ़ता है तो सिर-आँखों लगाता है, चाहे महात्मा थोरो हो, चाहे अमेरिका का तत्त्वचिंतक एमर्सन हो, जिन्होंने भी गीता, उपनिषदों का अध्ययन किया है उन्होंने भारतीय संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से स्नेह जगत में कोई नहीं पराया है।।

हाँ, फिर भी पराये दिखते हैं। गंगा का कोई घाट ऋषिकेश का है तो कोई हरिद्वार का है… घाट भिन्न-भिन्न हैं, गंगा तो वही की वही। सागर के किनारे भिन्न भिन्न हैं, सागर वही का वही। जैसे सागर में सतह पर लहरें, बुलबुले भिन्न भिन्न होते हुए भी गहराई में केवल शांत जल है, ऐसे ही सबके मन की तरंगें, भाव और मान्यताएँ भिन्न भिन्न हैं पर गहराई में केवल शांत, सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा है। उसमें विश्रांति पाना ही आगे बढ़ना है।

समाज आत्मज्ञान से जितना दूर जाता है उतना ही कलह, अशांति, संघर्ष और आपसी वैमनस्य बढ़ता जाता है, जिससे शक्तियों का ह्रास होता है। सजातीय में समझौता होने पर विजातीय पर विजय पाने का सामर्थ्य जुटता है। विजातीय से धर्मयुक्त व्यवहार करने से प्रकृति कि सिद्धियों पर आसक्त न होकर प्रकृति के मूल के प्रति प्रेम करने से परब्रह्म-परमात्मा प्रकट होता है और जीवात्मा परमात्मा का साक्षात्कार करके परब्रह्ममय हो जाता है।

सनातन भारतीय संस्कृति संसार में सत्य की, परमात्मा की राह दिखाने वाली संस्कृति है। हमारे देश की संस्कृति या इष्टदेव के लिए कोई कुछ बोल दे और हम ‘हीं हीं’…. कर दें, चुप रहें….. नहीं ! हमारी अपनी जहाँ तक योग्यता है वहाँ तक पूरा तन-मन, जीवन को लगाकर भी इस संस्कृति की महानता का विश्व मानव को फायदा मिले ऐसा हमें यत्न करना चाहिए और हम करेंगे। ॐ…ॐ….ॐ…..

सबका मंगल सबका भला।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 11 अंक 300

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