इनका ऋण नहीं चुका सकते – पूज्य बापू जी

इनका ऋण नहीं चुका सकते – पूज्य बापू जी


एक ऐसी चीज है जिसका जितना उपकार मानें उतना कम है। वह बड़े-में-बड़ी चीज है दुःख, विघ्न और बाधा। इनका बड़ा उपकार है। हम इन विघ्न-बाधाओं का ऋण नहीं चुका सकते। भगवान की और दुःख की बड़ी कृपा है। माँ बाप की कृपा है तो माँ-बाप का हम श्राद्ध करते हैं, तर्पण करते हैं लेकिन इस बेचारे दुःख देवता का तो हम श्राद्ध भी नहीं करते, तर्पण भी नहीं करते क्योंकि यह बेचारा आता है, मर जाता है, रहता नहीं है। माँ-बाप का तो आत्मा मरने के बाद भी रहता है। यह बेचारा मरता है तो फिर रहता ही नहीं। इसका तो श्राद्ध भी नहीं करते।
ये दुःख आ-आकर मिटते हैं बेचारे ! हमें सीख दे जाते हैं, संयम दे जाते हैं। दुःख, विघ्न, बाधाएँ हमारा इतना भला करते हैं, जितना माँ-बाप भी नहीं कर सकते। जो लोग दुःखों से डरते हैं, वे जीना नहीं जानते। दुःख डराने के लिए नहीं आते हैं, आपके विकास के लिए आते हैं और सुख विकारी बनाने के लिए नहीं आते, आपको उदार बनाने के लिए आते हैं।
ऐसा कोई महापुरुष या प्रसिद्ध व्यक्ति दिखा दो, जिसके जीवन में दुःख या विघ्न-बाधा न आये हों और महान बन गया हो। इनका तो बहुत उपकार मानना चाहिए लेकिन हम क्या करते हैं, विघ्न-बाधाओं को ही कोसते हैं। जो हमारे हितैषी हैं उनको कोसते हैं इसलिए हम कोसे जाते हैं। क्रांतिकारी वचन हैं, बात माननी पड़ेगी।
दुःख का उपकार मानना चाहिए क्योंकि यह नई सूझबूझ देता है। मौत आयी तो नया चोला देगी। हम क्या करते हैं, दुःख से भी डरते हैं, मौत से भी डरते हैं तो दुःख और मौत बरकरार रहते हैं। अगर हम इनका उपयोग करें तो दुःख और मौत सदा के लिए भाग जायेंगे। मेरे पास कई दुःख भेजे जाते हैं, कई आते हैं लेकिन टिकते ही नहीं बेचारे। जो दुःख और मौत से प्रभावित होते हैं उनके पास ये बार-बार आते हैं। सुख का सदुपयोग करें तो सुख भाग जायेगा और परमानंद प्रकट हो जायेगा। जिसके ऊपर लाख-लाख सुख न्योछावर कर दें ऐसा आत्मा-परमात्मा का आनंद प्रकट होगा। जो सुख का लालच करता है वह दुःख को बुलाता है और जो दुःख से डरता है वह दुःख को स्थायी करता है। दुःख से डरो नहीं, सुख का लालच न करो। सुख और दुःख का उपयोग करने वाले हो जाओ तो आपको परमात्मप्राप्ति सुलभ हो जायेगी।
सुख भी एक पायदान है, दुःख भी पायदान है, वे तो पसार होते हैं। हवाई अड्डे पर जो सीढ़ियाँ होती हैं वे अपने-आप चलती हैं, उन पर आप भी चलो और सीढ़ियाँ भी चलें तो आपको जल्दी पहुँचा देती हैं। ऐसे ही ये सुख-दुःख आकर आपको यात्रा कराते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।
‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’ (गीताः 6.32)
सुखद अवस्था आये तो चिपके नहीं। आयी है तो चली जायेगी। दुःखद अवस्था आयी है, उसे सच्चा न मानें, सावधानीपूर्वक उसका फायदा लें।
सुख बाँटने की चीज है। मान और सुख को भोगने की चीज बना देती है बेवकूफी। मान का भोगी बनेगा तो अपमान उसे दुःख देगा। सुख का भोगी बनेगा तो दुःख बिना बुलाये आयेगा। सुख को भोगो मत, उपयोग करो। जो एक दूसरे के शरीर को भोगते हैं वे मित्र के रूप में एक दूसरे के गहरे शत्रु हैं।
हमको तो दुःख का आदर करना चाहिए। दुःख का उपकार मानना चाहिए। बचपन में जब माँ-बाप जबरदस्ती विद्यालय ले जाते हैं, तब बालक दुःखी होता है लेकिन वह दुःख नहीं सहे तो बाद में वह विद्वान भी नहीं हो सकता। ऐसा कोई मनुष्य धरती पर नहीं जिसका दुःख के बिना विकास हुआ हो। दुःख का तो खूब-खूब धन्यवाद करना चाहिए और यह दुःख दिखता दुःख है लेकिन अंदर से सावधानी, सुख और विवेक से भरा है।
मन की कल्पना है परेशानी
भगवान ने कितने अनुदान दिये, आ हा !… जरा सोचते हैं तो मन विश्रांति में चला जाता है। जरा सा कुछ होता है तो लोग बोलते हैं, ‘मैं तो दुःखी हूँ, मैं तो परेशान हूँ।’ वह मूर्ख है, निगुरा है, अभागा है। गुरु को मानते हुए भी गुरु का अपमान कर रहा है। तेरा गुरु है और तू बोलता है, ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ तो तू गुरु का अपमान करता है, मानवता का अपमान करता है। जो भी बोलता है, ‘मैं परेशान हूँ, मैं तो बहुत दुःखी हूँ’ समझ लेना उसके भाग्य का वह शत्रु है। यह अभागे लोग सोचते हैं, समझदार लोग ऐसा कभी नहीं सोचते हैं। जो ऐसा सोचता है उसका मन परेशानी बनाता रहेगा और परेशानी में गहरा उतरता जायेगा। जैसे हाथी दलदल में फँसता है और ज्यों ही निकलना चाहता है त्यों और गहरा उतरता जाता है। ऐसे ही दुःख या परेशानी आयी और ‘मैं दुःखी हूँ, परेशान हूँ’ ऐसा सोचा तो समझो दुःख और परेशानी की दलदल में गहरा जा रहा है। वह अभागा है जो अपने भाग्य को कोसता है। ‘मैं दुःखी नहीं, मैं परेशान नहीं हूँ। दुःखी है तो मन है, परेशानी है तो मन को है। वास्तव में मन की कल्पना है परेशानी।’ – ऐसा सोचो, यह तो विकास का मूल है, वाह प्रभु ! वाह !! मेरे दाता !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 25, अंक 273
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