विद्यार्थियों के लिए सृजनात्मक दिशा

विद्यार्थियों के लिए सृजनात्मक दिशा


हमारे शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है मस्तिष्क। इसमें दो महत्त्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं – पीनियल ग्रंथी तथा पीयूष ग्रंथि।

पीनियल ग्रंथी भ्रू-मध्य (दोनों भौहों के बीच जहाँ तक तिलक किया जाता है) में अवस्थित होती है। योग में इस ग्रंथि का संबंध आज्ञाचक्र से है। यह ग्रंथि बच्चों में बहुत क्रियाशील होती है किंतु 8-9 वर्ष की उम्र के बाद इसका ह्रास प्रारम्भ हो जाता है और पीयूष ग्रंथि अधिक सक्रिय हो जाती है। इससे बच्चों के मनोभाव तीव्र हो जाते हैं। यही कारण है जिससे कई बच्चे भावनात्मक रूप से असंतुलित हो जाते हैं और किशोरावस्था में या किशोरावस्था प्राप्त होते ही व्याकुल हो जाते हैं तथा न करने जैसे काम कर बैठते हैं। पीनियल ग्रंथि के विकास तथा उसके क्षय में विलम्ब हेतु व पीयूष ग्रंथि के नियंत्रण हेतु 7-8 वर्ष की उम्र से बालकों में भगवन्नाम-जप, कीर्तन, मुद्राएँ, आज्ञाचक्र पर ध्यान आदि के अभ्यास के संस्कार डालना आवश्यक है। इनसे होने वाले लाभ इस प्रकार हैं

ज्ञानमुद्राः हमारे दोनों अँगूठों के अग्रभाग में मस्तिष्क, पीयूष ग्रंथि और पीनियल ग्रंथि से संबंधित तीन मुख्य बिंदु हैं। इन बिंदुओं पर दबाव डाला जाय तो मस्तिष्क में चुम्बकीय प्रवाह बहने लगता है, जो कि मस्तिष्क तथा पीनियल ग्रंथि को अधिक क्रियाशील बनाता है। इससे स्मरणशक्ति, एकाग्रता व विचारशक्ति का विकास होता है। जब हम ज्ञानमुद्रा में बैठते हैं तब  अँगूठे के इसी भाग पर तर्जनी का दबाव पड़ता है और उपर्युक्त सभी लाभ हमें सहज में ही मिल जाते हैं।

जपः माला पर भगवन्नाम जप करने में अँगूठे और अनामिका से माला पकड़कर मध्यमा से घुमाने पर हर मनके का घर्षण उन्हीं बिंदुओं पर होता है।

कीर्तनः कीर्तन में दोनों हाथों से ताली बजाने पर हाथों के सभी एक्यूप्रेशर बिंदुओं पर दबाव पड़ता है और हमारे शरीर के समस्त अवयव बैटरी की तरह ऊर्जा सम्पन्न (रिचार्ज) होकर क्रियाशील हो उठते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियाँ भी ठीक से कार्य करने लगती हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ जाती है तथा रोग होने की सम्भावना कम हो जाती है। बालकों द्वारा एक साथ मिलकर प्रभु-वंदन और संकीर्तन करने में एक स्वर से उठी हुई तुमुल ध्वनियाँ वातावरण में पवित्र लहरें उत्पन्न करने में समर्थ होती हैं तथा इस समय मन ध्वनि पर एकाग्र होता है, जिससे स्मरणशक्ति तथा श्रवणशक्ति विकसित होती है। इसीलिए विद्यालयों में सम्मिलित भगवत्प्रार्थना को महत्त्वपूर्ण माना गया है।

आज्ञाचक्र पर ध्यानः ज्ञानमुद्रा में पद्मासन या सुखासन में बैठकर आज्ञाचक्र पर अपने इष्टदेव अथवा गुरूदेव का ध्यान करने का भी यही महत्त्व है। ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः – एकलव्य की सफलता का यह रहस्य सुप्रसिद्ध ही है। एकाग्रता अथवा ध्यान मन के उपद्रवों तथा चंचलताओं को समाप्त करने और उसकी शक्तियों को सृजनात्मक दिशा प्रदान करने में बड़ा सहायक होता है। ध्यान के द्वारा बुद्धि गुणांक(I.Q.) का चमत्कारिक ढंग से विकास होता है, यह प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक तथ्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 21, अंक 215

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