शिशिर ऋतु में विशेष लाभदायीः तिल

शिशिर ऋतु में विशेष लाभदायीः तिल


(शिशिर ऋतुः 21 दिसम्बर से 17 फरवरी तक)

शिशिर ऋतु में वातावरण में शीतलता व रूक्षता बढ़ जाती है। आगे आने वाली वसंत व ग्रीष्म ऋतुओं में यह रूक्षता क्रमशः तीव्र व तीव्रतम हो जाती है। यह सूर्य के उत्तरायण का काल है इसमें शरीर का बल धीरे धीरे घटता जाता है।

तिल अपनी स्निग्धता से शरीर के सभी अवयवों को मुलायम रखता है, शरीर को गर्मी  बल प्रदान करता है। अतः भारतीय संस्कृति में उत्तरायण के पर्व पर तिल के सेवन का विधान है।

तिल सभी अंग-प्रत्यंगों विशेषतः अस्थि, संधि, त्वचा, केश व दाँतों को मजबूत बनाता है। यह मेध्य अर्थात बुद्धिवर्धक भी है। सफेद, लाल  काले तिल इन तीन प्रकार के तिलों में काले तिल वीर्यवर्धक व सर्वोत्तम हैं। सभी प्रकार के तेलों में काले तिल का तेल श्रेष्ठ है। यह उत्तम वायुशामक है। इससे की गयी मालिश मजबूती व स्फूर्ति लाती है। शिशिर ऋतु में मालिश विशेष लाभदायी है।

तिल में कैल्शियम व विटामिन ‘ए’ प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। बादाम की अपेक्षा तिल में छः गुना से भी अधिक कैल्शियम है। यह हड्डियों को मजबूत बनाता है। तिल के छिलकों में निहित ऑक्जेलिक एसिड इस कैल्शियम के अवशोषण (absorption) में बाधा उत्पन्न करता है। अतः छिलके हटाकर तिल का उपयोग करने से लाभ अधिक होते हैं। तिल को रात भर दूध में भिगोकर सुबह रगड़ने से छिलके उतर जाते हैं। फिर धोकर छाया में सुखाकर रखें। इसे आयुर्वेद ने ‘लुंचित तिल’ कहा है। लुंचित तिल पचने में हलके होते हैं, अधिक गर्मी भी नहीं करते।

श्रेष्ठ आयुर्वेदाचार्यों श्री चरक, वाग्भट, चक्रदत्त आदि के द्वारा निर्दिष्ट तिल के प्रयोगः

काले तिल चबाकर खाने व शीतल जल पीने से शरीर की पर्याप्त पुष्टि हो जाती है। दाँत मृत्युपर्यन्त दृढ़ बने रहते हैं।

एक भाग सोंठ चूर्ण में दस भाग तिल का चूर्ण मिलाकर 5 से 10 ग्राम मिश्रण सुबह शाम लेने से जोड़ों के दर्द में राहत मिलती है।

तिल का तेल पीने से अति स्थूल (मोटे) व्यक्तियों का वजन घटने लगता है व कृश (पतले) व्यक्तियों का वजन बढ़ने लगता है। यह कार्य तेल के द्वारा सप्तधातुओं के प्राकृत निर्माण से होता है।

तैलपान विधिः सुबह 20 से 50 मि.ली. गुनगुना तेल पीकर,गुनगुना पानी पियें। बाद में जब तक खुलकर भूख न लगे तब तक कुछ न खायें।

अत्यन्त प्यास लगती हो तो तिल की खली को सिरके में पीसकर समग्र शरीर पर लेप करें।

वार्धक्यजन्य हड्डियों की कमजोरी  उससे होने वाले दर्द में दर्दवाले स्थान पर 15 मिनट तक तिल के तेल की धारा करें।

पैर में फटने या सूई चुभने जैसी पीड़ा हो तो तिल के तेल से मालिश कर रात को गर्म पानी से सेंक करें।

पेट मे वायु के कारण दर्द हो रहा हो तो तिल को पीसकर, गोला बनाकर पेट पर घुमायें।

वातजनित रोगों में तिल में पुराना गुड़ मिलाकर खायें।

एक भाग गोखरू चूर्ण में दस भाग तिल का चूर्ण मिलाके 5 से 10 ग्राम मिश्रण बकरी के दूध में उबाल कर, मिश्री मिला के पीने से षढंता∕नपुंसकता (Impotency) नष्ट होती है।

काले तिल के चूर्ण में मक्खन मिलाकर खाने से रक्तार्श (खूनी बवासीर) नष्ट हो जाती है।

तिल की मात्राः 10 से 25 ग्राम।

विशेषः देश, काल, ऋतु, प्रकृति, आयु आदि के अनुसार मात्रा बदलती है। उष्ण प्रकृति के व्यक्ति, गर्भिणी स्त्रियाँ तिल का सेवन अल्प मात्रा में करें। अधिक मासिक-स्राव में तिल न खायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 29, अंक 217

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *