ग्रीष्म में सूर्य की प्रखर किरणें शरीर का स्निग्ध व जलीय अंश को सोखकर उसे दुर्बल बना देती हैं। संतरा अपने शीतल, मधुर व शीघ्र बलवर्धक गुणों से इसकी पूर्ति कर देता है। सेवन के बाद तुरंत ताजगी, शक्ति व स्फूर्ति देना इसका प्रमुख गुण है। यह अनेक पौष्टिक गुणों से भरपूर है। इसमें विटामिन ‘ए’ व ‘बी’ मध्यम मात्रा में व ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह आँतों को साफ करने वाला व वायुशामक है। हृदयरोग, नेत्ररोग, वातविकार, पेट की गड़बड़ियाँ, खून की कमी, आंतरिक गर्मी, पित्तजन्य विकार, दुर्बलता व कुपोषण के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों में संतरा लाभदायी है।
अत्यंत कमजोर व्यक्ति को संतरे का रस थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दिन में 2-3 बार देने से शरीर पुष्ट होने लगता है। बच्चों के सूखा रोग में जब शरीर का विकास रुक जाता है तब संतरे का रस पिलाने से उसे नवजीवन प्राप्त होता है।
सुबह दो संतरे के रस में थोड़ा ताजा ठंडा पानी मिलाकर नियमित लेने से पुराना से पुराना कब्ज दूर हो जाता है।
संतरे के रस में थोड़ा सा काला नमक व सोंठ मिलाकर लेने से अजीर्ण, अफरा, अग्निमांद्य आदि पेट की गड़बड़ियों में राहत मिलती है।
गर्भवती महिलाओं को दोपहर के समय संतरा खिलाने से उनकी शारीरिक शक्ति बनी रहती है तथा बालक स्वस्थ व सुंदर होता है। इसके सेवन से सगर्भावस्था में जी मिचलाना, उलटी आदि शिकायतें भी दूर होती हैं।
पायरिया (दाँत से खून, मवाद आना) में संतरे का सेवन व उसकी छाल के चूर्ण का मंजन लाभदायी है।
संतरे के ताजे छिलकों को पीसकर लेप करने से मुँहासे व चेहरे के दाग मिट जाते हैं, त्वचा का रंग निखरता है।
संतरे का शरबतः पाव किलो संतरे के रस में एक किलो मिश्री चाशनी बनाकर काँच की बोतल में रखें। ताजे संतरे न मिलने पर इसका उपयोग करें।
सावधानीः कफजन्य विकार, त्वचारोग, सूजन व जोड़ों के दर्द में तथा भोजन के तुरंत बाद संतरे का सेवन न करें। संतरा खट्टा न हो, मीठा हो इसकी सावधानी रखें।
एक दिव्य औषधिः वटवृक्ष
भारतीय शास्त्रों में वटवृक्ष को ‘गुणों की खान’ कहा गया है। वटवृक्ष मानव-जीवन कि लिए अत्यंत कल्याणकारी है। यदि व्यक्ति इसके पत्ते, जड़, छाल एवं दूध आदि का सेवन करता है तो रोग उससे कोसों दूर रहते हैं। वट के विभिन्न भागों का विशेष महत्त्व हैः
दूधः स्वप्नदोष आदि रोगों में बड़ का दूध अत्यन्त लाभकारी है। सूर्योदयक से पूर्व 2-3 बताशों में 3-3 बूँद बड़ का दूध टपकाकर उन्हें खा जायें। प्रतिदिन 1-1 दिन बूँद मात्रा बढ़ाते जायें। 8-10 दिन के बाद मात्रा कम करते-करते अपनी शुरूवाली मात्रा पर आ जायें। यह प्रयोग कम से कम 40 दिन अवश्य करें। बवासीर, धातु-दौर्बल्य, शीघ्र पतन, प्रमेह, स्वप्नदोष आदि रोगों के लिए यह अत्यंत लाभकारी है। इससे हृदय व मस्तिष्क को शक्ति मिलती है तथा पेशाब की रूकावट में आराम होता है। यह प्रयोग बल-वीर्यवर्धक व पौष्टिक है। इसे किसी भी मौसम में किया जा सकता है। इसे सुबह-शाम करने से अत्यधिक मासिक स्राव तथा खूनी बवासीर में रक्तस्राव बंद हो जाता है।
दाँतों में इसका दूध लगाने से दाँत का दर्द समाप्त हो जाता है। हाथ पैर में बिवाइयाँ फटी हों तो उसमें बरगद का दूध लगाने से ठीक हो जाती हैं। चोट-मोच और गठिया रोग में सूजन पर इसके दूध का लेप करने से आराम मिलता है। यह सूजन को बढ़ने से रोकता है। दूध को नाभि में भरकर थोड़ी देर लेटने से अतिसार में आराम होता है। शरीर में कहीं गठान हो तो प्रारम्भिक स्थिति में तो गाँठ बैठ जाती है और बढ़ी हुई स्थिति में पककर फूट जाती है।
10 बूँद बरगद का दूध, लहसुन का रस आधा चम्मच तथा तुलसी का रस आधा चम्मच इन तीनों को मिलाकर चाटने से निम्न रक्तचाप में आराम मिलता है।
बल-वीर्य की वृद्धिः कच्चे फल छाया में सुखा के चूर्ण बना लें। बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रख लें। 10 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम दूध के साथ 40 दिन तक सेवन करने से बल-वीर्य और स्तम्भन (वीर्यस्राव को रोकने की) शक्ति में भारी वृद्धि होती है।
गर्भस्थापन के लिएः ऋतुकाल में यदि वन्ध्या स्त्री पुष्य नक्षत्र में लाकर रखे हुए वटशुंग (बड़ के कोंपलों) के चूर्ण को जल के साथ सेवन करे तो उसे अवश्य गर्भधारण होता है। – आयुर्वेदाचार्य शोढल
पक्षाघात (लकवा)- बरगद का 5 ग्राम दूध महानारायण तेल में मिलाकर मालिश करें।
बड़ की छाल और काली मिर्च दोनों 100-100 ग्राम पीसकर 250 ग्राम सरसों के तेल में पकायें फिर लकवाग्रस्त अंग पर लेप करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2011, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 219
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