तुम हो अपने चरित्र के विधाता !

तुम हो अपने चरित्र के विधाता !


(ब्रह्मलीन स्वामी श्री शिवानंदजी सरस्वती)

यदि अपने जीवन में सफलता की कामना है, आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ने की अभिलाषा है और आत्मज्ञान प्राप्त करने की लगन है तो निष्कलंक चरित्र का उपार्जन करो। मनुष्य जीवन का सारांश है – चरित्र। मनुष्य का चरित्रमात्र ही सदा जीवित रहता है और मनुष्य को जीवित रखता है।

मनुष्य का शरीरांत होने पर भी उसका चरित्र बना रहता है, उसके विचार भी बने रहते हैं। चरित्र ही मनुष्य में वास्तविक शक्ति और शौर्य का स्फुरण भरता है। चरित्र शक्ति का ही पर्याय है। चरित्र का अर्जन नहीं किया गया तो ज्ञान का अर्जन भी नहीं किया जा सकता। चरित्रहीन व्यक्ति और जीवनहीन मुर्दे में कुछ भी अंतर नहीं है। समाज के लिए वह घृणास्पद है, समाज के लिए वह कल्मषक है।

अपने अलौकिक चरित्र के  कारण ही आज अनेकों शताब्दियों के बीत जाने पर भी आद्य शंकराचार्य जी तथा अन्य ऋषि हमें याद आते हैं। अपने चरित्र के कारण ही वे जनता के विचारों को प्रभावित कर सके और चरित्र-शक्ति के आधार पर ही जनसमाज की विचारधाराओं का निर्माण भी कर पाये।

चरित्र और धन की तुलना हो ही नहीं सकती। कहाँ चरित्र एक शक्तिशाली उपकरण, सुरभिपूर्ण सुंदर पुष्प और कहाँ धन एक चंचल वस्तु और कलह का आदिमूल। महान विचारवाले तथा उज्जवल चरित्रशाली व्यक्ति का ओज प्रभावशाली होता है। व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। कितना ही निपुण गायक क्यों न हो और कवि या वैज्ञानिक ही क्यों न हो, पर चरित्र न हुआ तो समाज में उसके कलिए सम्मान्य स्थान का सदा अभाव ही रहता है। जनसमाज उसकी अवहेलना ही करेगा।

‘चरित्र’ व्यापक शब्द है। साधारणतः चरित्र का अर्थ होता है नैतिक सदाचार। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति चरित्रवान है तो हमारा अर्थ होता है कि वह नैतिक सदाचीरशील है। चरित्र का व्यापक अर्थ लिया जाय तो वह व्यक्ति की दयालुता, कृपालुता, सत्यप्रियता, उदारता, क्षमाशीलता और सहिष्णुता का द्योतक होता है। चरित्रवान व्यक्ति में सभी दैवी गुणों का समावेश रहता है। नैतिक दृष्टिकोण से तो वह सिद्ध होगा ही, साथ-साथ दैवी गुणों का विकास भी उसमें पूर्णतया होना चाहिए।

जानबूझकर असत्य भाषण करना, स्वार्थी और लोलुप होना, दूसरों के दिल को चोट पहुँचाना – इन सबसे मनुष्य के दुश्चरित्र का बोध होता है। अपने चरित्र का विकास करने के लिए व्यक्ति को सर्वांगीण उन्नति करनी होगी। चरित्र के विकास के लिए गीता के 12वें और 16वें अध्याय में बतलाये गये दैवी गुणों की साधना करनी होगी, तभी वह सिद्ध व्यक्ति बन सकता है। ऐसे ही व्यक्ति को निष्कलंक चरित्रशील कहा जाता है।

निष्कलंक चरित्र का निर्माण करने के लिए ये गुण उपार्जित किये जाने चाहिएः

नम्रता, निष्कपटता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुद्धि(पवित्रता), सत्यशीलता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निरहंकारिता, जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि में दुःख एवं दोषों का बार-बार विचार करना, निर्भयता, स्वच्छता, दानशीलता, शास्त्रवादिता, तपस्या, सरल व्यवहारशीलता, क्रोधहीनता, त्यागपरायणता, शांति, कूटनीति का अभाव, जीवदया, अलोलुपता, सौजन्य, सरल जीवन से प्रेम, क्षुद्र स्वभाव का दमन, वीर्य, शौर्य और दम तथा घृणा, प्रतिहिंसा का अभाव।

कार्य करते रहने पर एक प्रकार की आदत उदय होती है। अच्छी आदतों का बीज बो देने से चरित्र का उदय होता है। चरित्र का बीज बो देने से भाग्य का उदय होता है। चित्त में विचार, अनुभव और कर्म – इनके संस्कार मुद्रित हो जाते हैं। व्यक्ति के मर जाने पर भी ये विचार जीवित और सक्रिय रहते हैं। इनके ही कारण मनुष्य बार-बार जन्म लेता है। विचार और कर्मजन्य संस्कार मिलकर आदत का विकास करते हैं। अच्छी आदतों का संगठन होने से चरित्र का विकास होता है। व्यक्ति ही इन विचारों और आदतों का विधाता है। आज जिस अवस्था में व्यक्ति को देखते हो, वह भूतकाल का ही परिणाम है। यह आदत का उत्तररूप है। प्रत्येक व्यक्ति विचारों और कार्यों पर नियंत्रण स्थापित कर आदतों का मनोनुकूल निर्माण कर सकता है।

दुश्चरित्र व्यक्ति सदा के लिए दुश्चरित्र ही रहता है, यह उचित तर्क नहीं है। उसे संतों के सम्पर्क में रहने का अवसर दो। उसके जीवन में परिवर्तन खिल उठेगा, उसमें दिव्य गुण जाग उठेंगे। जगाई और मधाई, जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु के शिष्य नित्यानंद जी पर पत्थर मारे थे, बाद में चैतन्यदेव एवं नित्यानंद जी की कृपा से महान भक्त बन गये। इन व्यक्तियों के मानसिक रूप, आदर्श और विचारों में समूल परिवर्तन हो गया था। इनकी आदतें सर्वथा बदल गयी थीं।

अपने बुरे चरित्र और विचारों को बदलने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में सुरक्षित है, वर्तमान है। यदि बुरे विचारों और बुरी आदतों के बदले अच्छे विचारों और अच्छी आदतों का अभ्यास कराया जाय तो व्यक्ति को दिव्य गुणों से परिपूर्ण किया जा सकता है। दुश्चरित्र सच्चरित्र ही क्या, संत भी बन सकता है।

व्यक्ति की आदतों, गुणों और आचार (चरित्र) को प्रतिपक्ष-भावना की विधि से बदला जा सकता है। भय और असत्य को जीतने के लिए प्रतिपक्षीय भावना है-साहस और सत्यवादिता। ब्रह्मचर्य और संतोष का विचार करो तो काम-वासना और लोभ का पराभव किया जा सकेगा। प्रतिपक्षीय भावना द्वारा अपनी दुश्चरित्रता का दमन करना चाहिए, यह वैज्ञानिक विधान है।

संकल्प, रूचि, ध्यान और श्रद्धा के द्वारा स्वभाव-परिवर्तन या चरित्र-निर्माण किया जा सकता है। मनुष्य अपनी पुरानी क्षुद्र आदतों को त्यागकर नवीन सुंदर आदतों को ग्रहण कर ले। त्याग की भावना से किया गया कर्मयोग का अभ्यास भी मन में सुंदर आदतों का प्रतिष्ठापन करता है। भक्ति, उपासना और विचार के अभ्यास से भी पुरानी आदतों को हटाया जा सकता है।

यदि तुम्हें चरित्र-निर्माण में कठिनाई मालूम होती है तो संतों और महात्माओं के सम्पर्क में रहो। महात्माओं के सम्पर्क में रहने से उनकी आध्यात्मिक विचारधारा तुम्हारे जीवन में अदभुत परिवर्तन का श्रीगणेष करेगी।

अपने चरित्र का निर्माण करो। चरित्र-निर्माण से ही जीवन में सच्ची सफलता मिल सकती है। प्रतिदिन अपनी बुरी आदतों को हटाने का यत्न करते रहो। प्रतिदिन सत्कर्म करने का अभ्यास करो। सच्चरित्रता मनुष्य जीवन का प्राण है, उसके बिना मनुष्य मृतक के समान है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 220

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