जून का महीना था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। एक तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न, मिलनसार एवं व्यवहारकुशल पढ़े-लिखे युवक को खूब भटकने पर भी नौकरी नहीं मिल रही थी। तपती धूप में वह नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। भटकते-भटकते वह एक ऐसे मैदान से गुजरा जहाँ अपने में मस्त, बड़ा निश्चिंत एक वृद्ध घसियारा प्रभु के भजन गाता हुआ घास काट रहा था। वह युवक उस घसियारे के समीप गया और बोलाः “बाबा ! इस मामूली घास को बेचकर तुम अपने परिवार का निर्वाह कैसे करते होगे ?”
घसियारा थोड़ी देर चुप रहा और फिर मुस्कराते हुए बोलाः “बेटा ! भले मैं निर्धन हूँ लेकिन बड़ी इच्छा नहीं पालता। जो मिलता है उसी में संतोष कर लेता हूँ।”
“बाबा ! तुम्हें अपनी गरीबी का क्षोभ नहीं होता ?”
“बेटा ! यदि मैं पढ़-लिखकर ऊँची आकांक्षावाला व्यक्ति होता तो सम्भवतः क्षुब्ध ही रहता। तुम तो काफी पढ़े-लिखे लगते हो, फिर भला मैं तुम्हें क्यों समझाऊँ ! हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि धन ही सब कुछ नहीं होता। संतोष धन से बढ़कर कोई धन नहीं है।”
वृद्ध घसियारा देखने में तो साधारण लगता था पर उसके उत्तर ने युवक के हृदय को झकझोर दिया। वह युवक कुछ देर तो अवाक्-सा उस घसियारे की ओर देखता रहा, फिर बोला, “बाबा ! धन के अभाव में इच्छा होते हुए भी तुम कभी परोपकार कर सकोगे क्या ?” वह वृद्ध घसियारा तपाक-से बोलाः “बेटा ! अच्छे एवं सच्चे व्यक्ति को परोपकार के लिए धन का अभाव कभी नहीं खटकता। मैं भीख माँगकर भी कुआँ खुदवाना चाहता हूँ। तपती दोपहरी में जब लोग ठंडा पानी पीकर तृप्त होंगे तो मेरे हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहेगा। मैं इस गरीबी में भी बहुत ही मजे में हूँ।”
यह सुनकर उस पढ़े-लिखे युवक का सिर श्रद्धा से झुक गया। वह विचारों में गहरा डूब गया और सोचने लगा, ‘जिनका कहीं अंत नहीं, जिसमें कहीं तृप्ति नहीं, विश्रांति नहीं, ऐसी इच्छाओं-लालसाओं की आग में मैं बाहर-भीतर दोनों ओर से तप रहा हूँ और यह घसियारा रूखी रोटी खाकर भी मस्त है। अपनी पढ़ाई का अहंकाल लेकर इस तपती दोपहरी में मैं द्वार-द्वार की धूल फाँक रहा हूँ और यह वृद्ध घसियारा अनपढ़ होकर भी मुझ पढ़े को जीवन निर्माण का पाठ दे रहा है। पढ़-लिखकर मैं तो अपने में ही सिमट गया। मैंने कभी दूसरों की भलाई की चिंता ही नहीं की। मुझसे तो यह अनपढ़ घसियारा ही अच्छा है।’ उस वृद्ध घसियारे के चंद वचनों ने उस युवक के जीवन का कायाकल्प कर दिया। उसने नौकरी का विचार त्यागकर अनपढ़ लोगों को पढ़ाना शुरु किया। छात्रों से मिली गुरुदक्षिणा से उसका जीवन चलता रहा और उसी में उसे बड़ा आनंद आता था। आगे चलकर उसने नेपाली भाषा में ‘रामायण’ की रचना की, जो आज भी नेपाल में श्रद्धा से पढ़ी जाती है। अपनी कृति से वह युवक अमर हो गया उसका नाम था – भानु भक्त।
तुम दूसरों के लिए सोचते हो तो ईश्वर स्वयं तुम्हारी सहायता करता है। इसलिए मनुष्य को ऊँची आकांक्षाओं के मोह में न पड़कर जो मिले उसी में संतोष करते हुए परोपकार में लगे रहना चाहिए। पूज्य बापू जी कहते हैं-
“आप दूसरे का मंगल करोगे तो आपका तो मंगल हो ही जायेगा क्योंकि जिसका आप मंगल करते हो उसके हृदय में बैठा हुआ दाता लुटाये बिना नहीं रहता।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 27 अंक 221
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ