गुरु साक्षात भगवान है, जो साधकों के पथ प्रदर्शन के लिए साकार रूप में प्रकट होते हैं। गुरु का दर्शन भगवद् दर्शन है। गुरु का भगवान के साथ योग होता है तथा वे अन्य लोगों में भक्ति अनुप्राणित करते हैं। उनकी उपस्थितिमात्र सबके लिए पावनकारी है।
जिस प्रकार एक दीपक को जलाने के लिए आपको दूसरे प्रज्वलित दीपक की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार एक प्रबुद्ध आत्मा दूसरी आत्मा को प्रबुद्ध कर सकती है।
सभी महापुरुषों के गुरु थे। सभी ऋषियों मुनियों, पैगम्बरों, जगद्गुरुओं, अवतारों, महापुरुषों के चाहे वे कितने ही महान क्यों न रहे हों, अपने निजी गुरु थे। श्वेतकेतु ने उद्दालक से, मैत्रेयी ने याज्ञवाल्क्य से भृगु ने वरूण से, शुकदेव जी ने सनत्कुमार से, नचिकेता ने यम से, इन्द्र ने प्रजापति से सत्य के स्वरूप की शिक्षा प्राप्त की तथा अन्य अनेक लोग ज्ञानीजनों के पास विनम्रतापूर्वक गये, ब्रह्मचर्यव्रत का अति नियम निष्ठा से पालन किया, कठोर अनुशासनों की साधना की तथा उनसे ब्रह्मविद्या सीखी।
देवताओं के भी बृहस्पति गुरु हैं। दिव्य आत्माओं में महान सनत्कुमार भी गुरु दक्षिणामूर्ति के चरणों में बैठे थे।
गुरु किसे बनायें ?
यदि आप किन्हीं महात्मा के सान्निध्य में शांति पाते हैं, उनके सत्संग से अनुप्राणित होते हैं, यदि वे आपकी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं, यदि वे काम, क्रोध तथा लोभ से मुक्त है, यदि वे निःस्वार्थ, स्नेही तथा अस्मितारहित हैं तो आप उन्हें अपना गुरु बना सकते हैं। जो आपके संदेहों का निवारण कर सकते हैं, जो आपकी साधना में सहानुभतिशील हैं, जो आपकी आस्था में बाधा नहीं डालते वरन् जहाँ आप हैं वहाँ से आगे आपकी सहायता करते हैं, जिनकी उपस्थिति में आप आध्यात्मिक रूप से अपने को उत्थित अनुभव करते हैं, वे आपके गुरु हैं। यदि आपने एक बार गुरु का चयन कर लिया तो निर्विवाद रूप से उनका अनुसरण करें। भगवान गुरु के माध्यम से आपका पथ-प्रदर्शन करेंगे।
एक चिकित्सक से आपको औषधि-निर्देश तथा पथ्यापथ्य का विवेक मिलता है, दो चिकित्सकों से आपको परामर्श प्राप्त होता है और यदि तीन चिकित्सक हुए तो आपका अपना दाह-संस्कार होता है।
इसी भाँति यदि आपके अनेक गुरु होंगे तो आप किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे। क्या कारण है, यह आपको ज्ञात न होगा। एक गुरु आपसे कहेगा – ‘सोऽहम् जप करो।’ दूसरा कहेगा – ‘श्रीराम का जप करो।’ तीसरा कहेगा – अनाहत नाद को सुनो।’ आप उलझन में पड़ जायेंगे। एक गुरु से, जो श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ हों, संलग्न रहें और उनके उपदेशों का पालन करें। वहीं आपकी यात्रा पूरी होगी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 10 अंक 222
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