पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से
दिल्ली के परीक्षितपुर नामक स्थान में 25 जुलाई 1725 को चार भाइयों के बाद एक कन्या जन्मी। उसका नाम था सहजो। कन्या के पिता का नाम था हरि प्रसाद और माता का नाम था अनूपी देवी। तब बचपन में ही शादी की परम्परा थी। सहजो 11 वर्ष की उम्र में दुल्हन बनी। गहने-गाँठें, सुहाग की साड़ी आदि कुछ भी होता है सब पहनाया। दुल्हन सजी धजी है। बैंड-बाजे बज रहे हैं, विवाह के लिए दूल्हा आ रहा है। आतिशबाजी के पटाखे फूट रहे हैं। वर-कन्या को आशीर्वाद देने हेतु संत चरणदास जी महाराज को आमंत्रित किया गया था। चरणदास जी पधारे। पिता ने प्रार्थना कीः “महाराज ! हमारी कन्या को आशीर्वाद दें।”
दुल्हन पर नज़र डालते ही आत्मस्वभाव में जगह उन त्रिकालज्ञानी संत ने कहाः “अरे सहजो ! सहज में ईश्वर मिल रहा है, पति मिल रहा है, उस पति को छोड़कर तू कौन से मरने वाले पति के पीछे पड़ेगी ! तेरा जीवन तो जगत्पति के लिए है।
चलना है रहना नहीं, चलना विश्वा बीस1।
सहजो तनिक सुहाग पर, कहा गुथावै शीश।।
1 बीस बिस्वा- निःसन्देह।
इस सुहाग पर क्या सिर सजा रही है ! तनिक देर का सुहाग है। यह तो पति चला जायेगा या तो पत्नी चली जायेगी। यह सदा का सुहाग नहीं है। तू तो सदा सुहागिन होने के लिए जन्मी है। थोड़ी देर का सुहाग तेरे क्या काम आयेगा ?
जो विश्व का ईश्वर है वह तेरा आत्मा है उसको जान ले। जो सदा साथ में रहता है, वह दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं पराया नहीं।”
सहजो ने सुना और सुहाग के साधन-श्रृंगार सब उतारने शुरु कर दिये। वह बोलीः “मैं विवाह नहीं करूँगी।” उधर क्या हुआ कि आतिशबाजी के पटाखों से घोड़ी बिदकी और दूल्हे का सिर पेड़ से टकराया। दूल्हा वहीं गिरकर मर गया।
जो होनी थी संत ने पहले ही बता दी थी। क्या घटना है, क्या होना है यह जानकर पूरे खानदान को बचा लिया और कन्या को विधवा होने के कलंक से रक्षित कर दिया। चारों भाई और माँ-बाप उसी समय बाबा के शिष्य बन गये।
अगर चरणदास जी थोड़ी देर से आते और दूल्हा-दुल्हन सात फेरे फिर जाते तो सारी जिंदगी विधवा का कलंक लगता। लेकिन यह कन्या विधवा होकर नहीं जी, कुमारी की कुमारी रही। सदगुरु के मार्ग पर चली तो दुल्हन बनी सहजो परम पद को पाने वाली महायोगिनी हो गयी। सद्गुरु के लिए उसने अपना हृदय ऐसा सँजोया कि उसकी कविताएँ और लेखन पढ़ने से हृदय भर आता है। सहजो ने अपनी वाणी में कहाः
राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ।।
हरि ने जन्म दियो जग माँहिं।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं।।
सहजो भज हरि नाम कूँ, तजो जगत सूँ नेह।
अपना तो कोई है नहीं, अपनी सगी न देह।।
भगवान ने तो जन्म और मृत्यु बनायी, मुक्ति और बंधन बनाया लेकिन मेरे गुरु ने तो केवल मुक्ति बनायी। हरि ने तो जगत में जन्म दिया लेकिन गुरु ने जन्म मरण से पार कर दिया। देह भी अपनी सगी नहीं है। वह भी बेवफा हो जाती है, फिर भी जो साथ नहीं छोड़ता उसका नाम ईश्वर है।’
सहजो की वाणी पुस्तकों में छपी और लोग उसका आदर करते हैं। कई कन्याओं की जिंदगी उसने ऊँचाईयों को छूने वाली बना दी। कई महिलाओं के पाप-ताप, शोक हर के उनके अंदर भक्ति भरने वाली वह 11 साल की कन्या एक महान योगिनी हो गयी। बस एक बार संत की वाणी मिली तो दुल्हन बनी हुई सहजो महान योगिनी बन गयी। यहाँ तो चाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुस के देखेंगे। तमाशा यही है कि ईश्वर उधर लल्लू-पंजुओं की खुशामद करके मारे जा रहे हैं। हाय राम ! कब आयेगी सूझ ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 11,16 अंक 222
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