पूज्य बापू जी ज्ञानमयी अमृतवाणी
प्रयागराज में जहाँ स्वामी रामतीर्थ रहते थे उस जगह का नाम रामबाग था। एक बार वे वहाँ से स्नान करने हेतु गंगानदी गये। उस समय के कोई स्वामी अखण्डानंद जी उनके साथ थे। स्वामी रामतीर्थ स्नान करके बाहर आये तो अखण्डानंद जी ने उन्हें कौपीन दी। नदी के तट पर चलते-चलते उनके पैर कीचड़ से लथपथ हो गये। इतने में मदनमोहन मालवीय जी वहाँ आ गये। इतने सुप्रसिद्ध और कई संस्थाओं के अगुआ मालवीय जी ने अपने कीमती दुशाले स्वामी रामतीर्थ के पैर पोंछने शुरु कर दिये। अपने बड़प्पन की या लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता उन्होंने नहीं की। यह शील है।
अभिमानं सुरापानं गौरवं रौरवस्तथा।
प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत्।।
अभिमान करना यह मदिरापान करने के समान है। गौरव की इच्छा करना यह रौरव नरक में जाने के समान है। प्रतिष्ठा की परवाह करना यह सूअर की विष्ठा का संग्रह करने के समान है। इन तीनों का त्याग करके अपने सहज सच्चिदानंद स्वभाव में रहना चाहिए।
प्रतिष्ठा को जो पकड़ रखते हैं वे शील से दूर हो जाते हैं। प्रतिष्ठा की लोलुपता छोड़कर जो ईश्वर प्रीत्यर्थ कार्य करते हैं उनके अंतःकरण का निर्माण होता है। जो ईश्वर-प्रीत्यर्थ कीर्तन करते हैं उनके अंतःकरण का निर्माण होता है।
ध्यान तो सब लोग करते हैं। कोई शत्रु का ध्यान करता है, कोई रूपयों का ध्यान करता है, कोई मित्र का ध्यान करता है, कोई पति का, पत्नी का चिंतन ध्यान करता है। यह शील में नहीं गिना जाता। जो निष्काम भाव से परमात्मा का चिंतन व ध्यान करता है, उसके शील में अभिवृद्धि होती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 11 अंक 223
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ