भगवान श्रीकृष्ण के विश्वहितकारी वचनामृत
‘श्रीमद् भागवत’ के 11वें स्कन्ध के 26वें अध्याय में एक कथा आती है। परम यशस्वी सम्राट इलानंदन पुरूरवा जब कुसंग में पड़कर उर्वशी में आसक्त हो गये तो उनका तप, तेज, प्रभाव सब जाता रहा। लेकिन जब उर्वशी उन्हें छोड़कर चली गयी तो पहले की पुण्याई के प्रभाव से पुरूरवा को भगवान का स्मरण हो आया। दब उन्होंने उर्वशीलोक का परित्याग कर दिया और ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओं का संग कर अपने हृदय में ही आत्मस्वरूप से भगवान का साक्षात्कार किया व शांत भाव में स्थित हो गये।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- “उद्धव जी ! बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि पुरूरवा की भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे। संतपुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे।
संत पुरुषों का लक्ष्ण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदय में शांति का अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते है । उनमें अहंकार का लेश भी नहीं होता, फिर ममता की तो सम्भावना ही कहाँ है ! वे सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-संबंधी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते।
परम भाग्यवान उद्धव जी ! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे ! उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला कथाएँ हुआ करती है। मेरी कथाएँ मनुष्यों के लिए परम हितकर हैं। जो उनका सेवन करते हैं उनके सारे पाप-तापों को वे धो डालती है। जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला कथाओं का श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं। उद्धवजी ! मैं अनंत, अचिंत्य कल्याणमय गुण-समूहों का आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है – केवल आनंद, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है। उनकी तो बात ही क्या जिन्होंने उन संत पुरुषों की शरण ले ली ! उनकी भी कर्मजड़ता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला जिसने अग्नि भगवान का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अंधकार का दुःख हो सकता है ! जो इस घोर संसारसागर में डूब उतरा रहे हैं, उनके लिए ब्रह्मवेत्ता और शांत संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिए दृढ़ नौका। जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुःखियों का परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्य के लिए परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है, वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं, उनके लिए संतजन ही परम आश्रय हैं। जैसे सूर्य आकाश में उदय होकर लोगों को जगत तथा अपने को देखने के लिए नेत्रदान करता है, वैसे ही संतपुरुष अपने को तथा भगवान को देखने के लिए अंतर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और साधक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संत के रूप में विद्यमान हूँ।
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः। देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च।।
श्रीमद् भागवत 11.26.34
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 2 अंक 223
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