जिन्होंने भगवान के सत्स्वभाव को पाया है, चैतन्य स्वभाव को पाया है, आत्मानंद स्वभाव को पाया है, ऐसे सद्गुरुओं के नजरिये से ही हमारी मान्यताओं के जाले कटते हैं। नहीं तो शास्त्र और सामाजिक व्यवस्था, हमारे रीति-रिवाज की व्यवस्था हमको ऐसे बंधनों में बाँध देती है कि उधर से निकले तो उधर फँसे, एक से निकले तो दूसरे में फँसे। जैसे मकड़ी जाल बना देती है और जीवों को फँसा देती है, ऐसे ही पत्नी का अपना जाल है, पुत्र का अपना जाल है।
बेटा कहेगाः “पिता जी ! आपका कर्तव्य है हमें पालना, अभी मैं छोटा हूँ, पढ़-लिख लूँ फिर आप भजन करने को जाइये।”
बाप का अपना जाल है कि ‘पिता को छोड़कर कहाँ जा रहा है बेटा ? पिता की सेवा करना तुम्हारा कर्तव्य है।’ सब अपना-अपना उल्लू सीधा करने के लिए परिवारवालों को उल्लू बनाकर, नोचकर छोड़ देंगे। नेता बोलेगाः “तुम मेरे काम में आओ।” सब अपने-अपने काम में आपको लाकर, निचोड़कर छोड़ देंगे। जब सद्गुरु मिलेंगे तो बतायेंगे कि ‘दूसरों के काम तो आ गये लेकिन दूसरों के काम वास्तव में वही आता है जो अपना काम निपटाने में सजग रहता है।’ नहीं तो जो अपना काम निपटाने में सजग नहीं है, वह दूसरों के काम आने वाला बनकर भी उनके प्रति वफादार नहीं रहेगा। महात्मा बुद्ध ने अपना काम निपटा लिया तो दूसरों के काम अच्छी तरह से आये। संत कबीर जी ने अपना काम निपटाया या हमने अपना काम निपटाया तो अच्छी तरह से दूसरों के काम आते हैं। अगर हम अपना काम भटका देते और किसी पदवी, प्रमाण पत्र के पीछे लग जाते कि ‘ऐसा बनू, ऐसा बनूँ…’ तो दूसरों के काम हम इतना नहीं आ सकते थे। गरीबों में भण्डारे होते हैं न, तो आदिवासी जब बाँटी हुई सामग्री ले जा रहे होते हैं, तब उनके चेहरे की रौनक देखकर लगता है कि हम जिनके काम आये उनको खुशी हो रही है।
जब हम आपके बीच होते हैं तो चाहें तो आपसे मिलें लाइन लगवायें। रूपये पैसे ऐंठना हो तो खूब ऐंठ सकते हैं कि ‘इस पर्व में दान का यह महत्त्व है, वह महत्त्व है….।’ लेकिन यह हम आपके धन के काम आये, आपके काम नहीं आये। हम तो आपके काम आने के लिए आपको लाइन में से, इसमें-उसमें से रोककर आप जितने भी उन्नत हो सकते हैं, उतना सब प्रकार से यत्न करते हैं। तो शरीर से समाज के, मन से भगवान के और एकांत सेवन, ईश्वर-उपासना व बुद्धियोग से मनुष्य अपने आपके काम आता है।
शरीर से भले हम एक दूसरे के, समाज के काम आयें लेकिन अपने को इतना घिस-पिट न डालें कि भगवान के काम न डालें कि भगवान के काम न आयें। मन से भगवान के काम आ पायें इसलिए तो शरीर को थोड़ा आराम भी चाहिए, मन को भी शांति चाहिए। भगवान से प्रीति करो तो भगवान के काम आ गये।
समाज के यथायोग्य काम आ जाओ, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, अविद्यावान को विद्या, नासमझ को समझ – कुल मिला के जिसको जैसे यहाँ अभी और बाद में लाभ हो, ऐसी कोशिश करना यह समाज के काम आना है। इसका मतलब यह नहीं है कि ‘शराबी को अंडे और मांस चाहिए तो उसके काम आ जाऊँ, कामी-विकारी को भोग चाहिए तो उसके काम आ जाऊं।’ यह अर्थ नहीं लगाना, शास्त्र मर्यादा के अंदर रह के सेवा करना। किसी के काम आ जायें, तो दीवाली के दिन हैं और पाँच हजार रूपये आपको किसी को दान करने हैं। ‘किसको दूँ, किसको दूँ ? अरे, पाँच हजार रूपये की फिल्म की टिकटें ले आता हूँ और रेलवे स्टेशन पर कुलियों में बाँट देता हूँ। वे बेचारे खुश हो जायेंगे, मजा आ जायेगा।’ तुम्हारे पाँच हजार का तो सत्यानाश हुआ और उनके मन का, नेत्रों का और समाज का सत्यानाश हुआ। यह तुम उनके काम नहीं आये। देश, काल और पात्र देखकर दान करना चाहिए। उसको मजा आ जाय… नहीं, उसकी उन्नति हो, उसका मंगल हो। मंगल के साथ मजा आता हो तो हरकत नहीं लेकिन अमंगल करके मजा न दिलाओ।
तो शरीर से हम समाज के काम आ गये, माता-पिता, पत्नी आदि लोगों के काम आ गये। मन से हम भगवान को प्रीति करें, उन्हें अपना मानें तो भगवान के काम आ गये और बुद्धि से हम अपने आत्मदेव को जानें। सात्त्विक बुद्धि, राजसी बुद्धि और तामसी बुद्धि – ये तीन गुणों वाली बुद्धि बदलती है लेकिन एक ऐसा तत्त्व है क तीनों गुणों की बदलाहट को भी जानता है। ऐसा बुद्धियोग करके हम अपने-आपके काम आ जायें। और अपने-आपके काम आ गये तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन ज्ञान, नित्य नवीन आनंद…। फिर रस के लिए बाहर भटकना नहीं पड़ेगा। इन्द्र कहते हैं कि ‘ऐसे आत्मवेत्ता सद्गुरु मिल जायें तो परम सौभाग्य की बात है। मुझे सुख लेना है तो अप्सराएँ नाचें, गंधर्व गायें, साजी साज बजायें तब सुख मिलता है, लेकिन जिसने अपने आपको पा लिया है, जो अपने आपके काम आ गया है ऐसे महापुरुष की दृष्टि पड़ती है तो मनुष्य को आत्मा का नित्य नवीन रस मिलने लगता है। जैसे चन्द्रमा की नित्य नवीन शीतलता होती है, उससे अनंत गुना नित्य नवीन परमात्म-रस, परमात्म-ज्ञान, परमात्म-प्रेम उऩ महापुरुष के हृदय में उमड़ता रहता है। चन्द्रमा औषधि को पुष्ट करता है लेकिन महापुरुषों की वाणी और दृष्टि हमको पुष्ट करती है।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 223
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