एक अत्यंत सफल, प्रसिद्ध एवं लोकहित में रत महानुभाव दिखने में जरा कुरुप थे। वे सदा अपने पास एक दर्पण रखते थे और दिन में कई बार उसे हाथ में लेकर उसमें अपना चेहरा देखा करते थे। इससे देखने वालों के मन में यह जिज्ञासा बनी रहती थी कि ‘इस तरह बार-बार दर्पण देखने का क्या राज है ?’
उनके एक निकट के मित्र से रहा नहीं गया तो उसने इसका कारण पूछ ही लिया। उन्होंने विनम्र भाव से उत्तर दियाः “मैं यह सोचता रहता हूँ कि ईश्वर ने मुझे ऐसा शरीर दिया है तो मैं अब अपने अच्छे कार्यों के द्वारा जगत को ऐसा कुछ दूँ, जो जगत के लिए एक आदर्श बन जाय। रूपवान लोगों को भी दर्पण देखकर सदा यह विचार करना चाहिए कि मेरे द्वारा ऐसा कोई कार्य न हो जाय, जिससे प्रकृति की यह अनुपम देन कलंकित हो जाय।”
उन महानुभाव का ‘दर्पण-दर्शन’ हम सबको सदैव सदाचरण की प्रेरणा देता है।
आप लोग भी या तो रूपवान होंगे या नहीं होंगे। यदि रूपवान हैं तो सोचना कि भगवान ने मुझे ऐसा सुंदर रूप दिया है तो मुझसे कोई असुंदर कार्य न हो और यदि रूपवान नहीं हैं तो सोचना कि रूप सुंदर नहीं तो क्या, मैं सुंदर कार्य ही करूँगा। भगवान के नाते भगवान के लिए ही कार्य करूँगा। भगवान के नाते भगवान के लिए ही कार्य करूँगा। परहित के कार्य करूँगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 23 अंक 223
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