गरुड़ जी ने भगवान से कहाः “हे दयासिंधो ! अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसारचक्र में पड़ता है, अनंत बार उत्पन्न होता है और मरता है। इस श्रृंखला का कोई अंत नहीं है। हे प्रभो ! किस उपाय से इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है ?”
श्री भगवान ने कहाः “हे गरूड़ ! यह संसार दुःख का मूल कारण है, इसलिए इस संसार में जिसका संबंध है वही दुःखी है और जिसने इसका (जगत की सत्यता व आसक्ति का) त्याग किया वही मनुष्य सुखी है। दूसरा कोई भी सुखी नहीं है। यह संसार सभी प्रकार के दुःखों का उत्पत्ति-स्थान है, सभी आपत्तियों का घर है और सभी पापों का आश्रय-स्थान है, इसलिए ऐसे संसार को (उसकी सत्यता व उसके प्रति राग को) त्याग देना चाहिए।
यह खेद की बात है कि अज्ञान से मोहित होकर सभी जीव अपनी देह, धन, पत्नी आदि में आसक्त होकर बार-बार पैदा होते हैं और मर जाते हैं, इसलिए (शरीर, घर, बेटे, बेटियाँ आदि के प्रति) सदा आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए। आत्मवेत्ता संतों-महापुरुषों का सान्निध्य-सेवन करना चाहिए क्योंकि वे संसार-आसक्तिरूप रोग के औषध हैं।
सत्संगश्च विवेश्च निर्मलं नयनद्वयम।
यस्य नास्ति नरः
सोऽन्धः कथं न स्यादमार्गगः।।
‘सत्संग और विवेक – ये दोनों ही व्यक्ति के दो निर्मल नेत्र हैं। जिस व्यक्ति के पास ये नहीं है, वह अंधा है। वह अंधा मनुष्य कुमार्गगामी क्यों नहीं होगा !’
हे गरूड़ ! मुक्ति न वेदाध्ययन से प्राप्त होती है और न शास्त्रों के अध्ययन से ही, मोक्ष की प्राप्ति तो ज्ञान से ही होती है किसी दूसरे उपाय से नहीं।
सद्गुरु का वचन ही मोक्ष देने वाला है, अन्य सब विद्याएँ विडम्बनामात्र है। लकड़ी के हजारों भारों की अपेक्षा एक संजीवनी ही श्रेष्ठ है। कर्मकाण्ड और वेद-शास्त्रादि के अध्ययनरूपी परिश्रम से रहित केवल गुरुमुख से प्राप्त अद्वैत ज्ञान ही कल्याणकारी कहा गया है, अन्य करोड़ों शास्त्रों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं। इसलिए हे गरूड़ ! यदि अपने मोक्ष की इच्छा हो तो सर्वदा सम्पूर्ण प्रयत्नों के साथ सभी अवस्थाओं में निरंतर आत्मज्ञान की प्राप्ति में संलग्न रहकर श्रीगुरुमुख से आत्मतत्त्व-विषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान प्राप्त होने पर प्राणी इस घोर संसार-बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।” (श्री गरूड़ पुराण, अध्यायः16)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 26 अंक 225
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