Monthly Archives: September 2011

तीन मुक्कों की सीख


पूज्य बापू जी के सद्गुरुदेव स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज बच्चों के चरित्र पर बहुत ध्यान देते थे तथा उन्हें प्यार भी करते थे। कहते थे कि ‘बालक सुधरे तो मानो भारत सुधरा। बच्चे ही आगे चलकर देश का नाम रोशन करते हैं।’

कोई भी बच्चा उनका दर्शन करने जाता था तो उससे पूछते थेः “कौन सी कक्षा में पढ़ते हो ? स्वास्थ्य की व धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हो ?”

वे उन्हें पढ़ने के लिए अच्छी-अच्छी पुस्तकों के नाम बताते थे तथा उनके पास जो पुस्तकें होती थीं, उनमें से कुछ उन्हें अभ्यास करने के लिए देते थे। उन्हें यह समझाते थे कि ‘सत्शास्त्रों के पढ़ने से, सत्संग करने से ही मन विकसित होता है। निर्मल बुद्धि ही विकास की ओर ले जाती है। जैसा-जैसा इन्सान होगा, उसके आसपास की दुनिया भी वैसी ही बनेगी। विचार को तुच्छ न समझें, विचार के आधार पर ही दुनिया चलती है। मन में पवित्र विचार होंगे तो कर्म भी वैसे ही होंगे। सदाचार के रास्ते पर चलने का सबसे अच्छा काम तरीका है मन को बुरी बातें सोचने से रोकना।’

आप बच्चों को हमेशा यही निर्देश देते थे कि ‘सदाचारी बनो, मन के भीतर कभी भी अशुद्ध विचार आने नहीं दो। जबान को अपशब्द कहने से रोको। हाथ-पैरों को बुरे काम करने से रोको। यदि इन तीनों पर आपका नियंत्रण होगा तो बड़े होने पर अपना तथा बड़ों वे देश का नाम रोशन करोगे। दूसरों की भलाई सोचने में अपनी भलाई समझो। विचारों को समझो सूक्ष्म वस्तु व वचनों को समझो स्थूल सूरत। विचारों को प्रकट करने का जबान के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। आपका वचन आपके विचारों का दर्पण है, उसमें आपके विचारों की तस्वीर है। मीठा बोलने से दूसरों का दिल जीत सकते हैं। मीठी व हमदर्दीभरी बातें सुनने से दुःखियों का दुःख दूर होता है। यदि कोई हमें गाली आदि देता है तो मन कितना उदास हो जाता है ! अतः भूलकर भी किसी को अपशब्द मत बोलो।’

एक बार की बात है। किसी विधवा माई ने अपने बच्चे के बारे में शिकायत की कि “स्वामी जी ! यह बालक जो आप देख रहे हैं, 10वीं में पढ़ता है, मगर पढ़ने में बहुत कमजोर है। अभी अर्धवार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ है। इसे प्राचार्य ने सख्त हिदायत दी है कि यदि मेहनत नहीं करोगे तो तुम्हें बोर्ड की वार्षिक परीक्षा में बैठने नहीं दिया जायेगा। पढ़ाई में यह जितना कमजोर है, मारधाड़ में उतना ही तेज ! इसके पिता नहीं हैं। यह मेरा कहना नहीं मानता, मुझसे लड़ता रहता है। आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है, इसलिए यह ट्यूशन भी नहीं पढ़ सकता है। इस पर दयादृष्टि करें, जिससे इसका जीवन सँवर जाये।”

स्वामी जी ने बालक को बड़े प्रेम से अपने पास बिठाया। उसे अच्छी प्रकार से समझाकर गलतियों का एहसास करवाया तथा निर्दश दिये कि “हर रोज़ प्रातःकाल उठकर माता के चरणस्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेना। साथ ही माता को कहना कि वह तुम्हें रोज तीन मुक्के धीरे से लगाया करे। आओ, मैं तुम्हें लगाकर दिखाऊँ।”

स्वामी जी ने धीरे से एक मुक्का लगाकर उससे कहाः “जब तुम्हें पहला मुक्का लगे तो ऐसा समझना कि मुझे माता शारीरिक शक्ति प्रदान कर रही है तथा मेरा बल व बुद्धि बढ़ रहे हैं। दूसरा मुक्का लगने पर समझना कि मुझमें मानसिक शक्ति प्रवेश कर रही है तथा मेरा मन शुद्ध व बुद्धि निर्मल हो रही है। तीसरा मुक्का लगने पर समझना कि मुझमें आत्मिक शक्ति का प्रकाश हो रहा है तथा ज्ञान की धारा मुझमें आ रही है। तुम स्वयं को साक्षी, आत्मिक स्वरूप समझकर हमेशा खुश रहो तो तुम्हारा उद्धार हो जायेगा।”

वह स्वामी जी की आज्ञानुसार प्रातःकाल अपनी माँ के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेने लगा। माता उसे तीन मुक्के लगाती। जब परीक्षा का परिणाम आया तो सभी आश्चर्यचकित रह गये। हमेशा असफल रहने वाला यह बालक संत की युक्ति और माँ के आशीर्वाद से इस बार अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 225

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संसार-आसक्तिरूप रोग के औषधः आत्मवेत्ता संत


गरुड़ जी ने भगवान से कहाः “हे दयासिंधो ! अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसारचक्र में पड़ता है, अनंत बार उत्पन्न होता है और मरता है। इस श्रृंखला का कोई अंत नहीं है। हे प्रभो ! किस उपाय से इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है ?”

श्री भगवान ने कहाः “हे गरूड़ ! यह संसार दुःख का मूल कारण है, इसलिए इस संसार में जिसका संबंध है वही दुःखी है और जिसने इसका (जगत की सत्यता व आसक्ति का) त्याग किया वही मनुष्य सुखी  है। दूसरा कोई भी सुखी नहीं है। यह संसार सभी प्रकार के दुःखों का उत्पत्ति-स्थान है, सभी आपत्तियों का घर है और सभी पापों का आश्रय-स्थान है, इसलिए ऐसे संसार को (उसकी सत्यता व उसके प्रति राग को) त्याग देना चाहिए।

यह खेद की बात है कि अज्ञान से मोहित होकर सभी जीव अपनी देह, धन, पत्नी आदि में आसक्त होकर बार-बार पैदा होते हैं और मर जाते हैं, इसलिए (शरीर, घर, बेटे, बेटियाँ आदि के प्रति) सदा आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए। आत्मवेत्ता संतों-महापुरुषों का सान्निध्य-सेवन करना चाहिए क्योंकि वे संसार-आसक्तिरूप रोग के औषध हैं।

सत्संगश्च विवेश्च निर्मलं नयनद्वयम।

यस्य नास्ति नरः

सोऽन्धः कथं न स्यादमार्गगः।।

‘सत्संग और विवेक – ये दोनों ही व्यक्ति के दो निर्मल नेत्र हैं। जिस व्यक्ति के पास ये नहीं है, वह अंधा है। वह अंधा मनुष्य कुमार्गगामी क्यों नहीं होगा !’

हे गरूड़ ! मुक्ति न वेदाध्ययन से प्राप्त होती है और न शास्त्रों के अध्ययन से ही, मोक्ष की प्राप्ति तो ज्ञान से ही होती है किसी दूसरे उपाय से नहीं।

सद्गुरु का वचन ही मोक्ष देने वाला है, अन्य सब विद्याएँ विडम्बनामात्र है। लकड़ी के हजारों भारों की अपेक्षा एक संजीवनी ही श्रेष्ठ है। कर्मकाण्ड और वेद-शास्त्रादि के अध्ययनरूपी परिश्रम से रहित केवल गुरुमुख से प्राप्त अद्वैत ज्ञान ही कल्याणकारी कहा गया है, अन्य करोड़ों शास्त्रों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं। इसलिए हे गरूड़ ! यदि अपने मोक्ष की इच्छा हो तो सर्वदा सम्पूर्ण प्रयत्नों के साथ सभी अवस्थाओं में निरंतर आत्मज्ञान की प्राप्ति में संलग्न रहकर श्रीगुरुमुख से आत्मतत्त्व-विषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान प्राप्त होने पर प्राणी इस घोर संसार-बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।” (श्री गरूड़ पुराण, अध्यायः16)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 26 अंक 225

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भगवान का उद्देश्य – पूज्य बापू जी


जैसे कोई फैक्ट्री बनाता है तो उद्देश्य पैसा कमाना होता है, कोई चुनाव लड़ता है तो उद्देश्य पद का होता है, ऐसे ही भगवान का उद्देश्य क्या है ?

भगवान ने हमें दास बनाने के लिए अथवा संसारी पिट्ठू बनने के लिए जन्म नहीं दिया। हमने अपनी अक्ल-होशियारी से, अपने बलबूते से यह शरीर नहीं बनाया। हमने अपने-आप यह नहीं रचा है और शरीर जिनसे रचा गया वे हमारी अपनी वस्तुएँ नहीं हैं। यह सृष्टिकर्ता की सृष्टि प्रक्रिया की व्यवस्था है। तो क्या उद्देश्य होगा उसका जिसने शरीर दिया है ?

उस शरीर को पालने की जिम्मेदारी भी होती है। हम जन्मेंगे तो क्या पियेंगे, क्या खायेंगे, कैसे मिलेगा इसकी न हमने, न माँ-बाप ने चिंता की। तो शरीर को पोषित करने की व्यवस्था की जिम्मेदारी भगवान की है, बिल्कुल सच्ची बात है। अन्न, जल और श्वास से हमारा निर्वाह होता है,  उस निर्वाह की व्यवस्था ईश्वर ने अपने जिम्मे ले रखी है। किंतु वासना-निर्वाह हो, जैसे – कपड़े हों तो ऐसे हों, आवास हो तो ऐसा बढ़िया हो – इस वासनापूर्ति का उसने ठेका नहीं ले रखा। निर्वाह का उसका ठेका है और निर्वाह सभी का होता है, अनपढ़ का भी, पढ़े हुए का भी। पुण्यात्मा का भी और पापी का भी निर्वाह होता है। शरीर का निर्वाह सहज में होता है। इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। ‘बेटी का क्या होगा, बेटे का क्या होगा, हमारा क्या होगा ?….’ निर्वाह की जिम्मेदारी ईश्वर की है। ईश्वर का उद्देश्य है कि ‘हमारा जीवन रसमय, सुखमय एवं तृप्त हो।’ जैसे बच्चा दूध पीकर तृप्त होता है। मनुष्य अन्न और गाय भैंस चारा खाकर तृप्त होते हैं। तो निर्वाह से तृप्ति की जिम्मेदारी ईश्वर की है। ऐसे ही हम अपनी दुर्वासनाओं से बचने के लिए अगर ईश्वर-सत्ता को स्वीकार करें, ईश्वर करूणा को स्वीकार करें, ईश्वर के उद्देश्य में हम अपनी हाँ मिला दें तो मुक्ति पाना सहज है। शराबी, जुआरी, भँगेड़ी अपने संग में आने वाले को अपने रंग से रंग डालते हैं, ऐसे ही ईश्वर मुक्त हैं, आनंदस्वरूप हैं, उनका चिंतन करने वाला भी मुक्तात्मा, आनंदस्वरूप हो जाता है। हम अपनी तरफ से बाधा छोड़ दें तो मुक्ति तो मुफ्त में ही है।

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः।। (गीताः 6.14)

प्रशांतात्मा प्र उपसर्ग है – आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक – ये मानसिक शांतियाँ नहीं – परम शांति मिल जाती है।

जैसे ब्रह्मचारी गुरु के आश्रम में विद्या के लिए ठहरता है और फिर सेवा करता है तथा विद्या के लिए तत्पर होता है। ऐसे ही भगवान की जो ब्रह्मविद्या है, भगवान हमें जो ब्रह्मविद्या देना चाहते हैं, प्रेमाभक्ति के दवारा ज्ञानयोग के द्वारा, सेवायोग के द्वारा उसमें हम अड़चन न बनें। हम अपनी कल्पना न करें कि ‘भगवान ऐसे हैं अथवा भगवान ऐसा कर दें, ऐसा दें दें।’ नहीं-नहीं, ‘तेरी मर्जी पूरण हो। वाह प्रभु ! वाह !!’ अपमान हो गया, वाह ! अनुकूलता आ गयी, वाह ! प्रतिकूलता आ गयी, वाह ! थोड़े दिन यह प्रयोग करके देखो, आपको लगेगा कि ‘हम तो खामखाह परेशान हो रहे थे।’ यशोदा यश दे रही है ठाकुरजी को। नंदबाबा विवेक हैं तो यशोदा जी यशदात्री हैं। व विवेक का तो हाथ पकड़ते हैं श्रीकृष्ण लेकिन यशदात्री मति के तो हृदय से लगते हैं। यशोद कृष्ण को हृदय से लगाती रहती हैं। आप ईश्वर की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ करते जाओ। यश उसे देते जाओ, ‘वाह प्रभु ! बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया।’ तो आपके हृदय से भगवान चिपके रहेंगे। कठिन नहीं है। कठिनाई, अड़चन तो तब बनती है जब इस बदलने वाले मिथ्या व्यवहार, मिथ्या जगत को सच्चा मानते हैं और अबदल अंतरात्मा कृष्ण को दूर मानते हैं, दो हाथ-पैरवाला मानते हैं, तब हम अड़चन की तानाबुनी करते हैं।

गोपियों का क्या भाग्य रहा होगा ! अरे, हम भी तो ग्वाल-गोपियाँ ही हैं। ‘गो’ माने इन्द्रियाँ। इन्द्रियों के द्वारा जो भगवद् रस पी ले वह गोपी है और गोप है। योगी समाधि से शांति रस पीता है, ध्यान रस पीता है लेकिन जो भगवान को धन्यवाद देकर अपनी पकड़, वासना छोड़ देता है वह गोपी है। अभी आप ईश्वर को धन्यवाद देते जाओः ‘क्या तेरी लीला है ! क्या तेरा आनंद है !’ और ‘तेरा-तेरा’ अभी कह रहे हैं, कुछ समय बीतेगा तो अपना ‘मैं’पन मिटेगा तो ईश्वर का ‘तेरा’पन भी मिटेगा। हम न तुम, दफ्तर गुम ! दूरी मिट जायेगी। साधन में शुरुआत में ‘वे भगवान हैं, दयालु हैं, वे ऐसे हैं’, तृतीय पुरुष सर्वनाम चलता है। फिर द्वितीय पुरुष सर्वनाम – ‘तुम दयालु हो, तुम ऐसे हो, तुम मेरे हो’ और फिर आगे चलकर ‘तुम-तुम’ क्या, हम न तुम दफ्तर गुम…. ‘वह मेरा ही स्वरूप है।’

सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया।

जब आँख खुली देखा, अपना ही गिरेबाँ है।।

आपका भाव उस रूप में हो जाता है। भाव की गहराई में जाओ तो आपका परेश्वर ही आपका आत्मा है। दूर नहीं, दुर्लभ नहीं !

आप केवल ठान लो। आप ठान लो कि ‘यह शरीर हम नहीं है।’ वास्तव में जब तुम किसी को देखते तो शरीर दिखता है कि अविनाशी तत्त्व ! तो हम आपको मानना पड़ेगा कि शरीर दिखता है। भगवान कहते हैं कि ‘शरीर को जिससे देखते हो वह ‘मैं’ हूँ। कितना निकट हूँ ! कहाँ रहा मैं तुमसे दूर !’ ऐसे ही आप भगवान को देखते हो कि भगवान की मूर्ति को देखते हो ? भगवान की मूर्ति जिससे दिखती है वही तो भगवान है ! वह छुपाछुपी के खेल में दूर लगता है वरना हाजरा-हुजूर, जागंदी ज्योत… ज्ञानस्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है, आनंदस्वरूप है, अपना-आपा है और वह अपने-आप की याद दिलाता रहता है। जैसे निर्वाह की उसकी जिम्मेदारी, ऐसे अपने स्वरूप का प्रसाद देने की भी उसकी जिम्मेदारी है। जैसे माँ-बाप की जिम्मेदारी होती है न, कि बच्चे का पालन-पोषण करें। केवल पालन-पोषण नहीं, पढ़ाना-लिखाना भी वे करते हैं। ऐसे ही अपनी विद्या देने को भी परमात्मा की अपनी जिम्मेदारी है। हम उसके हैं। हम अपनी तरफ से जब वासना के आवेग में आते हैं तो वह बोला है,  ‘अच्छा, कर लो बेटे !’ जब समझते हैं कि अपनी वासना के चक्कर में आ-आकर कीट-पतंग बनना, नीच योनियों में जाना है। ‘नहीं बाबा ! तेरी मर्जी पूरण हो। ऐ वासना दूर हट !….’ वासना को हटाने के लिए ऊँची वासना की जाती है। ‘यह मिल जाय, वह मिल जाय….’ – इस वासना को मिटाने के लिए ‘हे परमेश्वर ! मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि तुममें विश्रांति पाऊँगा ?’ ऐसे काँटे से काँटा निकालो। सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाकर, उनके उद्देश्य से अपना उद्देश्य मिलाकर मुक्तात्मा हो जाओ, यही भगवान का उद्देश्य है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 225

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