पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी
जो जगत से सुखी होना चाहता है वह अकड़ने का मजा लेगा – ‘मेरे पास इतनी गाड़ियाँ हैं, इतनी मोटरे हैं, इतना अधिकार है, और अधिकार हथियाऊँ….’ यह रावण का रास्ता है और गुरु के प्रसाद से जो तृप्त हुए हैं, उनका राम जी का रास्ता है। सब कुछ देकर नंगे पैर जंगलों में घूमते हैं फिर भी राम जी संतुष्ट हैं, प्रसन्न हैं और रावण के पास सब गुछ है फिर भी असंतुष्ट है, अप्रसन्न है। अपनी पत्नी और लंका की सुंदरियाँ मिलने पर भी अहंकार चाहता है कि इतनी सुंदर सीता को लंका की शोभा बढ़ाने को ले आऊँ। अहंकार ले-ले के, बड़ा बनकर सुखी होना चाहता है और प्रेम दे देकर अपने आप में पूर्णता का एहसास करता है।
अहंकार क्रोध में, लोभ में, विकारों में बरसकर, दूसरों को परिताप पहुँचाकर सुखी होना चाहता है लेकिन प्रेम अपनी मधुमय शीतलता से बरसते हुए दूसरों के दुःख, रोग, शोक हरकर उनकी शीतलता में अपनी शीतलता का एहसास करता है। अहंकार की छाया ऐसी है कि अहंकार छायामात्र शरीर को ‘मैं’ मानेगा और अपने आत्मा को ‘मैं’ रूप में न सुनेगा, न मानेगा, न जानेगा। जबकि प्रेम शरीर को क्षणभंगुर जानता है व मन परिवर्तनशील, तन परिवर्तनशील, चित्त परिवर्तनशील… उन सबका साक्षी हो जो है अपरिवर्तनशील, उस अपने आत्मदेव को ‘मैं’ मानता है, जानता है।
जो सबका साक्षी है, उसमें तृप्त होने का यत्न करता है तो जिज्ञासु है। तृप्त हो गया तो व्यास जी है, कृष्ण जी है, राम जी है, नारायणस्वरूप है। अहंकार तोड़ता है और महापुरुष जोड़ते हैं। अहंकार अपनी छाया से हमें विक्षिप्त और वासनावान करता है लेकिन प्रेम अपनी प्रभा से हमे विकसित, संतुष्ट, तृप्त, दानी और निरभिमानी करता है। अहंकार संग्रह से संतुष्ट होता है और प्रेम बाँटकर तृप्त होता है।
अहंकार बाह्य शक्ति, सामग्री से बड़ा होना चाहता है और प्रेम परमात्म-प्रीति से पूरे बड़प्पन में अपने को ‘मैं’ मिलाने में राज़ी रहता है। तरंग कितनी भी बड़ी बने फिर भी सागर नहीं हो सकती है लेकिन छोटी-सी तरंग अपने को पानी माने तो सागर तो वह खुद ही है। ऐसे ही यह जीव शरीर को ‘मैं’ मानकर, कुछ पा के जो बड़ा बनता है, ये उसके बड़प्पन के ख्वाब रावण की दिशा के हैं। एम.बी.ए. पढ़े हुए बच्चों को सिखाया जाता है कि गंजे आदमी को कंघी बेचनी है और नंगे लोगों को कपड़े धोने का साबुन बेचना है। चाहे उनको काम आये या न आये, उनसे पैसे बनाओ। साधन इकट्ठे करो और सुखी रहो। जो भी ऐसा रास्ता लेते हैं वे खुद परेशान रहते है और दूसरों का शोषण करते हैं लेकिन जो शबरी का, मीरा का, रैदास जी का, राजा जनक का रास्ता लेते हैं वे खुद भी तृप्त होते हैं, दूसरों को भी तृप्त करते हैं।
स तृप्तो भवति। सः अमृतो भवति।
स तरति लोकांस्तारयति।
अहंकार लेने के अवसर खोजता है और प्रेम देने के अवसर खोजता है। चाहे निगाहों से पोसे, वाणी से पोसे, हरड़ रसायन से पोसे, पंचगव्य से पोसे अथवा हरि ॐ करके, प्रणाम करके पोसे, नम्रता के गुण देकर उनकी उन्नति करे… प्रेम अवसर खोजता रहता है कि मेरे सम्पर्क में आने वाले पोषित हों और जो सम्पर्क में नहीं हों वे भी पोषितों से पोषित हों। मेरे शिष्य जायेंगे, भण्डारा करेंगे, सेवाएँ करेंगे। सरकार का एक करोड़ निकलता है तो लोगों तक कितने पहुँचते होंगे भगवान जाने…. लेकिन हमारे यहाँ से एक करोड़ निकलता है तो लोगों तक तीन करोड़ होकर पहुँचता है। हमारे यहाँ से एक रूपया निकलता है तो शिष्यों द्वारा उसमें और सहयोग मिलता है। कोई सर्विस चार्ज नहीं, कोई हड़प चार्ज नहीं क्योंकि जो प्रेमी गुरु के प्यार हैं, वे पुहँचाने में अपना भी सहयोग कर देते हैं। अहंकारी सबसे आगे और विशेष होने में मानता है और प्रेमी सबके पीछे रहकर, सेवा खोज के, मिटकर अमिट को पाने में सफल हो जाता है। राजा चतुरसिंह के उदयपुर राज्य में सत्संग होता था। वे संत महात्मा के चरणों में जाते, पीछे बैठ जाते।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं।
अहंकार और प्रेम…. एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहतीं। अहंकार सब कुछ पा के, कुछ बनकर सुखी होने की भ्रांति में टकराते-टकराते हार जाता है, थक जाता है और प्रेम सब कुछ देते-देते अपने पूर्ण स्वभाव को जागृत कर लेता है।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।
मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।
जो संसार में सुखी होना चाहता है, वह बड़े दुःख को बुलाता है। संसार दुःखालय है। संसार की सुविधा पाकर जो सुखी रहना चाहता है, वह किसी न किसी से धोखा, शोषण और कई वस्तुओं की पराधीनता करेगा और जो संसार की सेवा खोजकर निर्वासनिक होता है, उसका प्रेम स्वभाव स्वतः जागृत होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 224
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