‘भगवद्गीता’ में अर्जुन कहते हैं- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा….. मोह अर्थात् जो उल्टा ज्ञान था, शरीर को मैं मानता था, संसार को सच्चा मानता था, वह मेरा मोह नष्ट हो गया । स्मृतिर्लब्धा… अर्थात् मुझे स्मृति हुई । कैसी स्मृति हुई ? कि ‘मैं सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा हूँ….’ अपने आत्मस्वभाव की स्मृति हुई, ब्रह्मस्वभाव की स्मृति हुई । सभी सत्कर्मों का फल भी यही है कि आपके ब्रह्मस्वभाव की स्मृति जग जाय, आपको ब्रह्मज्ञान हो जाय । संत कबीर जी कहते हैं-
सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट ।
मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ ।।
मन अपने आत्मा-परमात्मा, ईश्वर में लीन हो तो ईश्वरीय सुख, ईश्वरीय शांति, ईश्वर-प्रसादजा बुद्धि बन जाती है । भगवत्स्मृति करके भगवद्विश्रांति, भगवत्सुख में स्थिति करनी है ।
बुध विश्राम सकल जन रंजनि ।
रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ।। (श्री रामचरित. बाल. कां. 30.3)
भगवत्कथा कलियुग के दोषों को मिटाती है और भगवान की स्मृति का सुख-सामर्थ्य देती है । लक्ष्मणजी ने भगवान राम से पूछा कि
कहहु ग्यान बिराग अरू माया ।
ज्ञान किसको बोलते हैं ? वैराग्य किसको बोलते हैं ? माया किसको बोलते हैं ?
कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ।। (श्री रामचरित. अर.कां. 13.4)
उस भक्ति को कहिये जिसके कारण आपकी दया और सुख का प्रसाद मिले ।
ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ।
ईश्वर किसको बोलते हैं ? जीव किसको बोलते हैं ? इसका सारा भेद मुझे समझाइये ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ।। (श्री रामचरित. अर.का. 14)
जिससे भगवान के चरणों में प्रीति हो और हमारा शोक, मोह और भ्रम सदा के लिए मिट जाय ।
राम जी के चरणों में लक्ष्मण जी ने ऐसे प्रश्न किये हैं । राम जी कृपा करके लक्ष्मण को सत्संग सुनाते हैं । जो राम जी का दर्शन करता है, राम जी की सेवा करता है, राम जी का भाई है, उसको भी सत्संग की जरूरत है ।
रावण के पास सोने की लंका, पूरी जमीन-जायदाद, उड़ने की शक्ति थी लेकिन ब्रह्मज्ञान के सुख के अभाव में विकारी आकर्षण नहीं गया । रावण की क्या गति हुई दुनिया जानती है । बड़े-बड़े धनी लोग, बड़े-बड़े सत्तावान लोग भगवद रस और भगवत् सत्संग के बिना दुराचार, विकार व्यसन में पड़कर अपना जन्म-जन्मांतर खराब कर लेते हैं बेचारे !
बिनु सतसंग बिबेक न होई ।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।। (श्री रामचरित. बा.कां. 2.4)
बिना सत्संग के इस जीवात्मा को अपने परमात्मस्वरूप का विवेक नहीं होता और भगवान की कृपा के बिना सत्संग नहीं मिलता ।
देखें रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 182)
भगवत्शांति, भगवद्ज्ञान, भगवत्सुख के बिना जीवात्मा को सताने वाली यह वासना नहीं मिटती, दुःख नहीं मिटते । श्री राम जी की सेवा करते-करते लक्ष्मण भैया सत्संग में गति करते हैं और प्रश्न पूछते हैं कि माया क्या है, ईश्वर क्या है, ब्रह्म क्या है, जगत क्या है और भगवद् रस में, भगवत्सुख में प्रीति कैसे जगह ?
राम जी कहते हैं-
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई ।
सुनहु तात मति मन चित लाई ।। (श्री रामचरित. अर.कां. 14.1)
सुनो लक्ष्मण ! तुम अपने मन को भी लगाओ, अपनी बुद्धि को भी लगाओ, अपने चित्त को भी लगाओ, मैं थोड़े में तुमको सब बताता हूँ ।
भगवान रामचन्द्र जी लक्ष्मण को थोड़े में ही सब बताते हैं । विभीषण मंदोदरी को सत्संग की बात सुनाते हैं, रावण को भी सुनाते हैं । रावण को हनुमान जी भी सत्संग सुनाते हैं । मंदोदरी भी रावण को सत्संग की बात सुनाती है । कई पात्रों ने रावण को सत्संग सुनाया लेकिन रावण ने सत्संग का आदर नहीं किया । अपने अहं में, अपनी मान्यता में, असत्य संसार में, असत्य शरीर में जिसकी प्रीति होती है, वह सत्संग का इतना फायदा नहीं लेता है जितना फायदा सत्यस्वरूप ईश्वर में प्रीति करने वाले ले लेते हैं । जैसी-जैसी अंदर की रूचि होती है वैसी-वैसी व्यवस्था आदमी करता है । सत्संग में आने की रूचि होती है तो इधर पहुँचने की व्यवस्था भी करते हो ।
राजा भर्तृहरि को सत्संग के द्वारा भगवत्प्राप्ति की रूचि हुई तो राज्य छोड़कर भी लग गये और भगवान को पा लिया । राजा भगीरथ ने भी भगवत्प्रीति के बाद लोक-मांगल्य किया । जो राजा होने पर भी नहीं कर पाये ते वह स्थायी लोक-कल्याण भगवत्प्राप्ति के बाद करने में सफल हुए । स्थायी लोक-कल्याण करके वास्तव में समाजोद्धार किया । जो वास्तविक तत्त्व को नहीं पाता, उसकी सेवा से भी वास्तविक कल्याण सम्भव नहीं । राजा भगीरथ राजपाट छोड़कर त्रितल ऋषि के चरणों में ब्रह्मज्ञन पाने के लिए तत्पर हो गये ओ। परमार्थप्राप्ति के बाद गंगा जी को धरती पर ले आये । भगीरथ संकल्प से भागीरथ कहलाये । न जाने कितने करोड़ों लोगों का मंगल कर चुके और आगे भी होता रहेगा । भगवत्प्राप्त महापुरुषों के द्वारा उनकी हयाती के बाद भी सच्ची उन्नति होती रहती है ।
जिसके जीवन में सत्संग का महत्त्व है वह पार हो जाता है । तपस्या से भी ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के सत्संग का महत्त्व ज्यादा है । लल्लू-पंजू लोग सत्संग के नाम पर भाषण करते हैं… इधर-उधर के शास्त्रों से उठाया हुआ रटा-रटी का भाषण ! सत्संग तो सत्य का साक्षात्कार किये हुए महापुरुषों का ही होता है । महापुरुषों का साहित्य पढ़कर भाषण करना अलग बात है और महापुरुषों का सत्संग अलग बात है ।
दुनिया में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं लेकिन सबसे श्रेष्ठ है कल्पवृक्ष, जो हर कामना पूरी करता है लेकिन उसमें भी श्रेष्ठ है सत्संग, जो नश्वर आकर्षण और नश्वर कामनाओँ को मिटाकर शाश्वत परमात्मा के प्रेम-प्रसाद से परितृप्त कर देता है । भगवान की और सब कृपाओं से बड़ी कृपा है कि
जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये । (विनय पत्रिकाः 136.10)
जब भगवान बहुत ज्यादा प्रसन्न होते हैं तब संतों का संग देते हैं ।
यह भगवत्कृपा सबसे श्रेष्ठ है, विशेष कृपा है । जैसे माँ कृपा करती है, कभी माँ बच्चे को बहुत प्रेम करती है तो उसके स्तन से दूध बह चलता है, ऐसे ही भगवत्कृपा विशेष होती है तो संतों के सत्संग में आनंद, माधुर्य आने लगता है । राम जी लक्ष्मण को सत्संग की भगवत्कृपामयी प्रसादी देते हैं ।
मैं अरु तोर मोर तैं माया ।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।। (श्री रामचरित. अर. कां. 14.1)
शरीर को मैं मानते हैं, संसार को सच्चा मानते हैं । ‘यह मेरा है, यह तेरा है’, इसी झूठे ज्ञान को माया बोलते हैं, धोखा । जैसे सभी तरंगे पानी हैं, ऐसे ही सब लोग चैतन्य हैं । शरीर में आकर जीने की इच्छा करता है वह जीव है और माया को वश करके जो चैतन्य संसार का नियमन करता है उसको ईश्वर बोलते हैं ।
जीव ईश्वर नहीं बनता है लेकिन जीवात्मा और ईश्वर का आत्मा दोनों एक हैं । जीवात्मा ईश्वर के आत्मा से अपने मिलन का अनुभव करके मुक्तात्मा हो जाता है । जीव-ईश्वर एक हैं तो ऐसा नहीं कि जीव चतुर्भुजी होकर सृष्टि कर लेगा । जीव चतुर्भुजी नारायण की आकृति धारण करके ईश्वर के धाम में जा सकता है लेकिन ईश्वर का सृष्टि करने का सामर्थ्य तो ईश्वरीय सत्ता के पास ही होता है । जैसे केबिन का आकाश और घड़े का आकाश एक है तो घड़ा केबिन नहीं बन सकता और केबिन घड़ा नहीं बन सकती, लेकिन केबिन और घड़ा हटा दो तो आकाश दोनों का एक है । ऐसे ही गंगू तेली का तेल का धंधा छोड़ दो और राजा भोज की राजगद्दी छोड़ दो तो मानवता तो दोनों में एक हैं । ऐसे ही छोटा बुलबुला बड़ी तरंग नहीं बनता, बड़ी तरंग छोटा बुलबला नहीं है फिर भी दोनों पानीरूप से एक हैं ।
नाक में पहनी आधे ग्राम की बाली भी सोना है और हाथ में पहना 50 ग्राम का कंगन भी सोना है । बाली कंगन नहीं है, कंगन बाली नहीं है लेकिन दोनों सोना हैं, ऐसे ही जीव और ईश्वर दोनों चैतन्य हैं, ब्रह्म हैं । ऐसे जो ब्रह्मस्वभाव का चिंतन करता है वह दुःखों से, शोकों से पार हो जाता है । उसकी बुद्धि ब्रह्ममय हो जाती है ।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।
इस प्रकार का सत्संग-प्रसाद भगवान राम जी ने लक्ष्मण को दिया ।
भगवान में प्रीति कैसे हो ? अऩेक में एक देखें और एक में से ही अनेक की लीला देखें तो भगवान की जहाँ-तहाँ स्मृति होती है । इससे भगवत्प्रसादजा मति बन जाती है । मति से ही आदमी की ऊँचाई-नीचाई होती है । छोटी मति होती है तो छोटा जीवन होता है, ऊँची मति होती है तो ऊँचा जीवन होता है । राजसी मति होती है तो राजसी, सात्त्विक मति होती है तो सात्त्विक जीवन होता है । भगवत्-अर्थदा मति होती है तो भगवत्-अर्थदा जीवन होता है, भगवत्प्रसादाजा मति बनती है ।
ज्यों-जयों सत्संग सुनते हैं, ध्यान करते हैं और नियम करते हैं त्यों-त्यों अपनी मति भगवान के प्रसाद से पावन हो जाती है । जैसे बच्चा ज्यों-ज्यों ध्यान से पढ़ता है त्यों-त्यों वह उस विषय में मास्टरी ले लेता है, एम. ए. हो जाता है, ऐसे ही सत्संग से भगवत्स्मृति हो जाती है और भगवत्साक्षात्कार होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2011, पृष्ठ संख्या 16-18 अंक 226
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