पूज्य बापू जी की मधुमय, ज्ञानवर्धक अनुभवमय अमृतवाणी
जीवन में रस हो लेकिन रस उद्गम स्थान पर ले जाय । जीवन में रस तो है लेकिन उद्गम स्थान से दूर ले जाता है तो वह जीवन नीरस हो जाता है । जैसे पान मसाले का रस, पति-पत्नी का विकारी रस अथवा वाहवाही का रस । रावण की वाहवाही बहुत होती थी लेकिन रस के उद्गम स्थान से रावण दूर चला गया । राम जी के जीवन में रस का उद्गम स्थान था, सत्संग था । श्रीकृष्ण के जीवन में रस था लेकिन उद्गम स्थानवाला था । पत्ते हरे-भरे हैं, फूल महकते हैं तो मूल में रस है तभी पत्तों तक पहुँचा । ऐसे ही आपका मूल परमात्म-रस है तो व्यवहार रसीला हो जाता है । आपका दर्शन रसमय, आपकी वाणी रसमय….।
प्रेम की बोली का नाम संगीत है और प्रेम की चाल का नाम नृत्य है तथा परमात्म-प्रेम से भरे हुए व्यवहार का नाम भक्ति है और परमात्म-प्रेम से भरी हुई निगाहों का नाम ही नूरानी निगाहें है । श्रीकृष्ण निकलते थे तब सब लोग काम छोड़कर ‘कृष्ण आये, कृष्ण आये’ करके देखने को भागते थे, रस आता था उनसे, लेकिन कंस आता था तो ‘कंस आया, कंस आया’ करके घर में भाग जाते थे क्योंकि वह अहंकार को पोषता था, दूसरों को शोषित करके बाहर से रस भीतर भरता था और श्रीकृष्ण भीतर से रस बाँटते थे ।
राम जी आते तो रामजी को देखने के लिए किरात, भील, ये-वो भाग-भाग के आते लेकिन रावण निकलता तो लोग अपने घरों में भाग जाते । तो जो बाहर से अंदर रस भरता है वह रावण के रास्ते जाता है और जो अंदर से बाहर रस छलकाता है वह राम जी के रास्ते है । मर्जी तुम्हारी है, तुम बीच में हो । संसार में जाते हो तो रावण के रास्ते का रस लेने वालों में उलझ जाते हो । सत्संग में आते हो तो राम का रस लेने वालों के सम्पर्क में आते हो । तुम्हारे जीवन में दोनों अनुभूतियाँ हैं । बिना वस्तु के, बिना व्यक्ति के सुखमय, रसमय दिन बीत जाते हैं सत्संग के, यह तुम्हारा अनुभव है और घर में सारे रस के साधन होते हुए भी जीवन थकान भरा हो जाता है, बोझीला हो जाता है । बिल्कुल तुम्हारे अनुभव का तुम आदर करो ।
तुम शास्त्र की बात न मानो, गुरु की बात न मानो, धर्म की बात न मानो, केवल अपना अनुभव मान लो तो भी तुम्हारा जीवन धन्य हो जायेगा । संसार के सुख में दुःख छुपा है, हर्ष में शोक छुपा है, जीवन में मृत्यु छुपी है, संयोग में वियोग छुपा है, मित्रता में नफरत, शत्रुता और एक दूसरे का त्याग छुपा है लेकिन भगवान में नित्य नवीन रस छुपा है… । उसमें भी थोडी चरपराहट आती है लेकिन प्रेम में कमी नहीं होती । शुद्ध प्रेम नित्य नवीन रस देता है । काम दिन-दिन क्षीण होता है और विकृतरूप होता है और प्रेम दिन-दिन बढ़ता है, सुकृतरूप होता है ।
संसारी विकार भोगने के बाद आप थक जाते हैं, हताश हो जाते हैं, असारता लगती है । श्मशान में जाते हैं तो लगता है कि ये सब मर ही गये, अपन भी मरने वाले हैं ।
तो शरीर मर जायेगा यह भी अपना अनुभव है और विकार भोगने के बाद जीवन नीरस हो जाता है शरीर थक जाता है यह भी अनुभव है । तो इस अनुभव का आदर करके संयम और सत्य रस पाने का इरादा कर लो । आपका तो काम बन जायेगा, आपकी आँखों से जो तन्मात्राएँ निकलेंगी, आपको छूकर जो हवामान में, वातावरण में तरंगे निकलेंगी वे कइयों को सुख, शांति और आनंद बख्शेंगी । इसको बोलते हैं ‘चिन्मय रस’ । ऐसा आपका आत्मा-परमात्मा का रस है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 11, 17 अंक 228
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