(पूज्य बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)
उद्धव जी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहाः “हे मधुसूदन ! आपकी ज्ञानमयी वाणी सुनकर जीव के जन्म-जन्म के पाप मिट जाते हैं। आपकी करूणा-कृपा द्वारा जीव अज्ञान-दशा से जागकर आपके ज्ञान से एकाकार होता है। हे परमेश्वर ! मुझे यह बताइये, ʹऋतʹ किसे कहते हैं ?”
श्रीकृष्ण बोलेः “एक तो सत्य बोले। जो समझा, जो जाना, उसके अंदर कुछ कपट न मिलाये, जैसे का तैसा बोले लेकिन वे सत्य वचन किसी को चुभने वाला न हों, प्रिय हों। वाणी तू-तड़ाके की न हो, मधुर हो, इसे ʹऋतʹ बोलते हैं।”
सत्य, प्रिय, मधुर – ये तीनों मिलाकर ʹऋतʹ होता है। सत्य बोलो, मधुर बोलो और हितकारी बोलो। कटु न बोलो, असत्य न बोलो लेकिन माँ और गुरु के लिए यह कानून नहीं लगता। माँ बेटे को बोलती हैः ʹदेख बेटा ! दवा पी ले, अच्छी है, मीठी-मीठी है।ʹ होती कड़वी है लेकिन झूठ बोली माँ- ʹमीठी है।ʹ
ʹऐ महाराज ! ओ पुलिसवाले ! इसको पकड़ के ले जाओ, दवा नहीं पीता। दवा नहीं पियेगा तो तेरी ये आँख निकालकर कौवों को दे दूँगी और यह नाक काटकर कुतिया बेचारी भूखी है उसी को दे दूँगी।ʹ अब कैसा-कैसा बोलती है – कटु, अप्रिय, झूठ लेकिन बच्चे के हित के लिए बोलती है तो उसको पाप नहीं लगता। असत्य न बोलें, कटु न बोलें लेकिन किसी के हित के लिए बोलना पड़ता है तो उसका दोष नहीं लगता।
उद्धव जी कहते हैं- ʹहे गोविन्द ! हे गोपाल ! हे अच्युत ! पवित्रता क्या है ?”
श्रीकृष्ण बोलेः “किसी भी कर्म का अपने आप में आरोप न करना। ʹमैंने पुण्य किया है, मैंने पाप किया है, मैंने बिच्छु मारा है, मैंने साँप मारा है, मैंने प्याऊ लगाया है, मैंने दान दिया है…” – किसी भी प्रकार का अभिमान न करना। किसी भी कर्म का अभिमान अपने में थोपना नहीं – यह अपने चित्त को निर्मल बनाने के लिए ʹपवित्रताʹ कही जाती है।”
उद्धवजी ने कहाः “परमेश्वर ! आपकी मधुमय वाणी सुनने से मेरी शंकाएँ निवृत्त होती हैं और आप सूझबूझ के धनी हैं। हे भगवान ! संन्यास किस को कहते हैं ?”
श्रीकृष्ण कहते हैं- “अनात्म वस्तुओं का त्याग ही संन्यास है। जिसने इच्छाओं, वासनाओं, अनात्म शरीर और वस्तुओं को ʹमैं-मेराʹ मानना छोड़ दिया है वह संन्यासी है।”
गीता (6.9) में भी भगवान ने कहा हैः
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निग्निर्न चाक्रियः।।
किसी कर्म के फल का आश्रय न लेकर दूसरों की भलाई के भाव से कर्म करे। भगवान की प्रीति के भाव से कर्म करने वाला संन्यासी हो जायेगा।
ʹमैं अब साधु हो गया हूँ, अग्नि को नहीं छुऊँगा। अब मैं काम-धंधा नहीं करता हूँ, कोई क्रिया नहीं करूँगा।ʹ – इसको संन्यासी नहीं बोलते हैं। अनात्म शरीर, अनात्म वस्तुओं व अनात्म संसार की आसक्ति को जिसने त्याग दिया है वह संन्यासी है।
उद्धवजी ने कहाः “प्रभु ! आपकी अमृतभरी वाणी सुनकर मेरी तो शंकाएँ निवृत्त हो ही रही हैं, साथ ही जगत के लोगों को भी इस ज्ञान से बहुत लाभ होगा। हे परमेश्वर ! असली धन क्या है ?”
श्रीकृष्ण कहते हैं- “जो इहलोक और परलोक में हमारे साथ चले, हमारी रक्षा करे वह धर्म ही असली धन है।” धर्म ही सच्चा धन है। नकली धन तो नकली शरीर के लिए चाहिए लेकिन असली धन जीवात्म के लिए चाहिए। धन तो असली धन जीवात्मा के लिए चाहिए। धन तो तिजोरी में, बैंक में रहता है। मृत्यु आ गयी तो धन साथ में नहीं चलता।
साथी हैं मित्र हैं, गंगा के जलबिन्दु पान तक।
अर्धांगिनी बढ़ेगी तो केवल मकान तक।
परिवार के सब लोग चलेंगे श्मशान तक।
बेटा भी हक निभा देगा अग्निदान तक।
केवल धर्म ही साथ निभायेगा दोनों जहान तक।।
केवल धर्म ही यहाँ और परलोक तक साथ चलता है। जो साथ नहीं छोड़ता वह धर्म है। किसी को न सताने का व्रत लेना धर्म है। धर्म के दस दिव्य लक्षण हैं। अपने जीवन में कैसी भी परिस्थिति आये तो भी धैर्य न छोड़ें। क्षमा का सदगुण – यह धर्म का दूसरा लक्षण है। इन्द्रियाँ और मन इधर-उधर भागे तो दम मार के उनको सही रास्ते लगाना, यह तीसरा लक्षण है। अस्तेय (चोरी न करना) धर्म का चौथा लक्षण है। भीतर भी पवित्र भाव और बाहर भी पवित्र खानपान, यह धर्म का पाँचवाँ लक्षण है। छठा है इन्द्रियों को संयत करना और सातवाँ लक्षण है कि बुद्धि ज्ञानमय हो, भगवन्मय, सात्त्विक हो। आठवाँ है विद्या, वेदशास्त्रों की विद्या। नौवाँ है सत्य बोलना और दसवाँ है अक्रोध। धर्म के ये दस लक्षण हैं।
उद्धवजी ने पूछाः “प्रभु ! आपकी दृष्टि में यज्ञ किसको बोलते हैं ?”
भगवान ने हँसते हुए कहाः “उद्धव ! सभी यज्ञों में उत्तम, श्रेष्ठ यज्ञ है मेरे साथ प्रीति करना, मेरा ज्ञान पाना, मेरा सत्संग सुनना।”
“गीता” में भगवान ने कहा हैः यज्ञानां जपयज्ञोઽस्मि। ʹयज्ञों में जपयज्ञ तो मेरा ही स्वरूप है।ʹ सारे यज्ञों से उत्तम यज्ञ यही है कि व्यक्ति को भगवान के नाम की दीक्षा मिल जाय और मंत्र का अर्थ समझकर वह जप करे। जिसने गुरुदीक्षा ली है और जप करता है तो तीर्थ बोलते हैं- “हम किसको पवित्र करें ? जपयज्ञ करने वाला गुरुदीक्षा से सम्पन्न साधक तो हमको ही पवित्र करने वाला है।” मंदिर कहते हैं- ʹय तो चलता फिरता मंदिर है क्योंकि इसके हृदय में भगवान के नाम का जप भी है, भगवान की प्रीति भी है और गुरु का दिया हुआ मंत्र भी है।ʹ मंदिर के देवता भी बोलते हैं कि ʹयह तो स्वयं चलता-फिरता है।ʹ
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 24,25
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