(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)
बुद्धि तीन प्रकार की होती है। एक होती है नौदी बुद्धि। घोड़े की पीठ पर पहले एक गद्दी रखी जाती है, जिस पर जीन कसी जाती है। उसे ʹनौदʹ कहते हैं। उसमें सुआ भौंक कर निकाल दो तो वैसे की वैसी ही रह जाती है वैसी ही नौदी बुद्धि होती है। उसमें सत्संग का प्रवेश हुआ तो ठीक लेकिन सत्संग की जगह से गये तो वैसी-की-वैसी। चाहे सौ-सौ जूता खायें, तमाशा घुसकर देखेंगे। यह नौदी बुद्धि होती है। कितना बोलाः भाई ! आपस में मेल जोल से रहो, काहे को लड़ते हैं पति-पत्नी ?ʹ फिर भी देखो तो हाल वही का वही ! जो नौदी बुद्धि वाले होते हैं, उन पर सत्संग का असर जल्दी नहीं होता।
दूसरी होती है मोती बुद्धि। जैसे मोती में छेद किया तो जितना सुराख किया उतना ही रहेगा। ऐसे ही मोती बुद्धि वाले ने जितना सत्संग सुना, उतना ही उसको याद रहेगा और किसी को सुना भी देगा।
तीसरी होती है तैलीय बुद्धि। जैसे तेल की एक बूँद पानी से भरी थाली में डालते हैं तो पूरी थाली में फैल जाती है, ऐसे ही तैलीय बुद्धिवाले को सदगुरु ने कोई संकेत किया तो उसकी बुद्धि में, उसके विवेक में फैल जाता है और वह उसे अमल में लाने की कोशिश करता है। वह फिसलेगा पर फिर वापस प्रार्थना करेगा और देर-सवेर पार हो जायेगा।
नौदी से मोती बुद्धि अच्छी है और मोती से तैलीय बुद्धि अच्छी है। नौदी बुद्धि वाले नहीं सुधरते। वे तो खुद परेशान होते हैं, अपमानित होते हैं और जिनके प्रति श्रद्धा रखते हैं उनको भी परेशान करते हैं। यदि आपकी बुद्धि नौदी बुद्धि है तो आप उसे मोती बुद्धि बनायें और मोती बुद्धि को तैलीय बुद्धि बनाकर अपना विवेक जगायें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 9
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