(आत्मनिष्ठ पूज्य बापू जी की मधुमय अमृतवाणी)
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।
जन्म जन्मान्तरों की पाप-वासनाएँ, दूषित कर्मों के बन्धन सत्संग काट देता है और हृदय में ही हृदयेश्वर का आनंद-माधुर्य भर देता है।
कितना भी गया-बीता व्यक्ति हो, मूर्खों से भी दुत्कारा हुआ महामूर्ख हो लेकिन सत्संग मिल जाय तो महापुरुष बन जाता है, राजा महाराजाओं से पूजा जाता है, देवताओं से पूजा जाता है, भगवान उसके दर के चाकर बन सकते हैं, सत्संग में वह ताकत है।
पूनम की रात थी। विजयनगर का राजा अपने महल की विशाल छत पर टहल रहा था। उसका खास प्यारा मंत्री उसके पीछे-पीछे जी हजूरी करते हुए टहल रहा था। बातों-बातों में विजयनगर नरेश ने कहाः “मंत्री ! तुम बोलते हो कि सत्संग से सब कुछ हो सकता है परंतु जिसमें अक्ल नहीं है, जिसका भाग्य हीन है, जिसके पास कुछ भी नहीं है उसको सत्संग से क्या मिलेगा ?”
बोलेः “राजन् ! कैसा भी गिरा हुआ आदमी हो, सत्संग से उन्नत हो सकता है।”
“गिरा हुआ हो पर अक्ल तो होनी चाहिए न !”
“माँ यह नहीं देखती है कि शिशु अक्लवाला है या बेवकूफ है, माँ तो शिशु को देखकर दूध पिलाती है। वह ऐसा नहीं कहती कि नाक बह रही है, हाथ-पैर गंदे हैं, कपड़े पुराने हैं, नहा-धोकर अच्छा बन जा तब मैं दूध पिलाऊँगी। नहीं-नहीं, जैसा-तैसा है मेरा है बस। सत्संग में आ गया, भगवान और संत के वचन कान में पड़े तो वह भगवान का हो गया, संत का हो गया।”
“परन्तु कुछ तो होना चाहिए।”
“कुछ हो तो ठीक है, न हो तो भी सत्संग उसे सब कुछ दे देगा।”
विजयनगर का नरेश मंत्री की बात काटता जा रहा है पर मंत्री सत्य और सत्संग की महिमा पर डटा रहा। इतने में एक ब्राह्मण लड़का जा रहा था। चाँदनी रात थी। दोनों हाथों में जूते थे, एक हाथ में एक जूता….। जूते में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। राजा ने गौर से देखा कि जूते में चाँद दिख रहा है तो बोलाः “रोको इस छोरे को।”
राजा ने लड़के से पूछाः “क्या नाम है तेरा और यह जूते में क्या ले जा रहा है ?”
“माँ ने कहा कि तेल ले आना, कोई बर्तन नहीं था तो मैं जूते में ले जा रहा हूँ।”
“मंत्री ! अब इसको तुम महान बनाकर दिखाओ !”
मंत्रीः “इसमें क्या बड़ी बात है !”
लड़के से बात करें तो ऐसा लगे कि पागल भी इससे अच्छे हैं। जूते में तो पागल भी तेल नहीं ले जायेगा।
राजाः “यह महान बन जायेगा ?”
मंत्रीः “हाँ, हाँ।”
उसके माँ बाप को बुलाया गया। मंत्री बोलाः “हम तुम्हारे भरण-पोषण की व्यवस्था कर देते हैं और तुम्हारे बेटे को हम सत्संग में ले जायेंगे। फिर देखो क्या होता है !” बेटा कौन था ? श्रीधर। अक्ल कैसी थी ? जूते में तेल ले जा रहा था ऐसा महामूर्ख था। सत्संग में ले गये उसको। मंत्री ने उसको ʹनृसिहंतापिनी उपनिषदʹ का एक मंत्र बता दिया नृसिंह भगवान का, बोलेः “इस मंत्र के जप से सारे सुषुप्त केन्द्र खुलते हैं।”
लड़के से मंत्र अऩुष्ठान करवा दिया। शुरु-शुरु में उबान लगती है। शुरु-शुरु में तो आप 1,2,3,….10 लिखने भी ऊबे थे। क, ख, ग….. ए, बी, सी, डी…. लिखने में भी ऊबे थे लेकिन हाथ जम गया तो बस…..।
एक अनपढ़ को रात्री-स्कूल में ले गये, बोलेः “तू क, ख, ग…. दस अक्षर लिख दे।”
बोलेः “साहब ! क्यों मुझे मुसीबत में डालते हो ? तुम्हारी दस भैंसें चरा दूँ, दस गायें चरा दूँ, दस किलो अनाज पिसवा दूँ लेकिन ये दस अक्षर मेरे को कठिन लगते हैं।”
आपको दस किलो अनाज उठाना कठिन लगेगा पर दस क्या बीसों अक्षर लिख दोगे क्योंकि हाथ जम गया। ऐसे ही सत्संग से मन भगवान के रस में, भगवान के ज्ञान में जम जाय तो यह नारकीय संसार आपके लिए मंगलमय मोक्षधाम बन जायेगा। लड़के को मंत्र मिला। सत्संग में यह भी सुना था कि पूर्णिमा या अमावस्या का दिन हो, उस दिन पति-पत्नी का व्यवहार करने वालों को विकलांग संतान की प्राप्ति होती हैं। अगर संयम से जप-ध्यान करते हैं तो उनकी बुद्धि भी विकसित होती है। शिवरात्रि, जन्माष्टमी, होली या दिवाली हो तो उन दिनों में जप-ध्यान दस हजार गुना फल देता है। गुरु के समक्ष बैठकर जप करते हैं तो भी उस जप का कई गुना फल होता है। जप करते-करते गुरुदेव का ध्यान करते हैं, सूर्य देव का ध्यान करते हैं तो बुद्धि विकसित होती है। सूर्यदेव का नाभि पर ध्यान करते हैं तो आरोग्य विकसित होता है।
जपात् सिद्धि जपात् सिद्धिः
जपात् सिद्धिर्न संशयः।
जप करते जाओ। अंतःकरण की शुद्धि होती जायेगी, भगवदीय महानता विकसित होती जायेगी।
एक दिन वह छोरा जप कर रहा था। जहाँ बैठा था वहाँ खपरैल या पतरे की छत होती है न, उसमें चिड़िया ने घोंसला बनाया था। चिड़िया तो चली गयी थी। घोंसले में जो बच्चा था, धड़ाक से जमीन पर गिर पड़ा। अभी-अभी अंडे से निकला था। पंख-वंख फूटे नहीं थे, दोपहर का समय था। लपक-लपक… उसका मुँह बन्द हो रहा था, खुल रहा था, मानो अभी मरा। बालक श्रीधर को लगा कि ʹइस बेचारे का क्या होगा ? इसकी माँ भी नहीं है और वह आ भी जायेगी तो इसको चोंच में लेकर ऊपर तो रख पायेगी नहीं। इसका कोई भी नहीं है, फिर याद आया कि सत्संग में सुना है कि ʹसभी के भगवान हैं। मूर्ख लोग होते हैं जो बोलते हैं कि मैं अनाथ हो गया, पिता मर गया, मेरा कोई नहीं। पति मर गया, मेरा कोई नहीं, मैं विधवा हूँ…. यह मूर्खों का कहना है। जगत का स्वामी मौजूद है तो तू विधवा कैसे ? जगत का स्वानी मौजूद है तो तू अनाथ कैसे ?
यह तो अनाथ जैसा है अभी, इसके माँ-बाप भी नहीं इधर, पंख भी नहीं। अब देखें जगत का नाथ इसके लिए क्या करता है !ʹ
इतने में जगत के नाथ की क्या लीला है, उसने दो मक्खियों की मति फेरी। वे मक्खियाँ आपस में लड़ पड़ीं। दोनों ऐसी आपस में भिड़ गयीं कि धड़ाक से लपक-लपक करने वाले बच्चे के मुँह के अंदर घुस गयीं। बच्चे ने मुँह बन्द करके अपना पेट भर लिया।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका यूँ कहे, सबका दाता राम।।
श्रीधर ने कहाः ʹअरे ! हद हो गयी… मक्खियों का प्रेरक उनको लड़ाकर चिड़िया के बच्चे के मुँह में डाल देता है ताकि उसकी जान बचे और वे मक्खी-योनि से आगे बढ़कर चिड़िया बने। वह कैसा है मेरा प्रभु ! प्रभु तुम कैसे हो ? मक्खी के भी प्रेरक हो, चिड़िया के भी प्रेरक हो और मेरे दिल में भी प्रेरणा देकर इतना ज्ञान दे रहे हो। मैं तो जूते में तेल ले जाने वाला और मेरे प्रति तुम्हारी इतनी रहमत ! प्रभु ! प्रभु ! ૐ….ૐ…..
आगे चलकर यही श्रीधर महान संत बन गये, जिनका नाम पड़ा श्रीधर स्वामी। अयाचक (अन्न आदि के लिए याचना न करने का) व्रत था इनका। इन्होंने ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ पर टीका लिखी। लिखते समय गीता के ʹयोगक्षेमं वहाम्यहम्ʹ पद को काट के ʹयोगक्षेमं ददाम्यहम्ʹ लिख दिया और जलाशय में स्नान करके फिर व्याख्या लिखूँगा ऐसा सोचकर स्नान करने गये। इतने में बालरूप में नन्हें-मुन्ने श्रीकृष्ण चावल-दाल मिश्रित खिचड़ी की गठरी लेकर आये और बोलेः “आपके घर में आज रात के लिए खिचड़ी नहीं है। लो, मेरा बोझा उतार लो।”
श्रीधर की पत्नी दंग रह गयी। बालक से वार्तालाप करके आश्चर्य के समुद्र में गोते खाने लगी। उसने बालक को गौर से देखा तो बोलीः “तुम्हारा होंठ सूजा हुआ है। किसने मारा तुम्हारे मुँह पर तमाचा ?”
“आपके पति श्रीधर स्वामी ने। बाद में वे स्नान करने गये। अब मैं जाता हूँ।”
कुछ ही समय में श्रीधर स्वामी स्नान करके लौटे। पत्नी ने कहाः “इतना सुकुमार बालक खिचड़ी का बोझ वहन करके आया और आपने उसके मुँह पर चाँटा मारा !”
पत्नी की बात विस्तार से सुनकर श्रीधर स्वामी को यह समझने में देर न लगी कि भगवान के ʹयोगक्षेमं वहाम्यहम्ʹ वचन को काटकर ʹयोगक्षेमं ददाम्यहम्ʹ लिखा, वह कितना गलत है यह समझाने नंदनंदन आये थे।
कहाँ तो जूते में तेल ले जाने वाले और कहाँ भगवान के दर्शन करने वाली पत्नी न समझ पायी और ये समझ गये। ʹगीताʹ पर लिखी श्रीधर स्वामी की टीका बड़ी सुप्रसिद्ध है। हमारे गुरु जी भी पढ़ते सुनते थे, हमने भी पढ़ी सुनी है।
आखिर मंत्री का बात सत्य साबित हुई। सत्संग कहाँ-से-कहाँ पहुँचा देता है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 16, 17,18 अंक 236
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