अजवायन उष्ण, तीक्ष्ण, जठराग्निवर्धक, उत्तम वायु व कफनाशक, आमपाचक व पित्तवर्धक है। वर्षा ऋतु में होने वाले पेट के विकार, जोड़ों के दर्द, कृमिरोग तथा कफजन्य विकारों में अजवायन खूब लाभदायी है।
अजवायन में थोड़ा-सा काला नमक मिलाकर गुनगुने पानी के साथ लेने से मंदाग्नि, अजीर्ण, अफरा, पेट का दर्द एवं अम्लपित्त (एसिडिटी) में राहत मिलती है।
भोजन के पहले कौर के साथ अजवायन खाने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है। संधिवात और गठिया में अजवायन के तेल की मालिश खूब लाभदायी है।
तेल बनाने की विधिः 250 ग्राम तिल के तेल को गर्म करके नीचे उतार लें। उसमें 15 से 20 ग्राम अजवायन डालकर कुछ देर तक ढक के रखें फिर छान लें, अजवायन का तेल तैयार ! इससे दिन में दो बार मालिश करें।
अधिक मात्रा में बार-बार पेशाब आता हो तो अजवायन और तिल समभाग मिलाकर दिन में एक से दो बार खायें।
मासिक धर्म के समय पीड़ा होती हो तो 15 से 30 दिनों तक भोजन के बाद या बीच में गुनगुने पानी के साथ अजवायन लेने से दर्द मिट जाता है। मासिक अधिक आता हो, गर्मी अधिक हो तो यह प्रयोग न करें। सुबह खाली पेट 2-4 गिलास पानी पीने से अनियमित मासिक स्राव में लाभ होता है।
उलटी में अजवायन और एक लौंग का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटना लाभदायी है।
सभी प्रयोगों में अजवायन की मात्राः आधा से दो ग्राम।
सावधानीः शरद व ग्रीष्म ऋतु में तथा पित्त प्रकृतिवालों को अजवायन का उपयोग अत्यल्प मात्रा में करना चाहिए।
स्वास्थ्य वर्धक ʹजौʹ
आयुर्वेद ने ʹजौʹ की गणना नित्य सेवनीय द्रव्यों में की है। जौ कफ-पित्तशामक, शक्ति व पुष्टिवर्धक है। यह पचने में थोड़ा भारी, वायुवर्धक, मलवर्धक वे पेशाब खुलकर लाने वाला है। जौ चर्बी व कफ को घटाता है। अतः सर्दी, खाँसी, दमा आदि कफजन्य विकार, दाह, जलन, रक्तपित्त आदि पित्तजन्य विकार, मूत्रसंबंधी रोग व मोटापे में जौ खूब लाभदायी है। यह जठराग्नि व मेधा को बढ़ाने वाला तथा कंठ को सुरीला बनाने वाला है। इसके सेवन से उत्तम वर्ण की प्राप्ति होती है। जौ कंठ व चर्म रोगों में लाभदायी है।
कोलेस्ट्रोल व एलडीएल की वृद्धि, हृदयरोग, उच्च रक्तदाब, किडनी फेल्युअर व कैंसर में गेहूँ के स्थान पर जौ का उपयोग हितकारी सिद्ध हुआ है। जौ की पतली राब बनाकर ठंडी होने पर शहद मिला के पीने से उलटी, पेट का दर्द, जलन, बुखार में राहत मिलती है। पित्तजन्य विकारों में जौ का भात घी व दूध मिलाकर खाना लाभदायी है।
80 प्रतिशत गेहूँ के आटे में 20 प्रतिशत जौ का आटा मिलाकर बनायी गयी रोटी पौष्टिक, स्वास्थ्य-प्रदायक व बड़ी हितकारी होती है। जौ का मीठा या नमकीन दलिया भी बना सकते हैं।
अदरक व सोंठ
यह तीखी, उष्ण, कफ-वातशामक एवं जठराग्निवर्धक है। यह जुकाम, खाँसी, श्वास, मंदाग्नि आदि वर्षा ऋतु जन्य अनेक तकलीफों में लाभदायी व हृदय की क्रियाशक्ति को बढ़ाने वाली है।
औषधि-प्रयोगः दूध में 1-2 चुटकी सोंठ मिलाकर पीना हृदय के लिए बलदायी है अथवा तज का छोटा टुकड़ा डालकर उबाला हुआ दूध पी जायें (तज का टुकड़ा खाना नहीं है)।
ताजी छाछ में चुटकीभर सोंठ, सेंधा नमक व काली मिर्च मिलाकर पीने से आँव, मरोड़ तथा दस्त दूर होकर भोजन में रूचि बढ़ती है।
10 मि.ली. अदरक के रस में 1 चम्मच घी मिलाकर पीने से पीठ, कमर व जाँघ के दर्द में राहत मिलती है।
अदरक के रस में सेंधा नमक या हींग मिलाकर मालिश करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है।
घृतकुमारी रस
घृतकुमारी (ग्वारापाठा) के विषय में सभी धर्मग्रन्थों में सम्मानपूर्वक विवरण मिलता है। प्राचीन काल से भारतीय इसे औषधि के रूप में उपयोग में ला रहे हैं। यह स्वास्थ्य-रक्षक, सौंदर्यवर्धक व रोगनिवारक गुणों के कारण विख्यात रही है। यह आश्चर्यजनक औषधि 220 से भी अधिक रोगों में उपयुक्त सिद्ध हुई है।
घृतकुमारी शरीरगत दोषों व मल के उत्सर्जन के द्वारा शरीर को शुद्ध व सप्तधातुओं को पुष्ट कर रसायन का कार्य करती है। यह जंतुघ्न (एंटीबायोटिक) व विषनाशक भी है। यह स्वस्थ कोशिकाओं का निर्माण कर रोगप्रतिरोधक प्रणाली को मजबूत करने में अति उपयोगी है। आयुर्वेद के अनुसार ग्वारपाठा वात-पित्त-कफशामक, जठराग्निवर्ध, मलनिस्सारक, बल, पुष्टि व वीर्य़वर्धक तथा नेत्रों के लिए हितकारी है। यह यकृत (लीवर) के समस्त दोषों निवारण कर उसकी कार्यप्रणाली को सशक्त बनाता है, अतः यह यकृत के लिए वरदानस्वरूप है।
विविध त्वचाविकार, पीलिया, रक्ताल्पता, कफजन्य ज्वर, जीर्ण ज्वर (हड्डी का बुखार), खाँसी, तिल्ली की वृद्धि, नेत्ररोग, स्त्रीरोग, हर्पीज(Herpes), वातरक्त(gout), जलोदर(Ascitis), घुटनों व अन्य जोड़ों का दर्द, जलन, बालों का झड़ना आदि में उपयोगी है। पेट के पुराने रोग, चर्मरोग, गठिया व मधुमेह (डायबिटीज) में यह विशेष लाभप्रद है।
रस की मात्राः बच्चों के लिए 5 से 15 मि.ली. तथा बड़ों के लिए 15 से 25 मि.ली.) सुबह खाली पेट।
नीता वैद्य, वंदना वैद्य
(टिप्पणीः यह सभी आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर सेवाभाव से सस्ते में मिलेगी।)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 236
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