(नवरात्रिः 16 से 23 अक्तूबर 2012)
पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहू सूला।।
ʹसब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं।ʹ श्रीरामचरित. उ.कां. 120.15)
जीव को जिन चीजों में मोह होता है, देर सबेर वे चीजें ही जीव को रूलाती हैं। जिस कुटुम्ब में मोह होता है, जिन पुत्रों में मोह होता है, उनसे ही कभी-न-कभी धोखा मिलता है लेकिन अविद्या का प्रभाव इतना गहरा है कि जहाँ से धोखा मिलता है वहाँ से थोड़ा ऊब तो जाता है परंतु उससे छुटकारा नहीं पाता, वहीं चिपका रहता है।
समाधि नाम का एक वैश्य था। उसको भी धन-धान्य, कुटुम्ब में बहुत आसक्ति थी, बहुत मोह था। लेकिन उन्हीं कुटुम्बियों ने, पत्नी और पुत्र ने धन के लालच में उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह इधर-उधर भटकते-भटकते जंगलों-झाड़ियों से गुजरते हुए मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचा।
ऋषि का आश्रम देखकर उसके चित्त को थोड़ी शांति मिली। अनुशासनबद्ध, संयमी और सादे रहन-सहनवाले साधन भजन करके आत्मशांति की प्राप्ति की ओर आगे बढ़े हुए, निश्चिंत जीवन जीने वाले साधकों को देखकर समाधि वैश्य के मन में हुआ कि इस आश्रम में कुछ दिन तक रहूँगा तो मेरे चित्त की तपन जरूर मिट जायेगी।
सुख, शांति और चैन इन्सान की गहरी माँग है। अशांति कोई नहीं चाहता, दुःख कोई नहीं चाहता लेकिन मजे की बात यह है कि जहाँ से तपन पैदा होती है वहाँ से इन्सान सुख चाहता है और जहाँ से अशांति मिलती है वहाँ से शांति चाहता है, मोह की महिमा ही ऐसी है।
यह मोह जब तक ज्ञान के द्वारा निवृत्त नहीं होता है, तब तक कंधे बदलता है, एक कंधे का बोझ दूसरे कंधे पर धर देता है। ऐसे कंधे बदलते-बदलते जीवन बदल जाता है। अरे ! मौत भी बदल जाती है। कभी पशु का जीवन तो कभी कैसी। अगर जीवन और मौत के बदलने से पहले अपनी समझ बदल लें तो बेड़ा पर हो जाय। समाधि वैश्य का कोई सौभाग्य होगा, कुछ पुण्य होंगे, ईश्वर की विशेष कृपा होगी, वह मेधा ऋषि के आश्रम में रहने लगा।
उसी आश्रम में राजा सुरथ भी आ पहुँचा। राजा सुरथ को भी राजगद्दी का अधिकारी बनने से रोकने के लिए मंत्रियों ने सताया था और धोखा दिया था। उनके कपटी व्यवहार से उद्विग्न होकर शिकार के बहाने वह राज्य से भाग निकला था। उसे संदेह हो गया था कि किसी-न-किसी षड्यंत्र में फँसाकर वे मुझे मार डालेंगे। अतः उसकी अपेक्षा राज्य का लालच छोड़ देना अच्छा है।
इस तरह समाधि वैश्य और राजा सुरथ दोनों ऋषि के आश्रम में रहने लगे। दोनों एक ही प्रकार के दुःख से पीड़ित थे। वे आश्रम में तो रहते थे लेकिन मोह नष्ट करने के लिए नहीं आये थे, ईश्वरप्राप्ति के लिए नहीं आये थे। अपने कुटुम्बियों ने, करीबी लोगों ने धोखा दिया था, संसार से जो ताप मिला था उसकी तपन बुझाने आये थे। उनके मन में आसक्ति और भोगवासना तो थी ही, इसलिए सोच रहे थे कि तपन मिट जाय फिर चले जायेंगे।
ऋषि आत्मज्ञानी थे, उनके शिष्य भी सेवाभावी थे परंतु समाधि वैश्य और राजा सुरथ की हालत तो कुछ और थी। उन दोनों ने वार्तालाप शुरु किया। राजा सुरथ ने मेधा ऋषि के चरणों में प्रार्थना कीः “स्वामी जी ! हम आश्रम में रह तो रहे हैं लेकिन हमारा मन वही सांसारिक सुख चाहता है। हम समझते हैं कि संसार स्वार्थ से भरा हुआ है। कितने ही लोग मरकर सब कुछ इधर छोड़कर चले गये हैं। धोखेबाज सगे-सम्बन्धियों ने तो हमसे जीते-जी सब छुड़ा दिया है। फिर भी ऐसी इच्छा होती रहती है कि स्वामी जी आज्ञा दें तो हम उधर जायें और आशीर्वाद भी दें कि हमारी पत्नी और बच्चे हमें स्नेह करें, धन-धान्य बढ़ता रहे और हम मजे से जियें।”
ऋषि उनके अंतःकरण की सच्चाई देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहाः “इसी का नाम माया है। इसी माया की दो शक्तियाँ हैं- आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। ʹचाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुसकर देखेंगे।ʹ तमाशा क्या देखते हैं ? जूते खा रहे हैं…. धक्का मुक्की सह रहे हैं… हुईशो…. हुईशो चल रहा है। कहेंगे बहुत मजा है इस जीवन में। लेकिन ऐसा मजा लेने में जीवन पूरा कर देने वाला जीवन के अंत में देखता है कि संसार में कोई सार नहीं है। ऐसा करते-करते सब चले गये। दादा-परदादा चले गये और हम तुम भी चले जायेंगे। हम इस संसार से चले जायें उसके पहले इस संसार की असारता को समझकर एकमात्र सारस्वरूप परमात्मा में जाग जायें तो कितना अच्छा !”
सुरथ राजा ने कहाः “स्वामी जी ! यह सब हम समझते हैं फिर भी हमारे चित्त में ईश्वर के प्रति प्रीति नहीं होती और संसार से वैराग्य नहीं आता। इसका क्या कारण होगा ? संसार की नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता के बारे में सुनते हैं लेकिन नश्वर संसार का मोह नहीं छूटता और शाश्वत परमात्मा में मन नहीं लगता है। ऐसा क्यों ?”
मेधा ऋषि ने कहाः “इसी को सनातन धर्म के ऋषियों ने ʹमायाʹ कहा है। वह जीव को संसार में घसीटती रहती है। ईश्वर सत्य है, परब्रह्म परमात्मा सत्य है परंतु माया के कारण असत् संसार, नाशवान जगत सच्चा लगता है। इस माया से बचना चाहिए। माया से बचने के लिए ब्रह्मविद्या का आश्रय लेना चाहिए। वही संसार सागर से पार कराने वाली विद्या है। इस ब्रह्मविद्या की आराधना-उपासना से बुद्धि का विकास होगा और आसुरी भाव काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार मिटते जायेंगे। ज्यों-ज्यों विकार मिटते जायेंगे त्यों-त्यों दैवी स्वभाव प्रकट होने लगेगा और उस अंतर्यामी परमात्मा में प्रीति होने लगेगी। नश्वर का मोह छूटता जायेगा और उस परम देव को जानने की योग्यता बढ़ती जायेगी।”
फिर उन कृपालु ऋषिवर ने दोनों के पूछने पर उन्हें भगवती की पूजा-उपासना की विधि बतायी। ऋषिवर ने उस महामाया की आराधना करने के लिए जो उपदेश दिया, वही शाक्तों का उपास्य ग्रंथ ʹदुर्गासप्तशतीʹ के रूप में प्रकट हुआ। तीन वर्ष तक आराधना करने पर भगवती साक्षात् उनके समक्ष प्रकट हुई और वर माँगने के लिए कहा।
राजा सुरथ के मन में संसार की वासना थी अतः उन्होंने संसारी भोग ही माँगे किंतु समाधि वैश्य के मन में किसी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं रह गयी थी। संसार की दुःखरूपता, अनित्यता और असत्यता उनकी समझ में आ चुकी थी अतः उन्होंने भगवती से प्रार्थना कीः “देवी ! अब ऐसा वर दो कि ʹयह मैं हूँʹ और ʹयह मेरा हैʹ – इस प्रकार की अहंता-ममता और आसक्ति को जन्म देने वाला अज्ञान नष्ट हो जाय और मुझे विशुद्ध ज्ञान की उपलब्धि हो।”
भगवती ने बड़ी प्रसन्नता से समाधि वैश्य को ज्ञान दान किया और वे स्वरूप-अवस्थित होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 12, अंक 238
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