सदगुरु से क्या सीखें ?

सदगुरु से क्या सीखें ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से)

साधक को 16 बातें अपने गुरु से जान लेनी चाहिए अथवा गुरु को अपनी ओर से कृपा करके शिष्य को समझा देनी चाहिए। इन 16 बातों का ज्ञान साधक के जीवन में होगा तो वह उन्नत रहेगा, स्वस्थ रहेगा, सुखी रहेगा, संतुष्ट रहेगा, परम पद को पाने का अधिकारी हो जायेगा।

पहली बात, गुरुजी से संयम की साधना सीख लेनी चाहिए।

ब्रह्मचर्य की साधना सीख लो। गुरु जी कहेंगे- “बेटा ! ब्रह्म में विचरण करना ब्रह्मचर्य है। शरीरों को आसक्ति से देखकर अपना वीर्य क्षय किया तो मन, बुद्धि, आयु और निर्णय दुर्बल होते हैं। दृढ़ निश्चय करके ʹ अर्यमायै नमः।ʹ का जप कर, जिससे तेरा ब्रह्मचर्य मजबूत हो। ऐसी किताबें न पढ़, ऐसी फिल्में न देख जिनसे विकार पैदा हों। ऐसे लोगों के हाथ से भोजन मत कर मत खा, जिससे तुम्हारे मन में विकार पैदा हों।”

दूसरी बात गुरु से सीख लो, अहिंसा किसे कहते हैं और हम अहिंसक कैसे बनें ?

बोलेः “मन से, वचन से और कर्म से किसी को दुःख न देना ही अहिंसा है।

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।।

जो दूसरे को ठेस पहुँचने के लिए बोलता है, उसका हृदय पहले ही खराब हो जाता है। उसकी वाणी पहले की कर्कश हो जाती है। इसलिए भले ही समझने के रोकें, टोंकें, डाँटें पर मन को शीतल बनाकर, राग से नहीं, द्वेष से नहीं, मोह से नहीं। राग, द्वेष और मोह – ये तीनों चीजें आदमी को व्यवहार व परमार्थ से गिरा देती हैं। श्रीकृष्ण का कर्म रागरहित है, द्वेषरहित है, मोहरहित है। अगर मोह होता तो अपेने बेटों को ही सर्वोपरि कर देते। अपने बेटों के लक्षण ठीक नहीं थे तो ऋषियों के द्वारा शाप दिलाकर अपने से पहले उनको भेज दिया, तो मोह नहीं है। गांधारी को मोह था तो इतने बदमाश दुर्योधन को भी वज्रकाय बनाने जा रही थी।

गुरु से यह बात जान लें कि हम हिंसा न करें। शरीर से किसी को मारें-काटें नहीं, दुःख न दें। वाणी से किसी को चुभने वाले वचन न कहें और मन से किसी का अहित न सोचें।”

तीसरी बात पूछ लो कि गुरुदेव ! सुख-दुःख में समबुद्धि कैसे रहें ?

गुरुदेव कहेंगे कि “कर्म भगवान के शरणागत होकर करो। जब मैं भगवान का हूँ तो मन मेरा कैसे ? मन भी भगवान का हुआ। मैं भगवान का हूँ तो बुद्धि भी मेरी कैसे ? बुद्धि भी भगवान की हुई। अतः बुद्धि का निर्णय मेरा निर्णय नहीं है।

भगवान की शरण की महत्ता होगी तो वासना गौण हो जायेगी और नियमनिष्ठा मुख्य हो जायेगी। अगर वासना मुख्य है तो आप भगवान की शरण नहीं हैं, वासना की शरण हैं। जैसे शराबी को अंतरात्मा की प्रेरणा होगी कि ʹबेटा ! आज दारू पी ले, बारिश हो गयी है, मौसम गड़बड़ है।ʹ भगवान प्रेरणा नहीं करते, अपने संस्कार प्रेरणा करते हैं। झूठा, कपटी, बेईमान आदमी बोलेगाः ʹभगवान की प्रेरणा हुईʹ लेकिन यह बिल्कुल झूठी बात , वह अपने को ही ठगता है। ʹसमत्वं योग उच्यते।ʹ हमारे चित्त में राग न हो, द्वेष न हो और मोह न हो तो हमारे कर्म समत्व योग हो जायेंगे। श्रीकृष्ण, श्रीरामजी, राजा जनक, मेरे लीलाशाह प्रभु और भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के कर्म समत्व योग हो जाते हैं। सबके लिए अहोभाववाले, गुदगुदी पैदा करने वाले, सुखद, शांतिदायी व उन्नतिकारक हो जाते हैं। ज्ञानी महापुरुष के सारे कर्म सबका मंगल करने वाले हो जाते हैं। ऐसा ज्ञान-प्रकाश आपके जी जीवन में कब आयेगा ? जब आप राग-द्वेष और मोह रहित कर्म करोगे। ईश्वर सबमें है, अतः सबका मंगल, सबका भला चाहो। कभी किसी को डाँटो या कुछ भी करो तो भलाई के लिए करो, वैर की गाँठ न बाँधो तो समता आ जायेगी।”

चौथी बात पूछ लो कि वास्तविक धर्म क्या है ?

गुरु कहेंगेः “जो सारे ब्रह्मांडों को धारण कर रहा है वह धर्म है सच्चिदानंद धर्म। जो सत् है, चेतन है, आनंदस्वरूप है, उसकी ओर चलना धर्म है। जो असत् है, जड़ है, दुःखरूप है उसकी तरफ चलना अधर्म है। आप सत् हैं, शरीर असत् है। शरीर को ʹमैंʹ मानना और ʹसदाʹ बना रहूँ – ऐसा सोचना रावण के लिए भी भारी पड़ गया था तो दूसरों की क्या बात  है ! शरीर कैसा भी मिले पर छूट जायेगा लेकिन मैं अपने-आपसे नहीं छूटता हूँ, ऐसा ज्ञान गुरुजी देंगे। तुम सत् हो, सुख-दुःख और शरीर की जन्म-मृत्यु असत् है। तुम चेतन हो, शरीर जड़ है। हाथ को पता नहीं मैं हाथ हूँ, पैर को पता नहीं मैं पैर हूँ लेकिन तुम्हें पता है यह हाथ है, यह पैर है। तुम सत् हो, तुम चेतन हो तो अपनी बुद्धि में सत्ता का, चेतनता का आदर हो और तदनुरूप अपनी बुद्धि व प्रवृत्ति हो तो आप दुःखों के सिर पर पैर रख के परमात्म-अनुभव के धनी हो जायेंगे।

गुरु से धर्म सीखो। मनमाना धर्म नहीं। कोई बोलेगाः ʹहम पटेल हैं, उमिया माता को मानना हमारा धर्म है।ʹ, ʹहम सिंधी हैं, झुलेलाल के आगे नाचना, गाना और मत्था टेकना हमारा धर्म है।ʹ

ʹहम मुसलमान हैं, अल्ला होઽઽ अकबर… करना हमारा धर्म है।ʹ यह तो मजहबी धर्म है। आपका धर्म नहीं है। लेकिन प्राणीमात्र का जो धर्म है, वह सत् है, चित् है, आनंदस्वरूप है। अपने सत् स्वभाव को, चेतन स्वभाव को, आनंद स्वभाव को महत्त्व देना। न दुःख का सोचना, न दुःखी होना, न दूसरों को दुःखी करना। न मृत्यु से डरना, न दूसरों को डराना। न अज्ञानी न बनना, न दूसरों को अज्ञान में धकेलना। यह तुम्हारा वास्तविक धर्म है, मानवमात्र का धर्म है। फिर नमाजी भले नमाज पढ़ें और हरकत नहीं, झुलेलाल वाले खूब झुलेलाल करें कोई मना नहीं लेकिन यह सार्वभौम धर्म सभी को मान लेना चाहिए, सीख लेना चाहिए कि आपका वास्तविक स्वभाव सत् है, चित् है, आनंद है। शरीर नहीं था तब भी आप थे, शरीर है तब भी आप हो और शरीर छूटने के बाद भी आप रहेंगे। शरीर को पता नहीं मैं शरीर हूँ किंतु आपको पता है। वैदिक ज्ञान किसी का पक्षपाती नहीं है, वह वास्तविक सत्य धर्म है। गुरु से सत्य धर्म सीख लो।”

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 238

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पाँचवाँ प्रश्न गुरु जी से यह पूछें कि “गुरु महाराज ! कैवल्य वस्तु क्या है ?”

गुरु जी कहेंगेः “सब कुछ आ-आकर चला जाता है, फिर भी जो रहता है वह कैवल्य तत्त्व है। आज तक जो तुम्हारे पास रहा है वह कैवल्य है, अन्य कुछ नहीं रहा। सब सपने की नाईं बीत रहा है, उसको जानने वाला ʹमैंʹ – वह तुम कैवल्य हो। वह तुम्हारा शुद्ध ʹमैंʹ कैवल्य, विभु, व्याप्त है। जिसको तुम छोड़ नहीं सकते वह कैवल्य तत्त्व है और जिसको तुम रख नहीं सकते वह मिथ्या माया का पसारा है।ʹ गुरु जी ज्ञान देंगे और उसमें आप टिक जाओ।

छठा प्रश्न गुरु जी से यह पूछो कि “गुरु महाराज ! एकांत से शक्ति, सामर्थ्य एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। एकांत में हम कैसे रहें ? एकांत में रहने को जाते हैं लेकिन भाग आते हैं।”

गुरुजी कहेंगे कि “भजन में आसक्ति होने पर, गुरु के वचनों में दृढ़ता होने पर, अपना दृढ़ संकल्प और दृढ़ सूझबूझ होने पर एकांत में आप रह सकोगे। मौन-मंदिर में बाहर से ताला लग जाता है तो शुरु-शुरु में लगता है कि कहाँ फँस गये ! आरम्भ में आप भले न रह सको लेकिन एक-एक दिन करके मौन मंदिर में सात दिन कैसे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। वक्त मिले तो पन्द्रह दिन क्या, पन्द्रह महीने पड़े रहें इतना सुख प्रकट होता है एकांत में ! एकांत का जो आनंद है, एकांत में जो भजन का माधुर्य है, एकांत में जो आपकी सोयी हुई शक्तियाँ और ब्रह्मसुख, ब्रह्मानंद प्रकट होता है…. मैंने चालीस दिन मौन, एकांत का फायदा उठाया और जो खजाने खुले, वे बाँटते-बाँटते 48 साल हो गये, रत्तीभर खूटता नहीं-ऐसा मिला मेरे को। एकांतवास की बड़ी भारी महिमा है ! भजन में रस आने लगे, विकारों से उपरामता होने लगे, देखना, सुनना, खाना, सोना जब कम होने लगे तब एकांत फलेगा। नहीं तो एकांत में नींद बढ़ जायेगी, तमोगुण बढ़ जायेगा।”

सातवीं बात गुरुदेव से यह जाननी चाहिए कि “गुरु महाराज ! अपरिग्रह कैसे हो ?”

गुरुजी समझायेंगेः “जितना संग्रह करते हैं अपने लिए, उतना उन वस्तुओं को सँभालने का, बचाने का तनाव रहता है और मरते समय ʹमकान का, पैसे का, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा ?….ʹ चिंता सताती है। पानी की एक बूँद शरीर से पसार हुई, बेटा बनी और फिर ʹमेरे बेटे का क्या होगा ?…ʹ चिंता हो जाती है, नींद नहीं आती। लाखों बेटे धरती पर घूम रहे हैं उनकी चिंता नहीं है लेकिन मेरे बेटे-बेटी का क्या होगा उसकी ही चिंता है। यह कितनी बदबख्ती है !

बेटे का ठीक-ठाक करो लेकिन ऐसी ममता मत करो कि भगवान को ही भूल जायें। लाखों बेटों को भूल जाओ और अपने बेटे में ही तुम्हारी आसक्ति हो जाय तो फिर उसी के घर में आकर पशु, प्राणी, जीव-जंतु बनकर भटकना पड़ेगा।”

तो अनासक्त कैसे हों, अपरिग्रही कैसे हों ?

गुरु जी बतायेंगेः “संसार की सत्यता और वासनाओं को विवेक वैराग्य से तथा महापुरुषों के संग से काटते जाओ। उनके सत्संग से उतना आकर्षण और परिग्रह नहीं रहेगा जितना पहले था, बिल्कुल पक्की बात है !” (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 27 अंक 239

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आठवीं बात गुरु महाराज से यह सीख लो कि हम हर हाल में, हर परिस्थिति में सदा संतुष्ट कैसे रहें ? संतोषी कैसे बनें ?

भगवान पर निर्भर रहने से मनुष्य संतोषी होता है। श्रीकृष्ण ने कहाः संतुष्टः सततं योगी….. त्रिभुवन में ऐसा कोई भोगी नहीं जो सदा संतुष्ट रह सके और संतोष के बराबर और कोई धन नहीं है। सारी पृथ्वी का राज्य मिल जाये, सोने की लंका मिल जाय लेकिन संतोष नहीं था तो रावण की दुर्दशा हुई। शबरी को संतोष था तो उसकी ऊँची दशा हो गयी। संतोष इतना भारी सदगुण है ! लोग सोचते हैं, ʹबराबर सेटल (सुस्थिर) हो जायें, आराम से रहें, कल को कुछ इधर-उधर हो जाये तो अपना फिक्स डिपोजिट काम करेगा।ʹ तो ईश्वर पर भरोसा नहीं है, प्रारब्ध पर भरोसा नहीं है। स्वामी रामसुखदासजी का अऩुभव है – सबसे रद्दी चीज है ʹपैसाʹ। न खाने के काम आता है, न पहनने के काम आता है, न बैठने के काम आता है और न सोने के काम आता है पर सताता जरूर है। जब उस रद्दी चीज को किसी के ऊपर कुर्बान (खर्च) करते हैं तब सोना, खाना, रहना, यश आदि मिलता है।

तो सदा संतोषी कैसे बनें ? भगवान पर निर्भर हो जाओ। शरीर का पोषण प्रारब्ध करता है, पैसा नहीं करता। पैसा होते हुए भी तुम लड्डू नहीं खा सकते क्योंकि मधुमेह (डायबिटीज) है। पैसा होते हुए भी तुम अपनी मर्सिडीज, ब्यूक आदि प्यारी, महँगी, मनचाही गाड़ियों में नहीं घूम सकते क्योंकि लकवा है। तो आप ईश्वर पर निर्भर रहो। जिस परमात्मा ने जन्मते ही हमारे लिए दूध की व्यवस्था की, वह सब कुछ छूट जायेगा तो भी हमारे लिए भरण-पोषण की व्यवस्था करेगा। नहीं भी करेगा तो शरीर मर जायेगा तब भी हम तो अमर हैं। वह अमर (आत्मा) किसी भी परिस्थिति में मर नहीं सकता, फिर चिंता किस बात की ? अमर को तो भगवान भी नहीं मार सकते हैं। अमर को भगवान क्या मारेंगे ! मरने वाले शरीर तो भगवान ने भी नहीं रखे और अमर तो भगवान का स्वरूप है, आत्मा है। आपको भगवान भी नहीं मार सकते तो बेरोजगारी क्या मार देगी ! भूख क्या मार देगी ! काल का बाप भी नहीं मार सकता। मरता है तब शरीर मरता है, आप अमर चैतन्य हैं। इस प्रकार ज्ञान की सूझबूझ से और प्रारब्ध पर, ईश्वर पर निर्भर होने से आप संतोषी बन जायेंगे। जो होगा देखा जायेगा, वाह-वाह !

नौवीं बात गुरुजी से सीख लो कि भगवान और शास्त्र में प्रीति कैसे आये ?

संत और भगवान की कृपा से संत और शास्त्र में होती है। संत और भगवान की कृपा कैसे मिले ? बोले, उनकी आज्ञा मानो। माता-पिता की आज्ञा में चलते हैं तो उनकी कृपा और सम्पत्ति मिलती है। ऐसे ही भगवान और संत की सम्पदा – शास्त्र-ज्ञान और उनका अनुभव मिलेगा।

दसवीं बात गुरुजी से सीख लो कि निद्रा-त्याग कैसे हो ?

भजन में अधिक प्रीति से तमस् अंश कम होगा। भजन के प्रभाव से निद्रा कम हो जायेगी और थकान भी नहीं होगी। जैसे गुरुपूनम के दिनों में किसी रात को हम डेढ़ बजे सोते हैं तो कभी साढ़े तीन बजे और सूरज उगने से पहले तो उठना ही है। और देखो कितनी प्रवृत्ति है ! तो क्या आपको हम थके-माँदे लगते हैं ? अर्जुन निद्राजित थे इस कारण उनका एक नाम गुड़ाकेश था। ऐसे ही उड़िया बाबा, घाटवाले बाबा भी निद्राजित थे। थोड़ा सा झोंका खा लेते थे बस। भजन में अधिक प्रीति से, अंतर्सुख मिलने से निद्रा का काम हो जाता है। सत्ययुग में लोग सोते नहीं थे। ध्यान, समाधि से हीं नींद का काम हो जाता था।

क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 21, 25 अंक 240

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गुरु जी से चौदहवीं बात यह जान लो कि स्त्री, पुत्र, गृह एवं सम्पत्ति भगवान को कैसे अर्पण करें ?

इनमें ममता रहेगी तो कितनी भी होशियारी छाँटे लेकिन जहाँ ममता है, मर के वहीं भटकेगा। तो इन्हें भगवान का कैसे मानें ?

वास्तव में पाँच भूतों की गहराई में भगवत्सत्ता है। सभी चीजें भगवत्सत्ता से बनी हैं, भगवत्सत्ता में ही रह रही हैं और भगवत्सत्ता में ही खेल रही हैं। इनमें केवल ममता ही है कि ʹयह मेरा बेटा है, मेरा घर है, मेरी स्त्री है।ʹ वास्तव में हमारा शरीर भी हमारा नहीं है, हमारे कहने में नहीं चलता। हम चाहते हैं बाल सफेद न हों पर हो जाते हैं, बूढ़ा न होना पड़े पर हो जाते हैं। जब शरीर ही मेरा नहीं तो ʹयह मेरी स्त्री, यह मेरा पति, यह मेरी सम्पत्ति…ʹ यह कितना सत्य है ? सब भ्रममात्र है। वास्तव में ʹभगवान मेरे हैं, मैं भगवान का हूँ।ʹ ऐसी प्रीति और समझ दोहराने से ममता की जंजीरें कटती जायेंगी, ममता का जाल कटता जायेगा। संत तुलसीदास जी ने सुंदर उपाय बताया हैः

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।

राग न रोष न दोष दुःख, दास भये भवपार।।

वह जन्म मरण के चक्कर से, दुःखों से पार हो जाता है।

पन्द्रहवाँ प्रश्न है कि संतों में प्रेम होने से इतना फायदा होता है तो संतों में, संत-वचनों में प्रीति कैसे हो ?

बोलेः ʹसंतों में प्रीति का एक ही उपाय है-उन्हीं की कृपा हो, ईश्वर की कृपा हो।ʹ

भगति तात अनुपम सुखमूला।

मिलई जो संत होइँ अऩुकूला।। (श्रीरामचरित. अरं. कां 15-2)

जब संत अनुकूल हों तब भक्ति मिलती है। संत अनुकूल कब होंगे ? संतों के सिद्धान्तों के अनुरूप अपने को ढालने की केवल इच्छा करने से। यदि ढाल नहीं सकते तो कोई बात नहीं, केवल इच्छा ही करो बस। बच्चा पढ़ा-लिखा थोड़े ही बाल मंदिर में आता है, केवल पढ़ने की इच्छामात्र से आता है तो आगे स्नातक हो जाता है। ऐसे ही उस इच्छामात्र से आये तो भी उसका काम बन जायेगा।

सोलहवाँ प्रश्न यह पूछो कि हम सेवा में सफल कैसे हों ?

सेवा के लिए ही सेवा करें। मन में कुछ ख्वाहिश रखकर बाहर से सेवा का स्वाँग करेंगे तो यह समाज के साथ धोखा है। जो समाज को धोखा देता है वह खुद को भी धोखा देता है। सेवा का लिबास पहनकर, सेवा का बोर्ड लगाकर अपना उल्लू सीधा करना यह काम उल्लू लोग जानते हैं। सच्चा सेवक तो सेवा को इतना महत्त्व देगा कि सेवा के रस से ही वह तृप्त रहेगा।

बोलेः ʹभगवान की कृपा से ही ईमानदारी की सेवा होती है।ʹ नहीं तो सेवा के नाम पर लोग बोलते हैं कि ʹहमारी बस सर्विस पिछले चालीस वर्षों से सतत प्रजा की सेवा में है। हमारी कम्पनी पिछले इतने सालों से सेवा कर रही है।ʹ अब सेवा की है कि सेवा के नाम पर अपने बँगले बनाये हैं, मर्सडीज लाये हैं ! अपने पुत्र-परिवार में ममता बढ़ायी फिर जन कल्याण की संस्था खुलवायी। अपनी वासनापूर्ति का नाम सेवा नहीं है। वासना-निवृत्ति हो जिस कर्म से, उसका नाम है सेवा ! अहंकार पोसने का नाम सेवा नहीं है। मनचाहा काम तो कुत्ता भी कर लेता है। आपने देखा होगा कि जब सड़क पर गाड़ी दौड़ाते हैं तो कई बार कुत्ते आपकी गाड़ी के पीछे भौंकते हुए थोड़ी दूर तक दौड़ लगा लेते हैं। यह मनचाहा काम तो कुत्ते भी खोज लेते हैं। आप मनचाहा करोगे तो आपका मन आप पर हावी हो जायेगा। यदि किसी कार्य में आपकी रूचि नहीं है, कोई कार्य आपको अच्छा नहीं लगता है लेकिन शास्त्र और सदगुरू कहते हैं कि वह करना है तो बस, बात पूरी हो गयी ! वह कार्य कर ही डालना चाहिए।

ये सोलह बातें अगर जान लीं और इन पर डट गये तो बस, हो गया काम ! (समाप्त)

स्रोतः ऋषि प्रसाद मई 2013, पृष्ठ संख्या 25,26, अंक 245

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