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आत्मज्ञान ही सार, बाकी सब बल भार !


संत ज्ञानेश्वर जी पुण्यतिथिः 11 दिसम्बर 2012

संत ज्ञानेश्वर महाराज का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि में हुआ था। यह परम पावन पर्वकाल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का था। एक बार संत ज्ञानेश्वर जी, निवृत्तिनाथजी, सोपानदेवजी व मुक्ताबाई – ये चारों भाई बहन नेवासा (महाराष्ट्र) पहुँचे। वहाँ उन्हें एक महिला अपने पति के शव के पास रोती दिखाई दी। करुणावश संत ज्ञानेश्वर जी द्वारा मृतक का नाम पूछे जाने पर महिला ने बतायाः “सच्चिदानंद।” नाम सुनते ही ज्ञानेश्वरजी बोल उठेः “अरे ! सत्-चित्-आनंद की तो कभी मृत्यु हो ही नहीं सकती।” फिर उऩ्होंने मृतदेह पर अपना हाथ फेरा और चमत्कार हो गया ! वह मरा हुआ व्यक्ति जीवित हो उठा। वह व्यक्ति नवजीवन देने वाले, सच्चिदानंदस्वरूप में जगे उन महापुरुष के शरणागत हो गया। यही सच्चिदानंद आगे चलकर ज्ञानेश्वरजी के गीताभाष्य के लेखक ʹसच्चिदानंद बाबाʹ बने।

कुछ समय बीतने पर चारों संत नेवासा से आलंदी की यात्रा पर निकले। चलते-चलते वे पुणताम्बे गाँव में पहुँचे, जहाँ गोदावरी के तट पर कालवंचना करते हुए चांगदेव जी महासमाधि लगाकर बैठे थे। 1400 वर्ष की तपस्या के बल से वे महायोगी तो बन गये थे परंतु गुरु ज्ञान न होने के कारण अहंकार जोर मारता था। चांगदेवजी समाधी लगाते तो उनके चारों और मृतदेहें रखी जाती थीं और आसपास मृतकों के सगे-संबंधी बैठे रहते थे। चांगदेव जी समाधि से उठते तो पूछतेः “यहाँ कोई है क्या ?” तब आसमान से प्रेत-आत्माएँ ʹहम यहाँ हैंʹ कहकर अपने-अपने शरीर में पुनः प्रवेश कर जाती थीं और वे मृतशरीर पुनः जीवित हो उठते थे।

इन संतों को जब इस बात का पता चला तो ʹमृतदेहों के सगे-संबंधियों को चांगदेव जी की समाधि टूटने की राह देखकर परेशान क्यों होना पड़े !ʹ ऐसा सोचकर मुक्ताबाई ने कहाः “इन सभी मृतदेहों को एकत्र करो, मैं इन्हें जीवित कर देती हूँ।”

ऐसा ही किया गया। संत ज्ञानदेव जी से संजीवनी मंत्र लेकर मुक्ताबाई ने पास में पड़ी कुत्ते की लाश को सभी मृतदेहों के ऊपर घुमाकर दूर फेंक दिया। उसी क्षण वह कुत्ता जीवित होकर भाग गया तथा सभी मृतक भी एक साथ जीवित हो उठे। सभी लोग संतों की अनायास बरसी कृपा का गुणगान करने लगे। वहाँ से विदाई लेकर चारों भाई-बहन आगे की यात्रा पर निकल पड़े।

इधर चांगदेवजी ने समाधि से उठते ही वही प्रश्न पूछा पर कोई जवाब नहीं मिला। शिष्यों से सारा वृत्तान्त सुनते ही चांगदेवजी को तुरंत विचार आया की ʹपैंठण में भैंसे वेदमंत्र बुलाने वाले महान योगी बालक कहीं यही तो नहीं हैं !ʹ अतः दर्शन की उत्सुकतावश अंतर्दृष्टि से उन्होंने बालकों को आलंदी के रास्ते जाते देखा। पर पहले पत्र द्वारा सूचित करना आवश्यक समझकर वे पत्र लिखने बैठे परंतु विचलित हो गये कि यदि उनके नाम के आगे चिरंजीवि लिखूँ तो वे मुझसे ज्यादा सामर्थ्यवान हैं अतः उनका अपमान होगा। यदि ʹतीर्थरूपʹ आदि श्रेष्ठतासूचक विशेषण लिखूँ तो मैं 1400 वर्ष का और मैं ही स्वयं को छोटा दिखाकर उऩ्हें सम्मान दूँ, इससे मेरी इतने वर्षों की तपश्चर्या निरर्थक हो जायेगी। उनके अहंकार ने जोर पकड़ा, अंततः उन्होंने कोरा कागज ही अपने शिष्य को हाथों भेज दिया।

कोरा पत्र देखकर मुक्ताबाई ने कहाः “चांगदेवजी ने यह कोरा कागज हमें भेजा है ! 1400 वर्ष की तपस्या करके भी चांगदेव कोरे-के-कोरे ही रह गये ! लगता है इन योगिरीज ने जिस तरह काल को फँसाया है, उसी तरह अहंकार ने इन्हें फँसाया है।”

निवृत्तिनाथजी बोलेः “सदगुरु नहीं मिले इसीलिए इन्हें आत्मज्ञान नहीं हुआ और अहंकार भी नहीं गया। ज्ञानदेव ! आप इन्हें ऐसा पत्र लिखें कि इनके अंतःकरण में आत्मज्योत जग जाय और ʹमैंʹ व ʹतूʹ का भेद दूर हो जाये।”

संत ज्ञानेश्वर जी ने वैसा ही पत्र लिखा किंतु जैसे जल के बिना दरिया और दरिया बिन मोती नहीं हो सकता, ऐसे ही गुरुदेव के मुख से निःसृत ज्ञानगंगा के बिना सच्चा बोध और अऩुभवरूपी मोती भी प्रगट नहीं हो सकता। वही योगी चांगदेव के साथ हुआ। अहंकारवश वे सोचने लगे कि ज्ञानदेव जी को वे अपने योग के ऐश्वर्य से प्रभावित कर देंगे। उन्होंने एक शेर पर दृष्टि डाली और संकल्प किया तो वह पालतू कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते हुए उनके चरण सूँघने लगा। फिर चांगदेवजी ने एक भयंकर विषैले साँप पर अपने योगबल का प्रयोग किया और उसे चाबुक की तरह हाथ में धारण कर शेर पर सवार हो गये। अपने शिष्य समुदाय को साथ लेकर वे ज्ञानेश्वर जी के मिलने आकाशमार्ग से निकल पड़े।

इधर चारों संत चबूतरे पर बैठे थे कि अचानक चांगदेवजी को इस प्रकार आते देख मुक्ताबाई ने कहाः “भैया ! इतने बड़े योगी हमसे इस तरह मिलने आ रहे हैं तो हमें भी उनसे मिलने क्या उसी प्रकार नहीं जाना चाहिए ?”

ज्ञानेश्वरजी बोलेः “ठीक है, तो हम इसी चबूतरे को ले चलते हैं।” और वे चबूतरे पर अपना हाथ घुमाते हुए बोलेः “चल, हे अचल ! तू हमें ले चल। मैंने तुझे चैतन्यता दी है।”

क्षणमात्र की देर किये बिना अचल चबूतरा चलने लगा। जब चांगदेवजी ने देखा कि चारों संत सहज भाव से चबूतरे पर सवार होकर मेरी ओर आ रहे हैं और अहंकार का चिह्नमात्र भी किसी के चेहरे पर नहीं है तो उनका सारा अहंकार नष्ट हो गया। चांगदेव शेर से नीचे उतरे और दिव्यकांति ज्ञानदेवजी के चरणों से लिपट गये। चौदह सौ सालों से वहन किया गया भार उतारने से चागंदेवजी निर्भार हो गये।

सदगुरु बिना की तपस्या से सिद्धियाँ तो मिल सकती हैं परंतु आत्मशांति, आत्मसंतुष्टि, आत्मज्ञान नहीं। ऐसी तपस्या से तो जीवत्व में उलझाने वालि सिद्धियों को पाने का अहंकार पुष्ट होता है और यह मनुष्य को वास्तविक शांति से दूर कर देता है। कितनी बार मौत को भी पीछे धकेलने वाले चांगदेवजी को 1400 साल की तपस्या करने के बाद यही अनुभव हुआ।

यह अहंकार ब्रह्मज्ञानी संतों की शरण गये बिना, उनसे ब्रह्मज्ञान का सत्संग पाये बिना जाता नहीं है। आत्मा में जगे महापुरुषों की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार करने पर अहंकार का विसर्जन तथा परम विश्रान्ति, परम ज्ञान की प्राप्ति वे महापुरुष हँसते-खेलते करवा देते हैं, जिसके आगे 1400 वर्ष की तपस्या से प्राप्त सिद्धियाँ भी कोई महत्त्व नहीं रखतीं। ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत ज्ञानेश्वर जी ने आलंदी में विक्रम संवत 1353 में मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी के दिन जीवित समाधि ली।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 18,19, दिसम्बर 2012, अंक 240

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श्रीरंगजी के प्रेरक उपदेश


(श्रीरंग अवधूत जयंती विशेष)

एक बार श्रीरंग अवधूत जी से एक भक्त ने प्रश्न कियाः “महाराज ! हमें श्रेय़ के दर्शन क्यों नहीं होते और अश्रेय के तो बार-बार होते हैं ?”

श्रीरंगजी बोलेः “वेदशास्त्र और सदगुरु-संतों का सेवन किये बिना ही श्रेय़ के दर्शन ?”

“हम तो बहुत वर्षों से वेदशास्त्रों की बातें, कथाएँ आदि सुनते आ रहे हैं परंतु हमें कोई लाभ नहीं हो रहा है। अब तो हम थक गये हैं।”

श्रीरंगजीः “भाई ! भगवदभाव अनुभवगम्य वस्तु है। उसका अनुसरण करते हुए पुरुषार्थ करो तो ही उसका भाव मिलता है। सारी पृथ्वी को खोद डालो, उसमें से गुलाब, मोगरे की सुगंध मिलेगी ही नहीं। फिर आप कहोगे कि पृथ्वी में अमाप पुरुषार्थ कर के देख लिया परंतु उसमें तो गुलाब, मोगरे की सुगंध है ही नहीं। मूल बात को समझने वाला यदि कोई व्यक्ति दो गमले लाये और उसमें मिट्टी भरकर मोगरा व गुलाब के पौधे लगाये। उसमें से सुगंधित पुष्प सामने देखोगे तो तुम्हें विश्वास होगा कि सभी प्रकार के तत्त्व पृथ्वी में ही हैं। उन्हें प्रकट करने के लिए पहले उनका रूपक बनाना पड़ता है। जैसे इन मोगरा गुलाब की सुवास को पृथ्वी से प्रकट करने के लिए उनके पौधे अथवा बीज हों तो तत्त्व द्वारा प्रकट होते हैं, ऐसे ही वेदशास्त्रों और संतों का सेवन अर्थात् वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करो और संतों का सान्निध्य लाभ लो, सेवा करो व उनके उपदेश के अनुसार आचार-व्यवहार करो। इसके द्वारा अपने भीतर के अशुभ संस्कारों को निर्मूल करो। गुरुगम्य जीवन बनाओ। फिर श्रेय के दर्शन की बात करना।”

एक बार श्रीरंग जी ने अपने शिष्य को आज्ञा कीः “सिद्धपुर में नदी के किनारे ऐसी जगह घास की कुटिया बनाओ जहाँ किसी भी दिशा से लोग गाड़ियाँ लेकर नहीं आ सकें। मुझे पता है कि जीवन का सारा समय तो लोक-संग्रह में दे मालिक होना चाहिए। अंतिम लक्ष्य तो निर्गुण ही होना चाहिए।”

श्रीरंग जी के मुख से ऐसी बात सुनते ही सारे भक्तों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहनें लगीं। तब महाराज जी ने उन्हें शांत करते हुए बोलेः “मैं कहीं आता जाता नही हूँ। पामरता त्यागो, वीरता का अनुभव करो। मानव-जीवन के क्षण बहुत महँगे हैं, फिर भी उनका मूल्य समझ में नहीं आता। कितनी सारी वनस्पतियों का तत्त्वसार शहद है। इससे वह हर प्रकार की मिठासों में प्रधान है और उत्पत्ति की दृष्टि से भी बहुत कीमती है। तो महामूल्यवान शरीर की कीमत कितनी ? यदि मानव देह इतनी ज्यादा कीमती है तो उसे ऐसे वैसे नष्ट क्यों कर दें ?”

भक्त ने पूछाः “स्वामी जी ऐसे मूल्यवान मानव-जीवन का श्रृंगार क्या है ?”

“ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत, सत्य और मीठी वाणी, मित-भाषण, मिताहार, सत्य दर्शन, सत्य श्रवण, सत्य विचार और निष्काम कर्म – ये सारे मानव जीवन के व्रत हैं किंत भगवत्प्रेम ही मानव जीवन का श्रृंगार है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 28, अंक 239

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सत्संग के दो वचनों का कमाल – पूज्य बापू जी


जो अपने आपको विषय विकारों में, चिंताओं में, दुःखों में धकेलता है, वह अंधकूप में गिरता है और जो अपने आपको भगवत्प्रकाश में, भगवद्ज्ञान में, भगवत्शांति में, भगवन्माधुर्य में, भगवत्प्रेम में पहुँचाता है, वह वास्तव में मनुष्य जीवन का फल पाता है। मनुष्य जीवन में दो चीजें नितांत आवश्यक हैं – बुद्धि और श्रद्धा। बिना श्रद्धा के बुद्धि शुष्क, उद्दंड हो जायेगी, बम बनायेगी, लोगों का शोषण करके बड़ा बनने के रास्ते जायेगी।

बिंदुसार का पुत्र था सम्राट अशोक। उसको राज्य मिला तो राज्य का विस्तार, विस्तार, और विस्तार करते-करते उसने कलिंग देश, जिसको आज कालाहांडी (ओडिशा) बोलते हैं, उस पर चढ़ाई कर दी। लड़ाई करते-करते महीना-दो-महीना, एक वर्ष-दो वर्ष करते चार वर्ष बीत गये। दोनों पक्षों के लाखों-लाखों सैनिक मरे पर कोई नतीजा नहीं आ रहा था। अशोक चिंतित था, इतने में सेनापति दौड़ा-दौड़ा आया, बोलाः “महाराज की जय हो ! खुशखबर है, कलिंग देश का सम्राट युद्ध में मारा गया। अब हमारी जीत हुई है।”

जीत क्या हुई है, सदा के लिए हार हो गई। क्या यह खुशखबर है कि कोई मारा गया और हमें सम्पदा मिलेगी ! यह बुद्धिमानों का बुद्धिवाद है। जिनको जीवन का मूल्य पता नहीं वे वासनावान, अहंकारी इसे खुशखबरी मानते हैं। लोगों की हत्या करके, लोगों से कर (टैक्स) लेकर देश परदेश में खूब धन जमा करने का अवसर मिलेगा-यह खुशखबरी है ? दूसरों के बच्चे बिना दूध के, बिना आहार के, बिना पढ़ाई के बिना वस्त्रों के नंगे-भूखे घूम रहे हैं और आप बेईमानी करके, देश को शोषित करके देश-परदेश में पैसा जमा कर रहे हैं-यह बुद्धिमत्ता है ?

अन्धं तमः प्रविशन्ति…

(ईशावास्योपनिषद्-12)

उपनिषद कहती है वे अंधकार में फँस जाते हैं।

इस कथा के साथ सम्राट अशोक को सबके मंगल में लगाने वाली एक कन्या का इतिहास जुड़ा है। सेनापति बोलाः “परंतु चिंता की बात है कि अभी तक दुर्ग का द्वार खोलने में हम सफल नहीं हो पाये।”

अशोकः “कोई बात नहीं, कल सुबह हम स्वयं सेना की आगेवानी करेंगे और दुर्ग का द्वार खुलवा देंगे।”

सुबह अशोक और उसकी सेना दुर्ग के द्वार के पास पहुँची। सम्राट ने अपनी सेना को सम्बोधित कियाः “मगध के बहादुरो ! तुम्हारे अथक प्रयास से कलिंग देश का राजा मारा गया है। अब दुर्ग का द्वार खोलना है। आज मेरी आगेवानी में दुर्ग का द्वार खोला जायेगा।

अन्धं तमः प्रविशन्ति…

बाहर की सम्पदावाले का द्वार खोलना यह अंधकूप में गिरना है किंतु अपने हृदय का द्वार खोलकर हृदयेश्वर का ज्ञान पाना यह प्रकाशपुंज प्रकटाना है। जीवन में ज्ञान का, सजगता का, विवेक का प्रकाश हो और श्रद्धा हो। बिना विवेक की श्रद्धावाले को कोई भी फँसा देता है। ऐसे श्रद्धालुओं का शोषण होता रहता है। यह विवेक तुम्हें जगाता है। विवेक के बिना श्रद्धा अंधी होती है, कहीं-न-कहीं अनुचित स्थान पर फँसी रहती है और श्रद्धा के बिना विवेक उद्दंड होता है। मनमाना सफलता का मापदंड लेकर चल पड़ता है। उसी रास्ते था अशोक।

दुर्ग का द्वार खोलने के लिए सैनिकों को उत्साहित किया, रणभेरी, विजय का बिगुल बजवाया। अपने बल से द्वार खोलें उसके पहले अचानक द्वार खुल गया। अंदर से पद्मा नाम की राजकन्या घोड़े पर सवार होकर अपनी कई महिला सैनिकों के साथ गर्जना करती हुई निकली।

पद्मा बोलीः “सम्राट अशोक ! दुर्ग में प्रवेश करने का दुस्साहस न करो। जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं, तब तक तुम दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते। मेरे  पिता के हत्यारे ! अपने लाखों-लाखों सैनिकों को कुर्बान करके अहं पोसने वाले और हमारे लाखों सैनिकों की जान लेकर अपनी वासना की तृप्ति में लगे हुए अंधकूप में जाने वाले सम्राट ! सावधान !!”

धन कमा के, सत्ता कमा के, चीजें कमा के बड़ा बनने की जो अंध-परम्परा है, उसको कलिंग देश की एक कन्या ने ललकार दिया । सत्संगी कन्या ने कहाः “तुम्हारे पिता बिंदुसार का राज्य भी तुम नहीं ले जाओगे तो दूसरों का राज्य छीनकर क्या करोगे ? कई राजाओं को तुमने मौत के घाट उतारा। लाखों आदमी मारे गये। कितने सैनिकों के मासूम बच्चे रोते होंगे, कितने सैनिकों की माताएँ रोती होंगी, कितने सैनिकों की पत्नियाँ रोती होंगी…. तुमने कइयों को अनाथ बना दिया। यह राज्यसत्ता है कि अंधसत्ता है ? राजा तो प्रजा का पालक, मानवता का पालक होना चाहिए। राजा ही मानवता का विनाशी हो गया !”

अभी 700 करोड़ लोग हैं। हम मर-मर के सात बार मरें इतने बम तो तैयार है लेकिन फिर भी रात-दिन बम बनाये जा रहे हैं। दूसरों को मारकर, लूट-खसोटकर बड़ा बनना यह अंधकूप में गिरना है।

सासु ! बहू को तुम मत दबोचो। बहू ! तुम सासु को मत नीचा दिखाओ। जेठानी, देवरानी की निंदा करके अंधकूप में मत गिरो बेटी ! देवरानी ! जेठानी में दोष देखकर अंधकूप में मत गिरो। पड़ोसी-पड़ोसी एक दूसरे को नीचा दिखाकर अपना मन, जीवन अंधकूप में मत गिराओ। नित्य प्रकाश में रहो। वेद कहता है।

असतो मा सदगमय।

हम असत्य से बचकर सत्य की तरफ जायें। तो सत् क्या है, असत् क्या है-यह अंधकार में नहीं दिखेगा। इसीलिए वेद भगवान की प्रार्थना हैः तमसो मा ज्योतिर्गमय।

अंधकार से निकलकर हम प्रकाश में जियें।

“सम्राट ! तुम अंधकूप में स्वयं परेशान हो और अपनी प्रजा को भी परेशान कर रहे हो। प्रजा से कर नोचकर लोगों को मरवा रहे हो। तुम्हें शांति नहीं है। तुम अपने दिल पर हाथ रखो, क्या तुम्हारे जीवन में बरकत है ? है प्रसन्नता ? है शांति ? नाच-गान, ऐश आराम और मारकाट, लूट-खसोट, अधिकार-लोलुपता के अलावा तुम्हारी जिंदगी में कोई और चीज है ? तुम्हें द्वार में प्रवेश करने के पहले हमसे युद्ध करना होगा। तुमने मेरे पिता की हत्या की है, हमारे देशवासियों की हत्या की है। मैं तुमको नहीं छोड़ूँगी ! जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम इस द्वार के अंदर नहीं जा सकते।”

अशोक बोलाः “तुम तो स्त्री जाति हो, स्त्री के ऊपर हथियार उठाना अधर्म है।”

“आज तक तुमने क्या धर्म किया है ? निर्दोष प्रजा को अपना अहं पोसने के लिए मरवाया। तुम क्या ले जाओगे साथ में ? राज्य में संतोष नहीं है। इनको मारा, उनको मारा…. अपनी लोभ-वासना को तो मारा नहीं, अपने अहंकार को, अपनी पाप की इच्छा को तो मारा नहीं, दूसरों को मारकर तुमने क्या किया ? तुम धर्म की बात करते हो ? तुमने क्या धर्म किया है ?”

सम्राट अशोक निरूत्तर हो गया। पद्मा का सारगर्भित सत्संग सुनकर अशोक ने सोचा कि “आज से मैं यह हिंसा का रास्ता, शोषण का रास्ता, अहं पोसने का रास्ता, विषय विकारों का रास्ता त्यागता हूँ और सत्संग की शरण जाऊँगा।”

अशोक ने हाथ में पकड़ी हुई तलवार फैंक दी और सिर नीचे करते हुए कहता हैः “कलिंगनरेश की कन्या ! मैं तुम्हारे पिता का हत्यारा हूँ और तुम्हारे कलिंग देश के लाखों लोगों का हत्यारा हूँ। मैं गुनहगार हूँ। यह सिर झुकाकर रखता हूँ तुम्हारे सामने, तुम अपनी चमचमाती तलवार से बदला ले सकती हो।”

तब भारत की कन्या कहती हैः “सम्राट ! निहत्थे पर वार करना हमारे धर्म में नहीं है। आप तलवार उठाइये और युद्ध करिये।”

अशोकः “नहीं, अब युद्ध नहीं होगा। तुमने मेरी आँखें खोल दीं। यह वासना है, अहंकार है कि मेरा राज्य और….. और बढ़े।”

पद्माः “तो हमने तुमको हृदयपूर्वक माफ किया, तुम्हारा मंगल हो।”

क्या एक प्रकाश में जीने वाली कन्या, सत्संग मे जीने वाली कन्या अशोक का हृदय बदलने में सफल नहीं हुई ?

अशोकः “अभी भी मुझे अशांति है। मुझे शांति कैसे मिली ?”

पद्माः “सम्राट ! युद्ध करने से, सत्ता बढ़ाने से शांति नहीं मिलती। निरपराध लोगों की हत्या करके अहं पोसने से भी कदापि शांति नहीं मिलती।”

“ठीक कहती हो राजकन्या !”

“अब अपने आत्मा की अशांति को, भीतर की लानत को मिटाना हो तो जाओ, जो सैनिक कराह रहे हैं उन्हें देखो।”

उधर रणभूमि में गये तो क्या देखते हैं कि हजारों-हजारों लाखें पड़ी हैं। हजारों-हजारों अधमरे होकर कराह-कराह रहे हैं…. किसी की भुजा कटी है तो किसी का पैर कटा है तो किसी को पेट में बाण लगे हैं। किसी की आँखें गयी हैं तो किसी का कुछ…. उस दृश्य को निहारता है अशोक। हृदय पानी-पानी हो गया कि ʹहे अज्ञान ! हे नासमझी !! तुझे धिक्कार है ! कितने लोगों की जानें, कितने लोगों का धन लेकर तू बड़ा बनना चाहता है !ʹ

साधु लोग घायलों की मरहमपट्टी कर रहे हैं, किसी को पानी पिला रहे हैं। ʹओ….हो ! मेरे एक अज्ञान के कारण कि मैं सम्राट अशोक हूँ और बड़ा बनूँ…… बड़ा बनने वाला शरीर तो मर जायेगा और मैंने इतने लोगों की जानें लीं ! ओ बाप रे ! मुझे शांति कौन देगा ?ʹ

अशोकः “हे साधु ! मेरे कर्मों ने मुझे अशांत किया है, मुझे शांति कैसे मिलेगी ?”

जो साधु-संत सेवा कर रहे ते वे बोलेः “अरे, शांति मिलेगी। निर्णय करो कि दूसरों को सताकर मैं सुखी होने की गलती  नहीं करूँगा।

अपने दुःख में रोने वाले….

काम आना सीख ले।।

किसी की जान लेना मत सीखो, किसी के काम आना सीखो। जो दूसरों के दुःख नहीं हरता, उसका दुःख मिटता नहीं और जो दूसरों को दुःखी करके सुखी होता है, उसका दुःख बढ़ जाता है। तुम्हारी वही दशा है।”

अशोकः “तो मैं क्या करूँ ?”

“सत्यं शरणं गच्छामि। आत्मा सत्य है, परमात्मा सत्य है, उसकी शरण आओ। शरीर मिथ्या है, अहंकार मिथ्या है, वासना मिथ्या है। बच्चे की बचपन की वासना अलग होती है। युवक को जवानी की वासना अलग होती है और अलग-अलग युवकों की अलग-अलग वासना होती है। वासना सत्य नहीं है। वासना के पहले जो वासना को जानता है, वासना पूर्ति के बाद जो वासना की पोल जानता है वह परमात्मा सत्य है। तुम परमात्मा की शरण क्यों नहीं जाते हो ? तुमसे वह दूर नहीं, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है। दूर देशों पर हावी होकर, कत्लेआम करवाकर मैं बड़ा राजा हूँ…. लंकापति रावण की लंका नहीं बची तो सम्राट अशोक तुम्हारा यह नगर बचेगा क्या ? तुम्हारा शरीर बचेगा क्या ?”

“नहीं, अब मैं क्या करूँ ?”

“क्या करूँ ? अब सत्य की शरण चलो। किसी को दुःख न दो। किसी को बुरा न मानो, किसी का बुरा न चाहो, किसी का बुरा कर करो, सबकी भलाई सोचो। सम्राट अशोक ! तुम ऐतिहासिक पुरुष हो जाओगे।”

“जो आज्ञा महाराज !”

दूसरों को सताकर बड़ा बनने वाला अशोक पहले अहंकार की शरण था, सत्संग के दो वचन सुनकर कि ʹदूसरों में भी अपना आत्मा-परमात्मा हैʹ, सत्य की शरण गया। सम्राट अशोक ने प्रण कर लिया कि ʹअब मैं हथियार नहीं उठाऊँगा।ʹ फिर राज्य तो किया पर हथियार नहीं उठाया। आज भी सम्राट अशोक का अशोकचिह्न भारत सरकार के रूपयों पर है।

सत्संग ने क्या कमाल कर दिया ! कितना हत्यारा व्यक्ति और पद्मा के मुँह से सत्संग के दो वचन मिले, साधु के मुँह से सत्संग के दो वचन मिले तो लाखों लोगों की जान लेने वाला मानवीय संवेदनाविहीन अशोक लाखों के आँसू पोंछने वाला सम्राट अशोक हो गया, क्रूर सम्राट में से सज्जन सम्राट हो गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 7,8,9,10 अंक 239

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