पूज्य बापू जी
रोम के बादशाह ने सोने की सलाई और सोने-चाँदी व रत्नों से जड़ित डिब्बी में दो आँखों में लग सकें इतना सुरमा भारत के राजा को भेजा और कहलवाया कि ʹकोई भी अंधा आदमी अगर इस सुरमे को लगायेगा तो वह देखने लग जायेगा।ʹ वह भारत के राजा की परीक्षा लेना चाहता था कि ʹ भारत के चक्रवर्ती राजा और उनके मंत्रियों की सूझबूझ अगर ऊँची है तो हम रोम के लोग उनसे मैत्री करेंगे और अगर उनकी सूझबूझ छोटी है तो हम उन पर चढ़ाई करके उन्हें हरायेंगे। रोम के दूत ने भारत के राजा को सुरमे की महिमा सुनाकर डिब्बी सादर अर्पण की। राजा बड़ा खुश हुआ कि ʹमेरा खास, ईमानदार, दूरदर्शी प्रधानमंत्री जिसके विचारों के कारण मैं कई जगहों पर विजयी हुआ हूँ, उसकी अंध बनी आँखें वापस देखने लग जायें यह मेरा कर्तव्य है।ʹ
यदि कोई अधिकारी राजा या नेता के प्रति वफादार है तो राजा या नेता का भी कर्तव्य है कि उस अधिकारी का भविष्य उज्जवल हो।
राजा ने अपना कर्तव्य निभाया और अपने खास मंत्री को बुलाकर कहाः “लो, आज मैं मेरे दायें हाथस्वरूप मंत्री की सेवा करने सफल हो रहा हूँ।” उसको सुरमे की महिमा बताकर बोलाः “जल्दी करो, तुम देखने लग जाओगे।”
मंत्री ने तनिक शांत होकर, जो गुरु ने बताया था उस तालबद्धता का, श्वास का, जप का अनुसंधान करके एक सलाई दाँयीं आँख में आँजी और वह देखने लग गया। उसके चेहरे पर खुशी की लहर तो नहीं दौड़ी लेकिन जिज्ञासा की गम्भीरता आ गयी कि ʹयह सुरमा तो मात्र दो आँखों के लिए ही है परंतु मेरे जैसे तो राज्य में और कई अंधे होंगे !
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
हे गुरुदेव ! इस सुरमे को बनाते समय क्या-क्या भावना की गयी है ?ʹ इस प्रकार उसने अपने गुरु के आत्मा के साथ, गुरु के चित्त के साथ तादात्म्य किया तथा फिर दूसरी सलाई दूसरी आँख में डालने की जगह अपनी जिह्वा पर घुमा दी और तनिक शांत हो गया। वह समझ गया कि सुरमा घोटते समय किस-किस मिश्रण की भावना दी गयी है – गुलाब के अर्क की, इन्द्रवर्णा की, देशी गाय का पुराना घी आदि-आदि की। उसके चेहरे पर गम्भीर प्रसन्नता छा गयी। युद्ध के मैदान में विजेता की क्या खुशी है, उससे भी बड़ी दिव्य, आत्मिक खुशी !
मंत्री बोलाः “राजन् ! अब 1-2 आदमियों की आँखें नहीं, राज्य में जिनकी आँखों का पानी सूख गया है या जो नहीं देख सकते हैं उन सभी की खोयी हुई आँखें वापस आ जायेंगी।”
“अरे, यह सब क्या बातें करता है भावुकता की ? अब एक आँख में तो आँजा, दूसरी आँख का सुरमा तुम जिह्वा पर चाटने लग ये ! लोग तुमको काना बोलेंगे। मेरा मंत्री काना रहे ! मुझे दुःख दिया तुमने।”
“नहीं महाराज ! मैंने आपको दुःख नहीं दिया, मैं आपको गजब की खुशी दूँगा कि इस सुरमे में क्या-क्या वस्तु पड़ी है, वह मुझे अंतर्प्रेरणा हो गयी है। स्वाद से भी और अंतरात्मा से भी, दोनों की सहमति हो गयी है। मैं इस दूत को आपके सामने कहता हूँ कि डिब्बी में तुम लाये थे जरा सा सुरमा लेकिन अब यह डिब्बी मैं तुमको भर के दूँगा और रोम-नरेश को बोलना कि पूरे रोम अथवा विश्व के जितने भी आदमी अंधे हों, उनकी आँखों के लिए आप सुरमा भारत से मँगवा लिया करना। सुरमें में क्या-क्या है वह सब मुझे पता चल गया है।”
जो रोम-नरेश से दूत ने सारी बात कही तो वह गदगद हो गया और कहाः “जिसके राज्य में प्रकृति से तालमेल तथा प्रकृति की गहराई में परमात्मा से तालमेल और श्वासोच्छवास की तालबद्धता जानने वाले मंत्री हैं, ऐसे राज्य पर चढ़ाई करना महँगा सौदा है। हम भारत-नरेश के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ायेंगे।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 247
ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ