आज तक तो सुना होगा कि एक पिता, एक माता लेकिन ʹएकनाथी भागवतʹ ने तो बड़ा सूक्ष्म रहस्य खोलकर रख दिया। पाँच पिता होते हैं। एक तो माता माँ के गर्भ में गर्भाधान किया, वह जन्मदाता पिता होता है। दूसरा पिता वह होता है जिसने जन्म के बाद उपनयन संस्कार किया, मानवता की विधि कर दी। खिलाने-पिलाने-पोसने का काम जिसने किया वह तीसरा पिता तथा जो भय और बंधन से छुड़ाने की दीक्षा-शिक्षा देते हैं, वे चतुर्थ पिता माने जाते हैं। ʹजो सत है, वे चित् है, आनंद है वही तू है। तुझे बंधन पहले था नहीं, अभी है नहीं, बाद में हो सकता नहीं। यह रज-वीर्य से पैदा होने वाला शरीर तू नहीं है। खा-पीकर पुष्ट होने वाली देह तू नहीं है। संस्कारों को समझने वाला मन तू नहीं है। निश्चय करने वाली बुद्धि तू नहीं है। तू है अपना-आप, हर परिस्थिति का बाप !ʹ यह अनुभव कराने वाले, जन्म मरण के भय से छुड़ाने वाले पंचम पिता सदगुरु होते हैं। माता-पिता, बंधु, सखा, दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु – सबका दायित्व उनके द्वारा सम्पन्न हो जाता है। ऐसे महापुरुष के लिए संत कबीरजी ने कहाः
सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
जो पहले जन्मदाता माँ-बाप हैं वे तो मोह से पालन-पोषण करेंगे लेकिन जो सच्चे बादशाह (सदगुरु) होते हैं वे प्रेम से पालन-पोषण करते हैं। मोह में माँग रहती है, प्रेम में कोई माँग नहीं। प्रेम अपने-आपमें पूर्ण है।
पूरा प्रभु आराधिया, पूरा जा का नाउ।
नानक पूरा पाइया, पूरे के गुन गाउ।।
एक प्रेम ही पूर्ण है। हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को सुखी किया लेकिन स्वयं सुख के लिए अहंकार की गोद में बैठता था, ʹमैं भगवान हूँ।ʹ रावण ऐश-आराम की, विकारों की गोद में बैठता है, ʹयह ललना सुंदर है, यह सुन्दर है।ʹ परन्तु प्रेमदेवता के चरणों में पहुँचना बहुत ऊँची बात है !
जन्म देता है पिता तो केवल पिता ही रहता है, माता दूसरी होती है। लेकिन वह सच्चा बादशाह है जो माता की नाईं वात्सल्य भी देता है और पिता की नाईं हमारे सदज्ञान का, सदविचारों का पालन भी करता है। ब्रह्मज्ञानी गुरु तो माता, पिता, बंधु, सखा…. अरे, ब्रह्म होता है ! उस ब्रह्म परमात्मा की गति मति कोई देवी-देवता, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, दुनिया के सारे बुद्धिमान मिलकर भी नहीं जान सकते।
जीव जब तक जीवित है तब तक भोग का आकर्षण रहता है। स्वर्ग का, ब्रह्मलोक का सुख जीव भोगता है, ईश्वर नहीं। जीने की, पाने की वासना रही तब तक जीव है लेकिन जब पंचम पिता मिलता है तो जीवन और मृत्यु जिससे होती है, उस वासना पर वह ज्ञान की कुल्हाड़ी, कैंची चलाता है। ज्ञानादग्निदग्धकर्माणं…. ज्ञान से कर्मबंधन कट जाते हैं, वासना कट जाती है। वह पंचम पिता शिष्य को वास्तविक कर्तव्य बताता है। नहीं तो नासमझ लोग बोलते हैं, ʹमैं वकील हूँ, वकालत करना मेरा कर्तव्य है।ʹ ʹमैं महंत हूँ, आश्रम चलाना मेरा कर्तव्य है।ʹ ʹमैं माई हूँ, मैं भाई हूँ, यह मेरा कर्तव्य है।ʹ नहीं-नहीं बेटा ! जिसके साथ जो संबंध है उसके अनुरूप उसका भला कर लिया, अपने लिए उससे कुछ न चाहा और अपने-आपमें पूर्णता है, उसमें विश्राम पाया-यह तुम्हारा कर्तव्य है।
देखा अपने आपको मेरा दिल दिवाना हो गया।
न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।
अतः शिष्य़ के लिए सदगुरु ही सच्चे माता-पिता हैं, जो उसे निजस्वरूप में जगा देते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 11, अकं 247
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