जन्माष्टमी श्रीकृष्ण का यश बढ़ाने वाली है, ऐसा मैं नहीं मानता हूँ। यह तो श्रीकृष्ण के अनुभव से मानवता का मंगल करने वाली है, ऐसा मेरा अपना मंतव्य है। दुनिया के हर मजहब, पंथ सम्प्रदाय का पुजारी इस अटपटे और अनोखे, रसमय अवतार के अनुभव से बहुत कुछ समझ सकता है।
श्रीकृष्ण ऐसे समर्थ हैं कि कभी चतुर्भुजी बन जाते हैं फिर द्विभुजी बन जाते हैं। जरूरत पड़ी तो युधिष्ठिर के यज्ञ में सेवाकार्य ढूँढ लिया, कौन-सा ? साधु-संतों के चरण धोना, उनको भोजन कराना और जूठी पत्तलें उठाना। कोई व्यक्ति बड़े पद पर पहुँच जाता है तो उसको अपनी कार चलाने में भी शर्म आती है, अपना बड़प्पन सँभालने में इतना खो जाता है, पागल हो जाता है ! लेकिन भगवान का यह कितना बड़प्पन है कि बड़प्पन सँभालने की जरूरत ही नहीं पड़ती। छोटे-से-छोटा काम कर लेते हैं। कितना फासला है !
श्रीकृष्ण का अवतार सभी के मंगल के लिए है। आप देखोगे तो श्रीकृष्ण का जीवन समस्याओं से भरा है। पूरा जीवन विघ्न बाधा, निंदा, संघर्ष और आकर्षण, प्रेम-माधुर्य से भरा था। प्यार प्रेम भी बहुत था और विरोध-विघ्न भी बहुत थे। न प्यार-प्रेम में फँसे न विरोध में। वृंदावन में छोड़ दिया तो छोड़ दिया, मुड़कर गये नहीं। प्रजा का शोषण हो रहा था तो अर्जुन को उत्साहित किया। धृतराष्ट्र ने संदेशा भेजा कि ʹश्रीकृष्ण ! तुम चाहो तो युद्ध रूक सकता है।ʹ
कृष्ण ने कहाः “तुम्हारी यह बात तो ठीक है लेकिन यदि युद्ध रूका और दुर्योधन ऐसा ही बना रहा तो समाज का क्या हाल होगा ? समाज का शोषण होता रहे और युद्ध रूके वह किस काम का ? क्रांति के बाद शांति आती है। शोषित व्यक्ति शोषित होते रहें और हम युद्ध रोकने का प्रयास करें तो यह अधर्म होगा।”
अर्जुन तो युद्ध करने को तैयार ही नहीं था। श्रीकृष्ण चुप बैठते तो भी युद्ध रूक जाता, अर्जुन साधु बाबा बन जाते लेकिन कृष्ण बोलते हैं-
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप।
जो समाज का शोषण करते हैं उनको तपाने वाले परंतप ! उठो।
अर्जुन ने इधर-उधर की धार्मिक बातों को सुनाकर छटकना चाहा लेकिन श्रीकृष्ण ने उसके सारे तर्क बेबुनियाद साबित कर दिये। ज्ञान में श्रीकृष्ण ऐसे हैं कि बिल्कुल तटस्थ !
ʹआधिभौतिक क्या होता है ? आधिदैविक क्या होता है ? अध्यात्म क्या होता है ?ʹ अर्जुन को ऐसे प्रश्न मिले कि जिज्ञासा जगी और श्रीकृष्ण ने उसकी जिज्ञासा की पूर्ति करके उसे ऐसी जगह पहुँचाया जहाँ स्वयं पहुँचे थे ! ऐसा जगत का कोई गुरु, जगत का हितैषी कभी-कभी धरती पर आता है, जो आत्मदेव में स्वयं पहुँचा हो।
तो तुम्हारे अहं की मटकी फूटे, कन्हैया का ऐसा प्रेमभरा रस लग जाय ताकि आपका मंगल हो जाये। मटकी फोड़ना मेरा उद्देश्य नहीं है। मटकी के भीतर छुपा हुआ जो मधुमय मधुरस है, नित्य नवीन रस है वह ब्रह्मसुख प्रकटे। श्रीकृष्ण ने जीवनभर वही किया और मेरा भी उद्देश्य वही है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013, पृष्ठ संख्या 28, अंक 248
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