वह अधीनता जिससे परम स्वाधीनता – पूज्य बापू जी

वह अधीनता जिससे परम स्वाधीनता – पूज्य बापू जी


पंचभौतिक शरीर माया का है, मन, बुद्धि, अहंकार भी माया है, यह अष्टधा प्रकृति है। भगवान बोलते हैं कि ʹयह अष्टधा प्रकृति मैं नहीं हूँ, तो तुम भी यह नहीं हो।ʹ भगवान के वचन मान लो।

भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। गीताः 7.4

ये प्रकृति, पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार मेरे से भिन्न हैं, तो आपसे भी भिन्न हैं। शरीर, मन, बुद्धि बदलते हैं, आप नहीं बदलते हैं, आप उनको जानते हैं। ʹमैं दुःखी हूँ, मैं सुखी हूँʹ यह अहंकार भी बदलता है। ʹमैं चिंतित हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं अमीर हूँʹ यह अहंकार भी बदलता है। आठों बदलते हैं आपके भी और भगवान के भी। तो जो भगवान का आत्मा है वही तुम्हारा आत्मा है। और शरीर भगवान का भी नहीं रहा तो तुम्हारा कब तक रहेगा ?

तुम शरीर नहीं हो, तुम अमर आत्मा हो। जैसा भगवान अपने को जानते हैं, ऐसा आप भी अपने को जानो। गुरु अपने को जैसा जानते हैं, ऐसा अपने को जानो। मरने से डरो नहीं, किसी को डराओ नहीं। बेवकूफ बनो नहीं, दूसरे को बेवकूफ बनाओ नहीं दुःखी होओ नहीं और दूसरों के लिए दुःख बनाओ नहीं।

अपने को दुःखी करने का क्या मतलब है ? मूर्खता के सिवाय दुःख हो ही नहीं सकता। बिना बेवकूफी के गलत निर्णय हो ही नहीं सकते। जब भी गलत निर्णय होते हैं तो उनके मूल में बेवकूफी होती है। इससे दुःख होता है। दुःखी होकर निर्णय नहीं करना, द्वेष में निर्णय नहीं करना, चिंता में आकर निर्णय नहीं करना, भय में आकर निर्णय नहीं करना।

सुबह नहा-धोकर, सूर्य को अर्घ्य दे के, ध्यान करके, गुरु से तादात्म्य करके फिर निर्णय करो तो दुर्गति नहीं होती। नहीं तो फिर-फिर से पान-मसाला, दुर्गति है ! फिर-फिर से फिल्म, नहीं चाहते हुए भी वही करते हैं। यह क्या है ? यह आदतें हम पर हुक्म चलाती हैं। तुम आदतों के हुक्म में न चलो, शास्त्रों के हुक्म में चलो, गुरु के हुक्म में चलो, ईश्वर के हुक्म में चलो।

ईश्वर, शास्त्र और गुरु के अधीन होते हैं, वह अधीनता नहीं है, पर स्वाधीनता है क्योंकि अपनी स्वीकारी हुई है। सत्य की अधीनता, अधीनता नहीं रहती। शास्त्र की अधीनता, अधीनता नहीं रहती। भगवान राम शास्त्र के अधीन रहते थे, भगवान कृष्ण शास्त्र के अनुरूप चलते थए, मेरे गुरु जी चलते थे। तो शास्त्र की, भगवान की और गुरु की आज्ञा में चलना यह अधीनता नहीं है, वासनाओं की अधीनता ही अधीनता है।

जो शास्त्र ,गुरु और भगवान की आज्ञा को ठुकरा देते हैं वे फिर वासनाओं की आज्ञा में चलते हैं, बेवकूफी की आज्ञा में चलते हैं, गलत निर्णयों की आज्ञा में चलते हैं और उनकी मति मारी जाती है। जो मनमुख होते हैं वे आखिर केंचुएँ तक की नीच योनियों में चले जाते हैं, पतंगे तक की नीच योनियों में चले जाते हैं। परंतु जो ईश्वर की शरण लेते हैं…. ईश्वर कह दो तो शास्त्र और गुरु आ गये। गुरु कह दो तो ईश्वर और शास्त्र आ गये। दिखते तीन हैं, हैं एक। ʹईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनो।ʹ आकृति भेद से अलग हैं बाकी एक ही हैं। सत्शास्त्र कह दो तो ईश्वर आ गये उसमें। ईश्वर के बिना सत्शास्त्र हो सकता है क्या ? गुरु के बिना सत्शास्त्र होता है क्या ? गुरु कह दो तो सत्शास्त्र और ईश्वर आ गये। तो जो ईश्वर, गुरु, शास्त्र की शरण लेते हैं, वे दुःख, शोक, भय, चिंताओं के सिर पर पैर रखकर आत्मा-परमात्मा का अनुभव कर लेते हैं।

पक्का कर लो कि ʹअब हम ईश्वरमय जीवन जियेंगे, गुरु की आज्ञा के अनुरूप चलेंगे।ʹ गुरु की आज्ञा, ईश्वर की आज्ञा, शास्त्र की आज्ञा दिखती तो शुरुआत में अधीनता जैसी है लेकिन तमाम अधीनताओं से पार कर देती है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2013, अंक 249

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