आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडिटर
पिछले बीस-पच्चीस दिनों से जिस तरह से आशाराम बापू के मसले पर स्टूडियो के अंदर तीन-तीन, चार-चार, पाँच-पाँच घंटे और तमाम जटा-जूटधारी बाबाओं, साइकोलोजिस्टों, सेक्सोलोजिस्टों को बुला-बुलाकर जिस तरह से चर्चा की जा रही है, क्या इस देश के अंदर सबसे बड़ी खबर यही है ? क्या सेक्स को बेचने की कोशिश नहीं की जा रही है ? क्या मीडिया, टीवी चैनल इसके लिए अभिशप्त नहीं हैं ? क्या वे भयंकर गलती नहीं कर रहे हैं ? हम मीडियावाले इसको कब तक उचित ठहराते रहेंगे ?
एक आधारहीन खबर कई दिनों तक क्यों छायी रही ? टीवी चैनलों के बारे में तो कहा ही जाता है कि टीआरपी के लिए कुछ भी कर सकते हैं पर अखबारों ने ऐसा क्यों किया ? उन पर तो टीआरपी का दबाव नहीं होता। टीआरपी ही टीवी का सबसे बड़ा रोग है। टीआरपी से ही तय होती है कि चैनल को मिलने वाले विज्ञापन की कीमत। जितनी रेटिंग, उसी अनुपात में पैसा !
कुछ चैनलों ने खबर से तौबा ही कर ली। जितना सनसनीखेज वीडियो उतनी अधिक रेटिंग-ऐसी मान्यता बनी। जो खबर के अलावा भूत-प्रेत दिखाते थे, चैनलों ने जब खबर भी दिखायी तो उसे मदारी का खेल बना दिया। खबर से ज्यादा खबर का ‘ट्रीटमैंट’ महत्त्वपूर्ण हो गया।
पिछले दिनों टीवी जगत में फिर प्रतिस्पर्धा अचानक बढ़ी। कुछ नये चैनल आगे निकल गये, स्थापित पीछे रह गये। खबरों में फिर भाँग पड़ने लगी। आशाराम बापू की खबर में इसका नमूना फिर दिखा। इस खबर से धर्म जुड़ा था, बाबा के लाखों अनुयायी थे। रेटिंग के भूखे टीवी एडिटर इस खबर पर मानो टूट पड़े। कुछ चैनलों ने तो सारी सीमाएँ लाँघ दीं। कुछ समय बाद बापू की खबर से थकान होने लगी और बिल्ली के भाग्य से (डोंडियाखेड़ा की खबर का) ‘खजाना’ टूट पड़ा। कुछ टीवी चैनल लपके, बाकी ने अनुसरण किया। खबर टीवी पर चली तो अखबार कहाँ पीछे रहते ? इस खबर ने उनका भी पर्दाफाश किया है। पिछले कुछ सालों से टीवी की बहुतायत ने अखबार के पत्रकारों का काम आसान कर दिया। सब कुछ जब टीवी पर उपलब्ध है तो भागदौड़ करने की क्या जरूरत ? ये पत्रकार घर बैठे रिपोर्टिंग करने लगे हैं। हालाँकि अभी भी कुछ अच्छे पत्रकार हैं, जो समाज में दिखते हैं। लेकिन ज्यादातर टीवी का ही अनुसरण करते हैं। फिर जब दस चैनल एक साथ एक खबर को चला रहे हों तो उसे गलत साबित करने की हिम्मत कितनों में होगी ? इसलिए जो कभी टीवी का मजाक उड़ाया करते थे, वे अब टीवी के आभामंडल से अभिभूत हैं। ऐसे में खबरों में फिल्टर कौन लगायेगा (कि कौन-सी सच्ची और कौन-सी झूठी) ?
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 31, अंक 251
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