पूज्य बापू जी
(महाशिवरात्रिः 27 फरवरी 2014)
भगवान शिव कहते हैं-
न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया।
तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः।।
‘हे पार्वती ! महाशिवरात्रि के दिन जो उपवास करता है वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उस दिन उपवास करने पर मैं जैसा प्रसन्न होता हूँ, वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प अर्पण करने भी नहीं होता।’
उत्तम उपवास कौन सा ?
‘उप’ माने समीप ‘वास’ करना, अपनी आत्मा के समीप जाने की व्यवस्था बोलते हैं ‘उपवास’। भगवान जितना उपवास से प्रसन्न होते हैं उतना स्नान, वस्त्र, धूप-पुष्प आदि से प्रसन्न नहीं होते।
उप समीपे यो वासो जीवात्मपरमात्मनोः।
‘जीवात्मा का परमात्मा के निकट वास ही उपवास है।’ जप-ध्यान, स्नान, कथा-श्रवण आदि पवित्र सदगुणों के साथ हमारी वृत्ति का वास ही ‘उपवास’ है। ऐसा नहीं कि अनाज नहीं खाया और शकरकंद का सीरा खा लिया और बोले, ‘उपवास है।’ यह उपवास का बिल्कुल निम्न स्वरूप है। उपवास का उत्तम स्वरूप है कि आत्मा के समीप जीवात्मा का वास हो। मध्यम उपवास है कि हफ्ते में एक बार और ऐसे पवित्र दिनों-पर्वों के समय अन्न और भूनी हुई वस्तुओं का त्याग करके केवल जरा सा फल आदि लेकर नाड़ियों की शुद्धि करके ध्यान-भजन करें, यह दूसरे नम्बर का उपवास है। तीसरे नम्बर का उपवास है कि ‘चलो, रोटी-सब्जी छोड़ो तो राजगिरे के आटे की कढ़ी, साबुदाने की खिचड़ी और सिंघाड़े के आटे का हलुआ खाओ।’ रोज जितना खाते थे और जठरा को जितनी मेहनत करनी पड़ती थी, उससे भी ज्यादा व्रत के दिन मेहनत करनी पड़ती है। यह उपवास नहीं हुआ, मुसीबत मोल ले ली। अथवा तो कुछ लोग उपवास के दिन कुछ नहीं खाते, ‘चलो जल ही पियेंगे।’ और दूसरे दिन फिर पारणा करते हैं तो लड्डू खाते हैं, पेट एकदम साफ होगा और फिर एकदम भारी खुराक ! जैसे गाड़ी एकदम बंद और फिर चालू करके चौथे गियर में डाल दी तो क्या हाल हो जायेगा ? उपवास करने की कला, रीत जान लें और शिवरात्र मनाने की कला सीख लें।
महान बनने का अवसरः महाशिवरत्रि का व्रत-तप
महाशिवरात्र माने कल्याण करने वाली रात्रि, मंगलकारी रात। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि है, कल्याणकारी रात्रि है। यह तपस्या का पर्व है।
शिवस्य प्रिया रात्रिर्यस्मिन् व्रते अंगत्वेन विहिता तद् व्रतं शिवरात्र्याख्यम्।
शिवजी को जो प्रिय है ऐसी रात्रि, सुख-शांति-माधुर्य देने वाली, शिव की वह आनंदमयी, प्रिय रात्रि जिसके साथ व्रत का विशेष संबंध है, वह है शिवरात्रि और वह व्रत शिवरात्रि का व्रत कहलाता है। जीवन में अगर कोई-न-कोई व्रत नहीं रखा तो जीवन में दृढ़ता नहीं आयेगी, दक्षता नहीं आयेगी, अपने-आप पर श्रद्धा नहीं बैठेगी और सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ‘यजुर्वेद’ में आता हैः
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।
तो यह शिवरात्र जैसा पवित्र व्रत आपके मन को पुष्ट व पवित्र करने के लिए, मजबूत करने के लिए आता है। आपको महान बनने का अवसर देता है।
महाशिवरात्रि में रात्रि-पूजन का विधान क्यों ?
महाशिवरात्रि की रात्र को चार प्रहर की पूजा का विधान है। प्रथम प्रहर की पूजा दूध से, दूसरी दही से, तीसरी घी से और चौथी शहद से सम्पन्न होती है। इसका भी अपना प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक रहस्य है। हमारी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक – चारों स्थितियाँ उन्नत हों इसलिए पूजा का ऐसा विधान किया गया।
इस महाशिवरात्रि के व्रत में रात ही पूजन क्यों ? यह पूजन रात्र में इसलिए है क्योंकि एक ऋतु पूरी होती है और दूसरी ऋतु शुरु होती है। जैसे सृष्टिचक्र में सृष्टि की उत्पत्ति के बाद नाश और नाश के बाद उत्पत्ति है, ऐसे ही ऋतुचक्र में भी एक के बाद एक ऋतु आती रहती है। एक ऋतु का जाना और नयी ऋतु आरम्भ होना – इसके बीच का काल यह मध्य दशा है। (महाशिवरात्रि शिशिर और वसंत ऋतुओं की मध्य दशा में आती है।) इस मध्य दशा में अगर जाग्रत रह जायें तो उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान में बैठने की, उस अधिष्ठान में विश्रांति पाने की, आत्मा में विश्रांति पाने की व्यवस्था अच्छी जमती है। इसलिए इस तिथि की रात्र ‘महाशिवरात्र’ कही गयी है।
वैसे कई उपासक हर मास शिवरात्रि मनाते हैं, पूजा-उपासना करते हैं लेकिन बारह मास में एक शिवरात्रि है जिसको महाशिवरात्रि, अहोरात्रि भी कहते हैं। जन्माष्टमी, नरक चतुर्दशी, शिवरात्र और होली, ये चारों महारात्रियाँ हैं। इनमें किया गया जप-तप-ध्यान अनंत गुना फल देता है।
शिवपूजा का तात्त्विक रहस्य
ऋषियों ने, संतों ने बताया है कि बिल्वपत्र का गुण है कि वह वायु की बीमारियों को हटाता है और बिल्वपत्र चढ़ाने के साथ रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण का अहं अर्पण करते हैं। पंचामृत मतलब पाँच भूतों से जो कुछ मिला है वह आत्मा परमात्मा के प्रसाद से है, उसको प्रसादरूप में ग्रहण करना। और महादेव की आरती करते हैं अर्थात् प्रकाश में जीना। धूप-दीप करते हैं अर्थात् अपने सुंदर स्वभाव सुवास फैलाना।
शिवजी त्रिशूल धारण करते हैं। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीनों शूल देते हैं। जाग्रत में चिंता, स्वप्न में अटपटी सी स्वप्नसृष्टि और गहरी नींद (सुषुप्ति) में अज्ञानता – इन तीनों शूलों से पार करने वाली महाशिवरात्रि है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति बदल जाती है फिर भी जो नहीं बदलता, उस आत्मा में आने की रीत बितानेवाला शिवरात्रि का जो सत्संग मिल रहा है, उससे जीव तीन गुणों से पार हो जाता है।
महाशिवरात्रि पूजन का उद्देश्य
वेद परमात्मा के विषय में ‘नेति-नेति’ कहते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये नहीं, ये प्रकृति हैं, इनसे परे जो है वह परमात्मा है। उस परमात्मा में यह जीवात्मा विश्रांति पाये, उस पूजा-विधि की व्यवस्था और विशेष रूप से फले ऐसा दिन ऋषियों ने चुना और वह दिन है महाशिवरात्रि का।
इस शिवरात्रि की एक कथा प्रचलित है कि एक व्याध दिनभर भटकता रहा, शिकार नहीं मिला। रात्रि में उसके पास जो पानी का लोटा था उसे भर के वह किसी जलाशय के किनारे बेलवृक्ष पर बैठ गया। एक प्रहर में एक हिरण आया, दूसरे प्रहर में दूसरा, तीसरे प्रहर में तीसरा और चौथे प्रहर में चौथा हिरण आया लेकिन जब भी वह शिकार करने की तैयारी करता और हिरण के द्वारा दया-याचना होती तो वह उनको क्षमा करता गया और ‘अच्छा, फिर आना….’ ऐसा कहता गया। उसके हिलने डुलने से जाने अनजाने पानी के लोटे को हाथ लगता, पानी की दो बूँदें वृक्ष के नीचे स्थित शिवलिंग पर गिरतीं और ऐसे ही बैठे-बैठे बिल्वपत्र तोड़ता था, वे बिल्वपत्र नीचे (शिवलिंग पर) गिरते जाते थे। संयोगवश वह महाशिवरात्रि का दिन था। अनजाने में उसकी शिवपूजा हुई और भगवान शिव प्रसन्न हुए तो दूसरे जन्म में वह बड़ा सम्राट हुआ, ऐसी कथा भी आती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि अनजाने में भी अगर पुण्यमय तिथि का जागरण हो जाता है, त्याग हो जाता है और दूसरे के दुःख में आप थोड़ा अपने स्वार्थ को छोड़ देते हैं तो आप सम्राट बनने के योग्य हो जाते हैं। लेकिन सम्राट बनना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। सम्राट पद भोगकर भी गिरना पड़ता है। अगर उस व्याध को की संत मिल जाते तो उस महाशिवरात्रि की पूजा का फल दूसरे जन्म में सम्राट बनने तक सीमित नहीं होता। शिवजी जिस परमात्मा में विश्रान्ति पाकर शिवतत्त्व में निमग्न रहते हैं, मनुष्यमात्र अपने ऐसे स्वाभाविक शिवतत्त्व में मग्न रहने का अधिकारी है। इसी जन्म में उस तत्त्व का साक्षात्कार कर लें।
जिस पुत्र-परिवार और मेरे तेरे में हम लोग जगते हैं (सतर्क एवं रचे-पचे रहते हैं) उससे शिवजी बेपरवाह हैं और जिस शिवतत्त्व से हम बेपरवाह हैं उसमें शिवजी सदा निमग्न रहते हैं। पार्वती जी जा रही हैं मायके लेकिन शिवजी तेरे मेरे में नहीं अटके।
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।
जो सहज स्वरूप में निमग्न रहते हैं ऐसे परमात्म-शिव की जो उपासना, आराधना करता है उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं लेकिन जीवन मनोकामना पूर्ण करने के लिए नहीं है। असली जीवन तो मन की तुच्छ कामनाएँ निवृत्त करके मन की कामनाएँ जहाँ से पूर्ण और अपूर्ण दिखती हैं, उस जीवनददाता को पहचानने के लिए है, ‘मैं’ रूप में जानने के लिए है, साक्षात्कार करने के लिए है। ऐसा ज्ञान अगर गुरुओं के द्वारा मिल जाय और हम पचा लें तो हमें एकाध शिवरात्रि पर्याप्त हो जायेगी शिवतत्त्व में जगने के लिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2014, पृष्ठ संख्या 11-13, अंक 254
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