जब भगवान तक पहुँची चिट्ठी – पूज्य बापू जी

जब भगवान तक पहुँची चिट्ठी – पूज्य बापू जी


एक बालक था मुकंद और उसके भाई का नाम था अनंत। अनंत और उनके पिताजी के  नाम पत्र आते लेकिन  नन्हा मुकुंद सोचता कि ‘मेरे को कोई पत्र ही नहीं लिखता !’ अनंत उसे चिढ़ाता था कि “तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखता। मुझे कितना मित्र पत्र लिखते हैं, पिता जी को भी कितने लोग पत्र लिखते हैं ! तेरे को कोई पूछता ही नहीं।”

मुकुंद भगवान की मूर्ति के आगे बैठ के बोलताः “प्रभु !  मुझे कोई पत्र नहीं लिखता तो तुम ही लिख दो न एक पत्र ! अच्छा! तुम नहीं लिखोगे ? मैं पहले लिखूँ ऐसा !”

उठाया कागज, पेन और लिखा कि प्रभु ! मैं तो आपका भक्त हूँ, आप मेरे हैं। आप मेरे को एक चिट्ठी लिखो।’ इस प्रकार का भावनाभरा पत्र लिखा, और भी बहुत सारी बातें लिखीं। और ‘सर्वेश्वर, सर्वव्यापक भगवान नारायण वैकुण्ठाधिपति को मिले’ – ऐसा पता लिखकर वह पत्र डाक के डिब्बे में डाल दिया।

2 दिन, 4 दिन, 10 दिन हुए तो मुकुंद ने डाकिये से पूछाः “मेरी कोई चिट्ठी नहीं है ? मेरे भाई की तो चिट्ठियाँ आती हैं, मेरी अभी तक नहीं आयी ?”

बोलेः “नहीं, तुझे कोई पत्र लिखता ही  नहीं।”

10 दिन और बीते। मुकुंद पूजा के कमरे में जाकर भगवान को बोलाः “प्रभु ! 20 दिन हो गये तुमको चिट्ठी लिखे। एक उत्तर भी नहीं दिया तुमने ! तुम व्यस्त होगे। सारी सृष्टि की व्यवस्था करते होगे पर मैं किसी को क्या बताऊँगा ? मेरा भाई मुझे चिढ़ाता है, ‘तुझे कोई चिट्ठी नहीं लिखता।’ अनंत को बोलने के लिए कुछ तो आप चिट्ठी लिखो न ! हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे हरि ! हे प्रभु जी ! एक चिट्ठी लिखो न….!”

जैसे माँ-बाप के आगे बच्चे रोते हैं ऐसे ही भगवान की तस्वीर के आगे मुकुंद रोता गयाः “आप चिट्ठी भी नहीं लिखते ! मैं आपका नहीं हूँ क्या ?…” बालक-हृदय….! मुकुंद निर्दोष भाव से भगवान के आगे अपनी व्यथा रखता हैः “मैं तुम्हारी चिट्ठी की राह देखता हूँ और तुम मुझे पत्र नहीं लिखते हो ? श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव… वासुदेवाय वासुदेवाय….!”

जो संसार के आगे रोते हैं, वे रोते ही रहते हैं लेकिन जो भगवान के लिए रोते हैं, तड़पते हैं उनका रूदन व तड़प मिट जाती है और उनका रोना सदा के लिए हँसने में बदल जाता है। हम भी रोये थे। मुकुंद की नाईं नहीं तो दूसरे तरीके से।

मुकुंद रोते-रोते भगवान के आगे चुपचाप, सुनसान…. सो गया। प्रकाश… प्रकाश… भगवान की मूर्ति से तेज निकला। वे देखता है कि भगवान उसके निकट आ रहे हैं, सांत्वना दे रहे हैं और फिर मूर्ति में समा गये। आवाज आयीः “ये बाहर की लेखनी और बाहर की चिट्ठियाँ बाहर की दुनिया के लिए हैं, तू तो मेरा है, मैं तेरा हूँ।”

उसको हुआ कि ‘भगवान ने पत्र नहीं लिखा तो कोई बात नहीं, खुद आ गये।’ अब उसकी भगवान के प्रति आस्था बढ़ गयी। जब साधक साधना करता है, एकटक भगवान या गुरु को देखता है तो उसको मानसिक दिव्यताओं के अनुभव होने लगते हैं।

जो जरा-जरा बात में झूठ बोलते हैं, उनकी मंत्रजप की शक्ति बिखर जाती है। जरा-जरा बात में कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हो जाते हैं तो उनकी साधना की शक्ति क्षीण हो जाती है लेकिन आप थोड़े दिन मौन रह के थोड़ी साधना करो, कितनी शक्ति उभरती है अंदर !

मुकुंद को गुरु जी ने जो बताया था वह उसका पालन करता, नियमित अभ्यास करता, ध्यान व ॐकार का जप करता। और सत्यसंकल्पशक्ति थी, संयमी था तो बड़ी शक्ति आयी ! वही मुकुंद आगे चल के परमहंस योगानंद जी के नाम से प्रसिद्ध हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,  मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 255

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