संसाररूपी हाथी को विदीर्ण करने वाले सिंह एवं भवरोग निवारक धन्वंतरि

संसाररूपी हाथी को विदीर्ण करने वाले सिंह एवं भवरोग निवारक धन्वंतरि


संत एकनाथ जी महाराज जीव का भवरोग निवारनेवाले सदगुरु की अनुपम महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं- “सदगुरुरूपी धन्वंतरि को मैं प्रणाम करता हूँ। इस संसार में भवरोग की बाधा दूर करने में उनके सिवाय अन्य कोई समर्थ नहीं है। भवरोग के संताप से लोग आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक इन त्रिविध तापों से झुलस रहे हैं। ‘मैं’ और ‘मेरा’ जैसे संकल्पों से वे सदा बड़बड़ाते रहते हैं। चित्त में द्वैतभावना आने से उनका मुँह कड़वा हो जाता है इसीलिए वे मुँह से विष की तरह कड़वी बातें करते रहते हैं। व्याधि से पीड़ित होने के कारण वे विवेक को लात मार देते हैं और धैर्य को झटककर वासनारूपी जंगल में भटकने लगते हैं तथा महत्त्वाकांक्षाओं के दलदल में धँसते जाते हैं। भवरोग के भ्रम में वे कैसा पागलों जैसा आचरण करते हैं ! जो नहीं खाना चाहिए उसे खाने लगते हैं, जो नहीं करना चाहिए वह करते दिखाई देते हैं और स्त्रियों के पीछे पागलों की तरह दौड़ते रहते हैं। उनकी ज्ञानशक्ति क्षीण हो जाती है। इस प्रकार सदा कुपथ्य करते रहने के कारण उनमें विकाररूपी जीर्ण ज्वर व क्षयरोग उत्पन्न होने लगता है।

इन विकारों के कारण जीव में चिंता उत्पन्न हो जाती है और सुख नष्ट हो जाता है। इस रोग का ज्वर इतना विचित्र रहता है कि जो मधुर परमार्थ है वह तो कड़वा होने लगता है और विषैले विषय मधुर लगते हैं ! इस रोग को निर्मूल करने के लिए सत्कथारूपी काढ़ा दिया जाये तो उसको रुचता ही नहीं। इस प्रकार वह पूरी तरह रोगग्रस्त होकर रहता है।

ऐसा यह जबरदस्त रोग देखकर सदगुरुरूपी चतुर वैद्य आगे बढ़ते हैं और कृपादृष्टि से उसकी ओर देखकर उसका रोग तत्काल ठीक कर देते हैं।

रोगी का महान भाग्य उदित तब होता है, जब वह गुरुकृपा का कूर्मावलोकन (कछुए की तरह दूर से ही गुरुकृपा को प्राप्त करते रहना) करने लगता है और यह रोगी के लिए अमृतपान की तरह सिद्ध होकर उसे तत्काल सावधान कर देता है। सावधान होने पर वह रोगी नित्य-अनित्य विवेकरूपी पाचन अत्यन्त सावधानी से करने लगता है। किंतु इतने से उसका जीर्ण ज्वर व क्षयरोग पूर्ण रूप से दूर नहीं होता। इसीलिए सदगुरु वैद्य उसका रसोपचार शुरु करते हैं। रोगी को (ॐकार की) अर्धमात्रारूपी अक्षर-रस देते ही उसका क्षयरोग दूर होकर वह पहले जैसा अक्षय (अविनाशी) हो जाता है।

रोगी कहीं फिर से भीषण कुपथ्य न कर दे इसलिए सदगुरुरूपी वैद्य उस पर वैराग्य की चौकीदारी रखते हैं और निरन्तर आत्मानुसंधान का पथ्य देकर संसाररूपी रोग का निवारण करते हैं। रोगी के पूरी तरह ठीक हो जाने पर उसे तेज भूख लगती है। इसलिए वह  मानसिक चिंता की लाई बनाकर भुक्खड़ की तरह एक ही क्षण में खा जाता है। गुड़ और चीनी की चाशनी की तरह कर्म-अकर्म के लड्डू, मीठे या कड़वे कहे बिना, अपनी इच्छा से खाने लग जाता है।

‘ब्रह्मास्मि’ की चरम प्रवृत्ति के सुंदर पकवान जैसे ही दिखाई पड़ते हैं, उऩ्हें तत्काल खाकर वह माया के पीछे पड़ जाता है। तब माया उसके डर से भागकर अपने मिथ्यात्व में विलीन हो जाती है। सदगुरुकृपा से उसका ‘स्व’ आनंद पुष्ट होता है और संसार-रोग बिल्कुल नष्ट होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। किंतु जो सदगुरु की महिमा को भूलकर मोक्ष को गुरु-भजन से श्रेष्ठ मानते हैं, वे मूर्ख हैं क्योंकि मोक्ष तो गुरुचरणों का सेवक है।

हमें तो सदगुरु-दृष्टि से ही परम स्वास्थ्य-लाभ होता है। हम सदगुरु-स्तुति से ही संसार में पूजनीय होते हैं। गुरुसेवा के कारण ही हम भाग्यवान हैं और हमारा सामर्थ्य हमें गुरु-स्तुति से ही प्राप्त हुआ है। सदगुरु का नाह ही हमारे लिए वेदशास्त्र है, सारे मंत्रों की अपेक्षा सदगुरु का नाम ही हमें अधिक श्रेष्ठ मालूम होता है। एकमात्र सदगुरु-तीर्थ सारे तीर्थों को पवित्र करता है।

हे गुरुदेव ! आपके उदार गुणों का वर्णन करते-करते मन को तृप्ति नहीं हो पाती। हे संसाररूपी हाथी को विदीर्ण करने वाले सिंह सदगुरु ! आपकी जय हो !”

(श्री एकनाथ भागवत, अध्यायः 10)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 259

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