निंदक का भल नाहीं…. – संत कबीर जी

निंदक का भल नाहीं…. – संत कबीर जी


हंसा निंदक का भल नाही।

निंदक के तो दान पुण्य व्रत,

सब प्रकार मिट जाहीं।। टेक।।

‘हे विवेकियो ! निंदक का कल्याण नहीं है। निंदक द्वारा किये गये दान, पुण्य, व्रत आदि सब निष्फल ही हो जाते हैं।’

जा मुख निंदा करे संत की,

ता मुख जम की छाँही।

मज्जा रूधिर चले निशिवासर,

कृमि कुबास तन माँही।।1।।

‘जिस मुख से संत की निंदा की जाती है वह तो मानो यमराज की छाया में ही है। उसके मुख से मज्जा, रक्त आदि गंदी वस्तुएँ ही रात-दिन बहती हैं और उस व्यक्ति में दुर्गुणों के कीड़े किलबिलाते हैं। उससे कुप्रभाव की दुर्गंध आती है।’

शोक मोह दुःख कबहुँ न छूटे,

रस तजि निरधिन खाहीं।

विपत विपात पड़े बहु पीड़ा,

भवसागर बहि जाहीं।।2।।

‘जो सत्य, प्रिय वचनरूपी मीठा रस छोड़कर घृणित परनिंदा का आहार करता है, उसके जीवन से दुःख, मोह, शोक कभी नहीं छूटते। उस पर बार-बार विपत्ती पड़ती है, उसका पतन एवं विनाश होता है। उसके ऊपर दुःखों के पहाड़ टूटते हैं। वह रात-दिन मलिनता एवं भवसागर में बहता है।’

निंदक का रक्षण कोई नाहीं,

फिर फिर तन मन डाहीं।

गुरु द्रोही साधुन को निंदक,

नर्क माँहि बिलखाहीं।।3।।

‘निंदक का कोई रक्षक नहीं होता। उसके तन-मन सदैव जलते रहते हैं। जो गुरुद्रोही है, साधु संतों की निंदा करने वाला है, वह जीते जी मन की अशांति रूपी नारकीय जीवन सहज में प्राप्त कर लेता है और मृत्यु के बाद घोर नरकों में पड़ा बिलखता रहता है।’

जेहि निंदे सो देह हमारी,

जो निंदे को काही।

निंदक निंदा करि पछितावै,

साधु न मन में लाहीं।।4।।

‘विवेकवान समझते हैं कि यदि कोई हमारी निंदा करता है तो वह हमारे अपने माने गये शारीरिक नाम-रूप की ही निंदा कर रहा है, मुझ शुद्ध चेतन में उसका कोई विकार नहीं आ सकता। जो निंदा करता है वह कौन है और वह किसकी निंदा करता है, इसका उसे पता नहीं है। वह यदि अपने देहातीत आत्मस्वरूप को समझ ले तो न दूसरे की निंदा करेगा और अपनी निंदा पाकर दुःखी होगा। निंदक को निंदा करके अंत में केवल पश्चाताप ही हाथ लगता है लेकिन सज्जन तथा साधु निंदक की बातों को अपने मन पर ही नहीं लाते हैं।’

दया धरम संतोष समावै,

क्षमा शील जेहि माँहि।

कहैं कबीर सोइ साधु कहावै,

सतगुरु संग रहाहीं।।5।।

‘जिनमें दया है, धर्माचरण है, जो संतोष में लीन हैं, जिनमें क्षमा और शील विराजते हैं, संत कबीर जी कहते हैं के वे साधु एवं उत्तम मनुष्य कहलाते हैं। वे सदैव सदगुरु के उपदेशों के अनुसार चलते हैं।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 22, अंक 263

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