सम्पूर्ण विषयों में जो व्यापक है, सब विषयों का जो प्रकाशक, ग्रहण करने वाला है, सब विषयों को जो अपने में समेट लेता है (खा जाता है) और जिसका भाव सदा बना रहता है, उसको आत्मा कहते हैं। ये चारों बातें अपने (आत्मा) में हैं और यह आत्मा आनंदस्वरूप ही है।
जहाँ अपने से भिन्न आनंद लेना होता है वहाँ तो करण की, इन्द्रियों की जरूरत होती है परंतु स्वरूपभूत आनंद के आस्वादन के लिए किसी करण की जरूरत नहीं है। शांत, विक्षिप्त, सविषयक, निर्विषयक आदि वृत्तियों की भी जरूरत नहीं है। सब वृत्तियों का प्रकाशक आत्मा ही है। अतः आत्मानंद करण-सापेक्ष नहीं है। अतः उसके लिए प्रयत्न की भी जरूरत नहीं है।
ऐसे आत्मा में दुःख और बंधन केवल अज्ञान से, भूल से हैं। आत्मा की भूल से नहीं, मनुष्य की भूल से। यह मनुष्य की देह में अभिमान करने वाला अज्ञानी हो गया है। वह अपनी भूल भ्रम दूर कर दे तो स्वयं आनंदस्वरूप ही है।
ये रोग, अभाव, मौत मुझसे भिन्न कुछ हैं और ये मेरा कुछ नष्ट कर सकते हैं या कर रहे हैं – यह अपने से भिन्न कुछ मानना भ्रम है। यह द्वैत प्रपंच है। इसका उपशम (निराकरण) होना चाहिए। सारे साधनमात्र इसी के लिए हैं। अपने स्वरूप निर्माण के लिए साधन नहीं है। उपशम होते ही स्वस्थता प्राप्त हो जायेगी। अतः वेदान्त- विद्या का प्रयोजन अपने स्वरूप का अद्वैत-बोध ही है। प्रपंच का उपशम कर्म, उपासना, योग आदि साधनों से नहीं हो सकता क्योंकि द्वैत प्रपंच अविद्या की कृति है, अतः ब्रह्म विद्या से ही इसका उपशम होगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 13, अंक 263
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